Monday, 25 February 2013

अनंत प्रतीक्षा : एक कल्पना



उन्मुक्त आकाश की प्राची में

काले बादलों के बीच सिंदूरी लालिमा – सी

नील-नभ की विस्तृत साड़ी में

तुम दूर होती जाओगी .

और क्षितिज पर मेखला की भाँति

घिर कर रह जाएगा हिलोरें लेता मेरा मन.

भूखंड की विशाल भुजाएँ फैलाए ,

प्रेम की सौगात लिए ,

बादलों के बीच से सूरज –सी तुम हँस पड़ोगी.

पक्षियों के कलरव का मधुर-संगीत का तान निकलेगा .

मैं पीत  चादर-किरण की ओट में छुप जाउंगा .

गोधूलि की शंखनाद से जब तंद्रा टूटेगी

तुम होगी पाश्चात्य क्षितिज पर

प्राची की अनंत प्रतीक्षा में .

किन्तु पुनः आशा से संचारित अंधकार  होगा

सागर किनारे से सागर किनारे तक

आर-पार .

तुम और हम

दो किनारे रहकर भी

कल्पित हाथ के सहारे

सेतु बनाए

नभ में प्यार के तारे बिखराए

मिलने के स्वांग रचते रहेंगे

पल-पल

क्षण-क्षण .


अमर नाथ ठाकुर , १९९३. 

मैं हर पल जन्म नया लेता हूँ

 मैं हर पल जन्म लेता हूँ हर पल कुछ नया पाता हूँ हर पल कुछ नया खोता हूँ हर क्षण मृत्यु को वरण होता हूँ  मृत्यु के पहले जन्म का तय होना  मृत्य...