दोस्ती में धर्म आड़े आ जाती है , खासकर हिन्दू और मुसलमान में . कई बार तो आप एक जैसा खाना साथ बैठ कर अपने घर में मुस्लिम दोस्त के साथ नहीं खा सकते . और तब लगता है कि आपकी दोस्ती चलने वाली नहीं . मुस्लिम तो माँसाहारी होते हैं और यदि आप निरामिष हैं , तब शायद ज्यादे दिक्कत न हो क्योंकि ऐसे में शुरू से ही अलग - अलग प्रकार के भोजन की व्यवस्था होती होगी . लेकिन यदि आप हिन्दू होकर माँसाहारी हैं तो समस्या आती है , क्योंकि बहुत सम्भावना है आप बीफ नहीं खाते होंगे . कभी - कभी आप हिन्दू होकर पोर्क खाते होंगे लेकिन मुस्लिम बन्धु निश्चित रूप से पोर्क नहीं खाएँगे . ऐसे में यदि हिन्दू और मुसलमान दोस्त आमन्त्रित किये जाने पर अपने घर पर साथ - साथ खाएँ तो दोस्ती पक्की और विश्वसनीय रखने के लिए जो दोनों को पसंद हो और जो दोनों के धर्म द्वारा मान्य हो वही खाना बनवाएं और खाएँ .
हिन्दू और ईसाई परिवारों के बीच की दोस्ती में भी ऐसा हो सकता है . ईसाईयों का माँसाहारी भोजन का दायरा तो और भी विस्तृत होता है . ईसाई सामान्यतया बीफ और पोर्क दोनों ही खाते हैं . नागालैंड के लोग ज्यादेतर ईसाई होते हैं , वो तो कुत्ते के भी माँस खाते हैं . नागा लोग कुत्ते के माँस तक ही नहीं रुकते , वो सभी तरह के उड़ने - सरकने - रेंगने - दौड़ने वाले पक्षी - कीड़े - मकोड़े एवं हाथी पर्यन्त खा जाते हैं .
हिन्दुओं में , जैनियों में अच्छी खासी संख्या निरामिषों की मिलेगी . वैसे कुछ माँसाहारी हिन्दू तो रोचक ढंग से बकरे का माँस खाएँगे लेकिन मुर्गा नहीं खाएँगे . बहुत सारे हिन्दू भी मिलेंगे जो पोर्क नहीं खाते . वैसे मुस्लिम भी कुछ विशेष प्रकार की मछलियाँ नहीं खाते हैं . इनमें मुसलमान कुरआन का अक्षरसः पालन करते हैं , जबकि हिन्दू किसी धर्म ग्रन्थ का सहारा नहीं लेकर सहस्रों वर्षों की सुस्थापित परम्परा पर चलते हैं . वैसे वेद के प्रतिकूल कुछ हिन्दू धर्म ग्रन्थ मांसाहार का उल्लेख करते हैं . एक और समस्या जो हिन्दू और मुसलमान दोस्तों के बीच माँसाहारी भोजन को लेकर आती है , उसका उल्लेख करना बड़ा ही रोचक होगा . मुसलमान हलाल माँस खाता है , जबकि हिन्दू झटका , अतः मुर्गा या बकरे का माँस जो हिन्दू और मुसलमान दोनों खाते हैं , वह भी साथ - साथ नहीं खा सकते . इस मामले में ज्यादेतर हिन्दू ज्यादे उदार होते हैं . यदि उन्हें मालूम हो जाय कि बीफ नहीं परोसा गया है तो वह हलाल या झटका के वर्गीकरण को जाने बिना होटल हो , पार्टी हो या किसी मुस्लिम दोस्त के घर खाना हो , खुशी - खुशी स्वीकार कर लेता है . लेकिन मुसलमान ऐसा नहीं करता . हमने पढ़े - लिखे मुस्लिम ऑफिसर दोस्तों को देखा है हिन्दुओं के घर या पार्टी में मटन या मुर्गा खाने से इनकार करते हुए .
