Wednesday, 22 October 2014

दीपावली में जब दीये हज़ार जलेंगे



दीपावली में जब दीये जलेंगे
कीड़े सब मरेंगे
पुण्य खूब फलेंगे  
पाप सब कटेंगे ।
             काले बादल छटेंगे
             सूर्य रश्मियाँ बिखेरेगा
             बसंत बहार छाने लगेंगे  
             उपवन फूलों से सजेंगे ।
समय पर ऑफिस खुलेंगे
जल्दी सब काम निपटेंगे
बिना मूल्य मुँह–मांगा काम करेंगे 
मुस्कुरा कर कर्मचारी प्रणाम करेंगे 
सेवा उपरांत धन्यवाद से मान करेंगे ।
प्रजा    मुग्ध  रह  जाएगी
दीपावली में जब दीये जलेंगे ।
            न लूट आतंक की कोई खबर होगी
            न कोई हत्या और बलात्कार होगा , 
            बातचीत से हर समस्या हल होगी
            हड़ताल से न कोई सरोकार होगा ।
अस्पतालों में दवाइयाँ मिलेंगी
डॉक्टर ड्यूटी पर मिलेंगे , 
नालों की सफाई हुई रहेगी
कचड़े अब नहीं महकेंगे ।
दीपावली में जब दीये जलेंगे ।
               दुकानें अभावों से दूर रहेंगी 
               मिलावट की नहीं होगी कोई खबर ,
               दाम के दाम में चीज़ें मिलेंगी
               सभी टैक्स चुकाएंगे बराबर ।
जन – वितरण प्रणाली
दुरुस्त हो रहेंगी , जनाब ।
पूरा वजन मिलेगा वहाँ
अनाजों का होगा सही हिसाब ।
गैस – पेट्रोल सब सस्ते हो जाएंगे ,
जमाखोरों के हाल खस्ते हो जाएंगे ।
दीपावली में  जब दीये जलेंगे ।  
                सांसद निधि में सांसद कमीशन नहीं लेंगे
                ठेकेदार–इंजीनियर की साँठ–गांठ टूटेगी
                विकास के काम पूरे और पक्के होंगे
                भ्रष्ट अधिकारियों की कड़ी झट  टूटेगी ।
थानों में अब दलाल नहीं बैठेंगे ,
ट्रांसपोर्ट ऑफिस में हलाल नहीं करेंगे ,
मंदिर–मस्जिद के आगे कंगाल नहीं मिलेंगे । 
दीपावली में जब दीये हज़ार जलेंगे ।
                 न्यायालय में केसों का निपटारा होगा ,
                 वकील–जजों का नहीं अब बंटवारा होगा ,
                 न्याय की न अब बिक्री होगी , 
                 दीपावली में जब  दीये जलेंगे ।
प्रशासन अब निरपेक्ष रहेंगे , 
ऊंच–नीच , जाति-पांति के भेद मिटेंगे , 
सांप्रदायिकता पर पटाक्षेप पड़ेंगे ,
दीपावली में जब दीये जलेंगे ।
                 लोक शाही सशक्त होगी
                 नौकर शाही विरक्त होगी
                 शीघ्र अच्छे दिन बहुरेंगे ,
                 दीपावली में जब दीये जलेंगे ।
बच्चों के हाथ अब कटोरे नहीं दीखेंगे ,
बाल-श्रम से मुक्त लड़की-लड़के स्कूल चलेंगे , 
अज्ञान कटेंगे , अंधकार मिटेंगे
दीपावली के जब दीये हज़ार जलेंगे ।

दीपावली की शुभकामनाएँ इन्हीं आशाओं के साथ !

अमर नाथ ठाकुर , 22 अक्तूबर , 2014 , कोलकाता । 

Tuesday, 21 October 2014

गाँव की सोंधी याद



-    1 -        
साँय –साँय बहती पछिया  हवा
लोट-पोट करते धान के लहलहाते पौधे
खन-खन खन-खन करती धान की पीली-पीली बालियाँ
घड़-घड़ घड़-घड़  घडघड़ाते ऊंचे-ऊंचे झूमते
रगड़ खाते हरे-हरे  बांस
झन-झन झन-झन करते
फट-फट फटाते थर्राते पीपल के असंख्य पत्ते
झर-झर झर्राते ताड़ नारियल खजूर  के हत्थे ।
मौन खड़ा वहाँ एक ठूंठ आम का विशाल वृक्ष
फल – पत्र विहीन जैसे शोक – संतप्त  
तिस पर बैठे  झांव-झांव करते  दर्जनों कौवे
जैसे असहाय बुढ़वा कक्का
और लड़ते – झगड़ते  परिवार के सारे लोग ।
दूर से दिखते शिरीष , शीशम , सेमल
सिपाही की भांति तैनात सावधान ।  
घर के पिछवाड़े के केले के पेड़ 

