उन्मुक्त आकाश की
प्राची में
काले बादलों के बीच
सिंदूरी लालिमा – सी
नील-नभ की विस्तृत
साड़ी में
तुम दूर होती जाओगी
.
और क्षितिज पर मेखला
की भाँति
घिर कर रह जाएगा
हिलोरें लेता मेरा मन.
भूखंड की विशाल
भुजाएँ फैलाए ,
प्रेम की सौगात लिए
,
बादलों के बीच से
सूरज –सी तुम हँस पड़ोगी.
पक्षियों के कलरव का
मधुर-संगीत का तान निकलेगा .
मैं पीत चादर-किरण की ओट में छुप जाउंगा .
गोधूलि की शंखनाद से
जब तंद्रा टूटेगी
तुम होगी पाश्चात्य
क्षितिज पर
प्राची की अनंत
प्रतीक्षा में .
किन्तु पुनः आशा से
संचारित अंधकार होगा
सागर किनारे से सागर
किनारे तक
आर-पार .
तुम और हम
दो किनारे रहकर भी
कल्पित हाथ के सहारे
नभ में प्यार के
तारे बिखराए
मिलने के स्वांग रचते
रहेंगे
पल-पल
क्षण-क्षण .
अमर नाथ ठाकुर ,
१९९३.