साधुओं ने मुझे अपना समझ लूटा
जबकि डाकूओं में ये दम था ।
अपने चुपके-चुपके काँटे चुभा
जाते थे
कोलाहल जबकि दुश्मनों का नहीं इतना
नग्न था ।
गोलियाँ मुझे विच्छिन्न कर
सकती थीं
गालियाँ मुझे विचलित कर
सकती थीं
पर रंग-बिरंगी पुष्प –
मालाओं में मैं तो मग्न था ।
मधुर वचन - जाल में मैं
कितना भग्न था ।
अपनों ने मुझे अपना समझ बाँटा
जबकि गैरों में कितना ज्यादा भ्रम
था ।
मित्रों ने मुझे प्यार-प्यार
में रौंदा
शत्रुओं के द्वेष में शेष
फिर भी धर्म था ।
पाताल से गहरा अपनों का रहस्य
था
आकाश से ऊँचा मेरा विश्वास
मुँह में राम-राम नाम था
बगल में छूरी का नहीं दिया एहसास ।
अपनों ने मेरे मस्तक को कुचला
पर गैरों का हिम्मत बार-बार
फिसला ।
रोम-रोम से विमुख हुआ कहाँ मैं
अकेला हूँ ?
अपने तो छूट चले फिर भी शत्रु –
मध्य पड़ा भला हूँ ।
विजय-पथ पर सीना ताने बिना
ढाल चल पड़ा हूँ ।
काल से भी दो-दो हाथ करने
ताल अब ठोक चुका हूँ ।
अमर नाथ ठाकुर , 01 जून , 2015 , कोलकाता ।