मेरे ऑफिस की एक समकक्ष महिला ऑफिसर ने , जो साथ ही एक ही कॉलोनी में रहती थी , मुस्लिम थी , बकरीद के दिन हमें सहमते हुए झिझक के साथ फोन किया , "आज हमने एक बकरे की कुर्बानी दी है और हम यदि उस बकरे का माँस भिजवाएँ तो स्वीकार करोगे ? " हमने बिना कुछ सोचे-विचारे फ़टाफ़ट जबाव दिया , "क्यों नहीं, मैडम ? आप भिजवाइये तो , हमें तो अच्छा लगेगा ." उस समय मेरे मन में जो पहला विचार आया वह यह कि जैसे हमलोग काली या दुर्गा के सामने बलि चढाते हैं और फिर बकरे के माँस का प्रसाद बाँटते हैं , यह भी तो मुस्लिमों के द्वारा चढ़ावे के बाद के प्रसाद वितरण की भाँति है , अतः हमें उस पवित्र प्रसाद ग्रहण करने में क्या आपत्ति होगी . हमें तो बड़ी खुशी थी कि उस मुस्लिम महिला मित्र ने अपने पर्व पर हमारा भी ख्याल रखा . हमें तो शर्मिन्दगी हुई कि पिछली दुर्गा पूजा या दिवाली में हमने उनको प्रसाद के लिए पूछा तक भी नहीं था . लेकिन एक बात हमें खटकती रही कि उन्हें क्या हमारे ऊपर भरोसा नहीं था जो उन्होंने ऐसी परमिशन वाली भाषा का इस्तेमाल किया कि शायद हम कुर्बानी का माँस न स्वीकार करें धार्मिक विभेद की वजह से . मुझे चोट - सी पहुँची थी . जो हो , बात आई गयी हो गयी . हमने बकरीद की शाम में सपरिवार मटन का भरपूर मजा लिया . मेरे घर में मेरी पत्नी या मेरे बेटे के मन में भी कोई शंका की बात नहीं थी . बाद में हमने उस मुस्लिम महिला ऑफिसर मित्र को धन्यवाद भी ज्ञापित किया .
आगे फिर एक दिन की बात है ऑफिस में जोनल मीटिंग थी और कई दर्जन ऑफिसर उस मीटिंग को अटेंड कर रहे थे . जोरदार लंच का भी आयोजन था . निरामिष भोजन का भी इन्तजाम था और यह निरामिष भोजन कलकत्ते के बड़े नामी - गिरामी होटल से मंगवाया गया था . हमलोग बड़े चाव से आनंद ले रहे थे कि हमने देखा वह मुस्लिम महिला अधिकारी यकायक मेरे पास आयी और पूछने लगी , "अरे , बताओ ज़रा पता कर कि यह नॉनवेज हलाल है क्या ?" हमने बड़ी तिरस्कारी नजर से उनकी तरफ देखा , हमें बड़ा अजीब लगा , बड़ा ही बेतुका - सा सवाल था , संकीर्ण और हीन धार्मिकता की मुझे बू - सी आने लगी . लेकिन हमने इतना ही कहा , "मैडम, क्या फरक पड़ता है , एक ही स्वाद होता है हलाल हो या झटका ." फिर हमने गौर किया , उस मैडम ने नॉन वेज नहीं लिया अपनी थाली में . मुझे इस दिन यह बात बड़ी चुभी कि जूनियर एडमिनिस्ट्रेटिव ग्रेड की ऑफिसर जो कुछ ही दिनों में चीफ इंजीनियर होने जा रही थी ऐसी संकीर्ण सोच की क्यों है .
