Saturday, 11 July 2015

माँ



जब मैं हँसता था
माँ तूँ हँसती थी
जब मैं रोता था
तो तूँ रोती थी
मेरी व्यग्रता पर तूँ परेशान रहती थी
मेरे उछल-कूद को अपनी शान समझती थी । 

जब मैं खा लेता था
तब तूँ खाती थी
जब मैं सोता था 
तूँ पहरा डालती थी 
जब मैं जागता था
तब भी तूँ जागती थी
माँ तूँ कब सोती थी ?

मेरी आँखों में काजल डाल
स्वयं अपना  शृंगार समझती थी
मेरी लंगोट मुझे पहना
स्वयं को तैयार समझती थी
मेरी  उल-जुलूल तुतलाहट को
संगीत के सप्त-स्वर समझती थी
मेरी  चैन की मुद्रा में परमात्मिक
सुख का आधार टटोलती थी ।

आज भी ऑफिस से नहीं आता
तब तक तूँ इंतजार करती है
जब तक खाना नहीं खाता
तूँ निराधार रहती है
मेरी घबड़ाहट और बेचैनी को
अभी भी तूँ शीघ्र  ताड़ लेती है
मेरे दुःख और परेशानी पर
आज भी तूँ जार-जार रोती है ।

मैं बिखर - बिखर खोता रहता हूँ 
माँ तूँ ढूँढ़-ढूँढ़ कर सँजोए रखती  है  
तुम्हारी  आँचल की छाया में  
मैं डूब-डूब अमृत रस पीता हूँ 
तुम्हारी पल-पल की साया में
ओत-प्रोत करूणा रस गाता हूँ 

सारा जहान है माँ तूँ  महान है 
तेरे चरणों में शत-शत प्रणाम है ।



अमर नाथ ठाकुर , 09 जुलाई , 2015 , कोलकाता ।   

वीर जब निकल पड़ते हैं



वीर जब निकल पड़ते हैं
बाधाएँ विकल हो उठते हैं
काँटे पथ के फूल बन जाते हैं
रोड़े पैरों की धूल बन जाते हैं

वीर जब निकल पड़ते हैं 
वीर तब रौंदते चलते हैं
खड्ड  मैदान सपाट बन जाते हैं  
नदी तालाब नावों के खाट बन जाते हैं 

वीर जब निकल पड़ते हैं 
वीर तब दहाड़ मारते हैं
शेर सवारी के लिए तैयार रहते हैं  
हाथी रखवाली को साभार रहते हैं

वीर जब निकल पड़ते हैं
पहाड़ भरभराने लगते हैं
सागर थरथराने लगते हैं
नारों पर भीड़ उमड़ने लगती है
इशारों पर भीड़ बिखरने लगती है

वीर जब निकल पड़ते हैं 
सूरज उनके पीछे होता है
चाँद उनके नीचे होता है
आसमान पाताल की ओट में होता है
तारे चरणों की धूल चाट रहा होता है

वीर जब निकल पड़ते हैं
पत्थर भी पिघल पड़ते हैं
बिजलियाँ कड़क राह दिखलाती हैं
मेघों का गर्जन-तर्जन विजय-स्वर सुनाता है
लोट-लोट कर वृक्ष पल्लव तन को सहलाता  है

वीर जब निकल पड़ते हैं
दिशाएँ दल - मल दल - मल करते हैं
पथ के अंगारे बुझने लगते हैं
समुद्र दो फाँक हो जाता है   
लक्ष्य तूफान बन स्वयं आ पड़ता है


वीर जब निकल पड़ते हैं
अंधेरे भी जाग उठते हैं
वीर सत्य , ईमान की ढाल में चलते हैं 
मेहनत , कर्त्तव्यनिष्ठा की खाल में मचलते हैं 
समता-एकता के पताके तब लहराने लग जाते हैं 


वीर जब निकल पड़ते हैं 
चेलों के दल के  दल बन पड़ते हैं 
चोर-लूटेरे दूर भाग पड़ते हैं
दीनों-निर्बलों के दिन फिर जाते हैं 
अत्याचारी सिर पीट-पीट कर रह जाते हैं 


वीर जब निकल पड़ते हैं
वीर ही सिर्फ सफल होते हैं
कायर तो पग-पग पर विफल होते हैं ।

वीर जब निकल पड़ते हैं ।


अमर नाथ ठाकुर , 8 जुलाई , 2015 , कोलकाता ।  

मैं हर पल जन्म नया लेता हूँ

 मैं हर पल जन्म लेता हूँ हर पल कुछ नया पाता हूँ हर पल कुछ नया खोता हूँ हर क्षण मृत्यु को वरण होता हूँ  मृत्यु के पहले जन्म का तय होना  मृत्य...