जब मैं हँसता था
माँ तूँ हँसती थी
जब मैं रोता था
तो तूँ रोती थी
मेरी व्यग्रता पर तूँ परेशान रहती थी
मेरे उछल-कूद को अपनी शान समझती थी ।
जब मैं खा लेता था
तब तूँ खाती थी
जब मैं सोता था
तूँ पहरा डालती थी
जब मैं जागता था
तूँ पहरा डालती थी
जब मैं जागता था
तब भी तूँ जागती थी
माँ तूँ कब सोती थी ?
मेरी आँखों में काजल डाल
स्वयं अपना शृंगार समझती
थी
मेरी लंगोट मुझे पहना
स्वयं को तैयार समझती थी
मेरी उल-जुलूल तुतलाहट को
संगीत के सप्त-स्वर समझती थी
मेरी चैन की मुद्रा में परमात्मिक
सुख का आधार टटोलती थी ।
आज भी ऑफिस से नहीं आता
तब तक तूँ इंतजार करती है
जब तक खाना नहीं खाता
तूँ निराधार रहती है
मेरी घबड़ाहट और बेचैनी को
अभी भी तूँ शीघ्र ताड़ लेती
है
मेरे दुःख और परेशानी पर
आज भी तूँ जार-जार रोती है ।
मैं बिखर - बिखर खोता रहता हूँ
माँ तूँ ढूँढ़-ढूँढ़ कर सँजोए रखती है
तुम्हारी आँचल की छाया में
मैं डूब-डूब अमृत रस पीता हूँ
तुम्हारी पल-पल की साया में
ओत-प्रोत करूणा रस गाता हूँ
सारा जहान है माँ तूँ महान है
तेरे चरणों में शत-शत प्रणाम है ।
तुम्हारी आँचल की छाया में
मैं डूब-डूब अमृत रस पीता हूँ
तुम्हारी पल-पल की साया में
ओत-प्रोत करूणा रस गाता हूँ
सारा जहान है माँ तूँ महान है
तेरे चरणों में शत-शत प्रणाम है ।
अमर नाथ ठाकुर , 09 जुलाई , 2015 , कोलकाता ।