कंप-कंपाते , लहराते  उसके फटे अध - टूटे पत्तल
जैसे बुढ़िया दादी का अर्द्ध – नग्न वदन पर कमर तक लहराता

 आँचल ।

सामने खड़ा वर्षों पुराना कटहल का पेड़

जड़ से फुनगी तक मोछियों ( फल ) से लदा

जैसे अध लेटी बुढ़िया दादी के अंग-प्रत्यंग पर बैठे 

किस्सा - कहानी सुनने को जिद्दी बच्चे । 
आम और अमरूद के बगान ,
कंटीले बबूल  और खैर के पेड़ों से घिरे खेत 
इमली , पपीते , महुआ , बेर और अनार  
मक्का , ज्वार और कभी- कभी कुसियार
कभी हरी – हरी नुकीली गेहूं की गठीली बालियाँ
कभी पीले – पीले फैले चादर जैसे मनोहारी सरसों ।

-    2 -
कभी जाड़ा भला लगता
बोरी बिछाकर धूप में पीठ की सिंकाई करते बच्चे - संग 
कौड़ी , गोली , घुच्ची और गिल्ली – डंडे का खेल होता   
कभी ठंढ हाड़ को ठर्रा देता
कट कटाते दाँत , शीतलहरी वाले भोर
जब आग के उलाव सहारा बनते ।  
तब गर्मी की याद सताती 

याद करते चुक्का और कबड्डी , 

पीटो और लुका-छिपी के उधम मचाने वाले खेल  
गर्मी में  तर – बतर पसीने से हाल - बेहाल 

ऊमस से चिट - चिट करता वदन 
राहत के लिये हाथ वाले पंखे झलते
कक्का और दादी के हाथ में ये पंखे
सबेरे के बतास जैसी शीतलता देते
हम उनके कंधे पर अपनी टुड्डी रख शीतलता में हिस्सेदारी लेते । 

तब फिर वसंत की याद आती
आम के मंज़र से ढंके आम के हरे – हरे पत्ते
उचक –उचक कर दीवार के पार झाँकते से जैसे बच्चे  
तब कोयल की कूक भी क्या निराली होती ।
कभी वर्षा मन भावन होती
उमड़ – घुमड़ करते मेघ
बीच से ताक - झांक करते सूर्य देवता  
अंत हीन आकाश में गोल - गोल चक्कर काटते गिद्ध और चील का नज़ारा
झर – झर झरते मूसलाधार वर्षा जल
फूस के छत से रिसते वर्षा जल बूंद    
मेढकों के  टर्र – टर्र वाले संगीत
और वारिश की धार में कागज के नाव तैराना ।

          - 3 –
मसकहरी में उकड़ूँ लेटे कक्का
कक्का  का खांसी में लगातार खों – खों – खों करना
फिर कक्का  की धौंकनी की तरह चलती श्वांस की आवाज़ ।
और फिर बुढ़वा कक्का का एक दिन जाड़े की सुबह में प्रयाण
कोलाहल पूर्ण क्रंदन
बिलकुल सामने पोखर किनारे उनका अग्नि – संस्कार  
फिर उनका श्राद्ध
और फिर उसके बाद सुनसान नीरव दालान
एक पश्चात्ताप भरी चुप्पी
मन को कचोटता उनका अस्वस्थता में दुख भरा जीवन
और फिर वर्षों बाद एक दिन बुढ़िया दादी का भी चला जाना
फिर वही कोलाहल पूर्ण क्रंदन  
फिर उनका भी अग्नि संस्कार और श्राद्ध
फिर वही नीरव चुप्पी
फिर वही कचोटता पश्चात्ताप ।
अब सिर्फ कक्का और बुढ़िया दादी की यादें शेष रह गई हैं ।
हम याद करते हैं उनको हमेशा - हमेशा
और बहा देते दो बूंद उष्ण आँसू के ।
हमारी उनको अश्रु पूर्ण श्रद्धांजलि ।

अमर नाथ ठाकुर , 20 अक्तूबर , 2014 , कोलकाता ।   

मैं हर पल जन्म नया लेता हूँ

 मैं हर पल जन्म लेता हूँ हर पल कुछ नया पाता हूँ हर पल कुछ नया खोता हूँ हर क्षण मृत्यु को वरण होता हूँ  मृत्यु के पहले जन्म का तय होना  मृत्य...