Sunday, 9 December 2018

टकराते रहना ही जीवन है

टकराते रहना ही जीवन है

हर वक्त हम टकराते  ही रहते हैं
आज टकरा गये हवा के झोंके में खुल रही खिड़की से
पिछली बार टकराये थे बंद हो रहे दरवाजे से
जब भी टकराते  हैं चोट लगती है
हमेशा न हमारी गलती  और न कोई खोट  होती है

एक बार छत से तेजी से घूम रहा एक पंखा गिर गया था
और मेरी 'नाक' कट गयी थी
खून से लथपथ  हुआ था
मरहम पट्टी दवा-दारु करानी पड़ी थी
कई दिनों तक दर्द से कराहा था
फिर टकराने के ‘महत्त्व’ को जाना था
क्योंकि तभी तो दर्द में कराहना सीखा था

जब जीवन पथ काँटों से भरा हो
सर्वत्र कंकड़ पत्थर ही सना पटा हो
तब हर कदम पर टकराना होता है
कभी कांटे चुभते हैं कभी नाख़ून उखड़ते हैं
कभी हड्डी टूटती है कभी चमड़े छीलते हैं
और तभी चलते रहने का अहसास होता है
टकराकर हम सब हमेशा पछताते हैं
लेकिन तभी अपना मूल्यांकन स्वयं कर पाते हैं

जब वैचारिक टकराव होते हैं
तब तीखी बहस होती है
जब भ्रष्टाचार से टकराते हैं
तब तन- मन उद्वेलित होता है
दूसरों के अत्याचार से भी टकराना होता है
स्वयं की सोच से भी टकराना होता है
कभी टकराता देश और समाज के लुटेरों से
कभी निंदा और गाली की बौछारों से
कभी अंतर्द्वद्व से कभी जीवन के व्यतिक्रम से
फिर कभी छिन्न-भिन्न मन के भ्रम से
कभी तो टकराकर भटकने लगते हैं
कभी जीवन पथ से भी बहकने लगते हैं
टकराने के बाद पुनः टकराने का क्रम चल पड़ता है
एक-एक कर अनुभव में कुछ जुटता चलता जाता है

टकराना जीवन में चल रहा अनवरत  है
यह जीवन पथ पर चलते रहने का द्योतक है
नहीं तो लगता यात्रा की दिशा ही भ्रामक है
लक्ष्य की ओर बढ़ते जाने का यह मील-स्तम्भ है
बिना टकराए चलते चलें यह तो मिथ्या दम्भ है                  

टकराते चलते रहना ही सरस जीवन है
निर्बाध चलते रहना तो नीरस है मरण है

अमर नाथ ठाकुर , 25 नवम्बर , 2018 , कोलकाता

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