कुछ महीने बाद की बात है , इस महिला मुस्लिम ऑफिसर को एक दिन हमने बहुत परेशान देखा . पूछने पर बताया कि अमेरिका में पढ़ रहा उनका बेटा आर्थिक सहूलियत के लिए फ्री टाइम में पेट्रोल पम्प पर पैकेज्ड फूड बेचता है जिसमें पोर्क भी हुआ करता था . पोर्क खाना मुस्लिमों के लिए घोर अधार्मिक क्रिया - कलाप में आता है , लेकिन क्या बेचना भी ? और मैडम का बेटा यह काम छोड़कर और अन्य काम करने को तैयार नहीं था . लाचारी थी उनके बेटे को . अन्य काम मिलने की सम्भावना कम थी . उस दिन धार्मिक कट्टरता की मुझे हद लगी . अब मैं समझ गया था बकरीद पर कुर्बानी के बकरे के माँस मुझे देने में ये क्यों झिझक रही थी . ये समझती थी शायद हम हिन्दू होकर मुस्लिम का दिया माँस न स्वीकार करें, शायद हम हलाल माँस न खाते हों , क्योंकि हिन्दू तो झटका माँस खाते हैं . उन्हें क्या पता कि हम तो एक नंबर के लोभी ठहरे या बहुत ही उदारवादी या हम इतनी कट्टर सनातनी सोच में निष्ठा रखने वाले नहीं . उनको नहीं पता कि सनातन धर्म में कट्टरता नाम की व्यवस्था ही नहीं . नाना प्रकार के प्रतिक्रियात्मक विचार हमारे मन में आने लगे कि भविष्य में मुस्लिमों के यहाँ या उनके किसी अनुष्ठान में मटन न खाएँ , या हम भी पूछ लिया करें कि परोसा गया नॉन वेज झटका है या नहीं , झटका न होने पर हम भी क्यों न खाने से मना कर दें इत्यादि , इत्यादि . लेकिन यह तो गैर सनातनी बात होती , सनातनी तो मूल रूप से सहिष्णु होते हैं , प्रतिक्रियावादी नहीं होते , वो तो उदार , सरल, अनुग्राही और समझौतापरक होते हैं . हम उनकी कट्टरता की प्रतिक्रया में कट्टर नहीं हो सकते थे . इसलिए सिवाय अफ़सोस और नफरत के हमें कुछ नहीं हुआ . यह नफरत भी गैर सनातनी वाली बात हुई .
एक और चोट पहुँचाने वाले व्यवहार से आगे चलकर मेरा पाला पड़ा . मेरे कोई एक और नजदीकी समकक्ष मुस्लिम अधिकारी मित्र ने मेरे साथ मेरे घर में चिकेन न खाकर मेरे हृदय को तार - तार कर दिया . यह मित्र जब लखनऊ में था तो हम सपरिवार इनके यहाँ ईद में मिठाई लेकर जाते थे , गले मिलते थे , बड़े ही चाव से कबाब और मटन चाप खाकर आते थे . हमें यह संदेह भी नहीं रहता था कि कहीं हम बीफ खा रहे हैं . हमें अपने मित्र पर भरोसा था कि वह ऐसा नहीं करेगा क्योंकि उसे पता था कि हम बीफ नहीं खाते हैं , अतः वह निश्चित रूप से ही बीफ नहीं खिला रहा होगा . इस मित्र को कलकत्ता आने पर एक बार हमने सपरिवार आमन्त्रित किया . नॉन वेज में चिकेन बनाया खुद पत्नी के साथ मिलकर , और भी कई आइटम थे किन्तु चिकेन उस दिन का मुख्य आइटम था . जब हमलोगों ने अपने अतिथि मित्र को खाना परोसा तो उन्होंने चिकेन खाने से मना कर दिया , उनकी पत्नी एवं बच्चों ने भी नहीं खाया . चिकेन बहुत बड़ी मात्रा में मिलकर बनाया था , सब बेकार हो गया . जब मित्र ने नहीं खाया तो हमलोग भी उस दिन चिकेन चाव से नहीं खा पाए . इस दिन पता चल गया कि मेरा मित्र कितना कट्टर धार्मिक विचारों का था , उन्हें संदेह था कि चिकेन शायद हलाल न हो , मैं ने तर्क दिया कि हमारे मोमिनपुर में सारे कसाई मुस्लिम हैं जो शायद हमें भी वर्षों से हलाल ही खिलाता हो लेकिन मेरे मित्र को यह तर्क जमा नहीं . हम ने भी अपने को खूब कोसा कि हम भी कैसे अधार्मिक हैं कि हम झटका मीट का पता किये बिना मुर्गे या बकरे का माँस हमेशा ही खरीदते रहे और खाते रहे . हमने बिना कोई रोष या दुःख प्रकट किये मित्र को दूसरे आइटमों से सन्तुष्ट करने की कोशिश की . शायद मेरा मित्र संतुष्ट हो गया हो , लेकिन मैं और मेरी पत्नी पूरी तरह असन्तुष्ट रहे हमेशा के लिए . मेरा यह असन्तोष फिर से एक बार गैर सनातनी था क्योंकि सनातन धर्म में इस तरह के असन्तोष के लिए कोई स्थान नहीं .
