क्यों मेरे कुछ दोस्त अब
मेरे रिलेटिव लगने लगे हैं ?
वो मेरी सैलरी पूछने लगे
हैं
बाहरी इनकम का अनुमान लगाने
लगे हैं
किस हिल स्टेशन पर घूमने गए
किस स्टार होटल में रुके
पूछने लगे हैं
मेरे कुछ दोस्त अब मेरे
रिलेटिव होने लगे हैं .
वो मेरे कपड़े का ब्रांड और
दाम पूछने लगे हैं
कितने घर और किस लोकेलिटी में
खरीदा पूछने लगे हैं
वो मेरे हर उत्तर की जांच
भी करने लगे हैं
मेरे कुछ दोस्त अब मेरे रिलेटिव
होने लगे हैं .
विमुद्रीकरण के समय कितना
ठिकाने लगाया पूछने लगे हैं
मेरे उत्तर पर कुटिल
मुस्कान और शंका की दृष्टि से ताकने लगे हैं
मेरे कुछ दोस्त अब मेरे रिलेटिव
होने लगे हैं .
मेरी ईमानदारी और सत्य-निष्ठा पर सवाल दागने लगे हैं
मेरे हर उत्तर को विजिलेंस
एंगल से परखने लगे हैं
मेरे कुछ दोस्त अब मेरे
रिलेटिव होने लगे हैं .
फिक्स्ड लाइन में कितनी भी
घंटी बजे नहीं उठाते
क्योंकि अब वो मेरा नंबर
पढ़ने लगे हैं
गलती से उठा लें तो हेलो-हेलो कह कर रखने लगे हैं
गलती से उठा लें तो हेलो-हेलो कह कर रखने लगे हैं
मोबाइल पर तो ‘आउट ऑफ स्टेशन हूँ’ कहकर टरकाने लगे
हैं
मेरे कुछ दोस्त मेरे
रिलेटिव होने लगे हैं .
हँस कर भी कुछ पूछ लिया तो
बुरा मानने लगे हैं
रो कर कराह कर पूछूँ तो
नाटक समझने लगे हैं
मेरे कुछ दोस्त मेरे
रिलेटिव होने लगे हैं .
कहाँ गए वो दिन जब वो
मेरे बिछौने पर कूद जाते थे
मेरे बिछौने पर कूद जाते थे
बिना जूता खोले लेट जाते थे
पसीना बिना पोंछे भी गले लग जाते थे
थप्पड़ लगा दो तो भी हँस देते
थे
दूसरे थप्पड़ के लिए सर
बढ़ा देते थे
हम भूखे होते थे तो भी
प्लेट से
समोसा झपट कर भाग जाते थे
समोसा झपट कर भाग जाते थे
साले हमेशा भुक्कड़ बनकर आता
है
हम भी कह हँस जाते थे
हम भी कह हँस जाते थे
वो ठहाके लगा कर हँसते थे
कहते थे , और मँगा और खाएँगे
और हम भी हँसकर और मँगा लेते थे
फिर प्यार से बाँट-बाँट
कर खाते थे
फिर दुकानदार को पैसे
दिलाने के लिए
हँगामा भी खड़ा कर देते थे .
हँगामा भी खड़ा कर देते थे .
लेकिन होस्टल आकर हिसाब जब वो करने लगते थे
तो फिर हम उसे थप्पड़ लगा
देते थे –
साले रिलेटिव समझने लगा है !
कहकर हेय-दृष्टि से उसे
देखते थे
और माँफी माँग कंधे पर हाथ
रख वो फिर हँसने लगते थे .
मुझे याद है एक बार जब मैं
रोया था
ले जाकर उसने मुझे भर पेट
खिलाया था
खुद नीचे लेटकर मुझे अपने
बेड पर सुलाया था
क्योंकि वह मेरा दोस्त था
और मैं उसका नहीं पराया था .
और मैं उसका नहीं पराया था .
अब वो दिन याद आने लगे हैं
जब कि कुछ दोस्त भी रिलेटिव
लगने लगे हैं
न हाल-चाल,न चाय,समय नहीं
है
कहकर वो कदम बढ़ा लेने लगे हैं
ईर्ष्या-द्वेष और दुश्मनी का भी भाव सँजोने लगे हैं
सामने राम-राम बोलेंऔर बगल में छूरी रखने लगे हैं
मेरे कुछ दोस्त मेरे रिलेटिव लगने लगे हैं .
ईर्ष्या-द्वेष और दुश्मनी का भी भाव सँजोने लगे हैं
सामने राम-राम बोलेंऔर बगल में छूरी रखने लगे हैं
मेरे कुछ दोस्त मेरे रिलेटिव लगने लगे हैं .
सामने से भी गुजरकर अब नज़र
फेरने लगे हैं
रास्ते बदलने लगे हैं , क्योंकि विचार बदलने लगे हैं
इसलिए कुछ दोस्त अब
रिलेटिव लगने लगे हैं .
अमर नाथ ठाकुर , ३० जून ,
२०१७ , मेरठ .
Sir, So nicely written. Hats off . you have depicted today's harsh reality. Simpicity of people is missing today.I also miss the affection bestowed to us during our childhood by our neighbours and friend's parents. There were no formalities but only love affection and openness.
ReplyDeleteThank you very much for the comments.
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ReplyDeleteThese type of people neither were a friend, nor ever will be. It was your mistake to think them as friend, that he or they, is / are reminding to you . But it is good , they have expressed themselves.
ReplyDeleteRegards Sir.
Thanks for comments.
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