आगे कुछ वर्षों के बाद ऐसा ही एक और वाकया मेरे साथ घटा जिससे मेरे सनातनी होने का आधार ही हिल गया . बेटे की शादी में मेरी पत्नी की एक मुस्लिम सहेली की फैमिली निमन्त्रण में आयी थी . मटन के बारे में उनकी अम्मी और पिताजी ने भी मेरे पास आकर दर्जनों मेहमानों के बीच में ऐसा ही प्रश्न पूछ लिया , "क्या ये मटन हलाल है ?" भरी पार्टी में मैं क्या अनाप - शनाप बोलता . हमने कहा, "आंटी अंकल , मालूम नहीं , किन्तु यहाँ तो अधिकाँश कसाई मुस्लिम ही होते हैं उन्होंने शायद इस बात का ख्याल रखा हो ." लेकिन हमें बहुत अफ़सोस हुआ कि अंकल की फैमिली ने हलाल की चर्चा करने के बाद मटन के बिना ही भोजन किया . सामग्रियाँ बहुत थीं अतः हमें सन्तोष था कि उन्होंने सपरिवार पर्याप्त भोजन किया होगा . मुझे आज इस घटना पर हार्दिक दुःख हो रहा था क्योंकि पिछले कई सालों से ईद और बकरीद में हमने सपरिवार उनके घर में बिना हलाल और झटका के बारे में जिज्ञाषा किये मटन और कबाब का आस्वादन किया हुआ था . खैर , यह अत्यंत ही निजी धार्मिक मामला बनता था , अतः हमने इस बात पर फिर से ज्यादे चिंतन - मनन नहीं किया . लेकिन मेरा धर्म मेरे से विमुख होता दीख पड़ा .
बात यहीं तक खत्म होने वाली नहीं थी . एक और घटना ने मुझे कुछ अन्यथा सोचने पर विवश कर दिया . एक दिन मेरे उसी समकक्ष महिला ऑफिसर मित्र , जिनकी चर्चा ऊपर कर चुके हैं , के ऑफिस में बहुत जोरों का हंगामा चल रहा था . उनका घेराव हो रखा था . घेराव करने वाले ऑफिस के ही सारे स्टाफ और कनिष्ठ ऑफिसर थे . मुझे जैसे ही पता चला मैं उस महिला अधिकारी के बचाव में तुरन्त ही चला गया . चूँकि हम दोनों के ऑफिस एक ही बिल्डिंग में थे और मेरा एडमिनिस्ट्रेटिव हेड और उस ऑफिसर के महिला होने की वजह से मेरा वहाँ चला जाना नैतिक रूप से उपयुक्त लगता था . जाने के बाद पता चला कि मामला ऑफिसियल कम धार्मिक ज्यादा था . जब इन्होंने इस ऑफिस में ज्वाइन किया था , पहले ही दिन माँ काली और रामकृष्ण वाले कैलेन्डर को उतरवा दिया था और कमरे से बाहर ले जाने को कह दिया था . फिर बाजार से ऐसा कैलेंडर मंगवाया गया जिस पर किसी देवी देवता का फोटो नहीं था . इन्होनें एक चटाई भी खरीदवायी थी जिस पर ऑफिस में ही वो नमाज पढ़ती थी , शुक्रवार यानी जुम्मे के दिन सेकंड हाफ में ऑफिस आती थी अथवा ढाई - तीन घंटों के लिए ऑफिस से चली जाती थी पास के किसी नामी मस्जिद में नमाज़ के लिये . लेकिन अपने ऑफिस में लेट आने वाले स्टाफ को मेमो दे देती थी , उनको रजिस्टर में अनुपस्थित भी मार्क कर देती थी . यह बड़ा ही भेद - भाव पूर्ण लगा स्टाफ लोगों को . अतः लोगों ने इनके धार्मिक रंग पर चोट करने की सोची और स्टाफ लोगों ने भी योजना के तहत मंगलवार या सोमवार या शनिवार को पहले हाफ में ऑफिस आना बंद कर दिया . इनके पूछने पर स्टाफ लोगों ने भी कहना शुरू कर दिया कि वो लोग भी पूजा करने हनुमान मन्दिर या शिव मन्दिर या दुर्गा मन्दिर गए हुए थे . अतः मैडम से स्टाफ का विरोध बढ़ने लगा . इस तरह झगड़ा उग्र रूप ले चुका था और आज का दिन उनके घेराव में परिणत हो चुका था . घेराव मानसिक रूप से ऑफिसर के प्रताड़ना का जबरदस्त जरिया होता है बंगाल में . खैर , किसी तरह बात बनी और बड़ी जद्दो-जहद के बाद घेराव छूटा . मैडम ने अपने एकतरफा क्रिया - कलाप से पैदा किये असन्तोष को बाद के समय में कम करने की जरूर कोशिश की , लेकिन कुछ ही दिनों में उनका कोलकाता से ट्रान्सफर हो गया था .
मैडम तो अबकी चली गयी थी , लेकिन मुझे उधेड़बुन में डाल गई थी . लेकिन हमारी सनातनी सोच हमें अपने पथ से डिगने से हमें बचा लेगी क्या ? क्या हमारा सनातनी सोच इतना संकीर्ण है कि हम इन धार्मिक संकीर्णताओं में बंध जाएँ कि अपने साथी मित्र या बन्धु के परिवार के साथ उसकी धार्मिक मान्यता के चलते उनके साथ खाना खाना छोड़ दें ? नफरत के बीज पालने लग जाएं ? बिलकुल नहीं . हम उस विशाल समावेशी धार्मिक मान्यता को मानने वाले हैं जो इस कदर असहिष्णु नहीं हो सकता , प्रतिक्रियावादी नहीं हो सकता , नफरत पैदा नहीं होने दे सकता . हमने निश्चय किया कि खाने - पीने के भेद या अंतर हमारे बंधुत्व को नहीं डिगा सकते . हमारे मन में यह विचार आया कि सारे मुसलमान इन इने गुने जैसा नहीं होते , तभी तो लखनऊ के मेरे एक मुस्लिम सहयोगी अबरार ने 24-25 वर्ष पहले ऐसे समय में बाजार से मेरे लिए कुरान मज़ीद खरीद कर दी थी जिस समय सामान्यतया किसी गैर मुस्लिम को मुस्लिम दुकानदार कुरान बेचने से कतराता था ( कुछ बार हमने कुरआन शरीफ खरीदने की असफल कोशिश भी की थी ) , तभी तो मेरठ का वो मुस्लिम मित्र मुजीब मेरा सबसे ईमानदार और विश्वसनीय सहयोगी हुआ करता था , तभी तो बरेली का एक और मेरा मुस्लिम सहयोगी मित्र आलमगीर रामायण और महाभारत की ऐसी - ऐसी कथाएं निष्ठा पूर्वक सुनाता था जो हमें भी मालूम नहीं होती थीं , तभी तो हैदराबाद का रहमतुल्ला और वजीर और दुर्गापुर का आमीर , कोलाघाट का रहमत , मेरठ का एक और मित्र शकील मेरे सुहृदयों में था .
फिर इसीलिए अभी तक हमने अपने इन सभी मुसलमान मित्रों के साथ पारिवारिक सम्बन्ध बना कर रखा है . हम हर ईद बकरीद में उनको सनातन रूप से बिना ब्रेक के शुभकामना संदेश भेजते रहे हैं . हमें भी सभी पर्वों में शुभकामना सन्देश मिलते रहे हैं . बिना किसी प्रत्याशा के हम अपने सनातन धर्म पालन का प्रण लिए बढ़ते ही रहे हैं .
अमर नाथ ठाकुर , १५ सितम्बर , २०२१, कोलकाता .