वह पतलून नहीं पहनता
गरदन से ही फटी लंगोट लटकती
हुई
कुर्त्ता उसे पसंद नहीं
गंजी की जरूरत नहीं
वक्षस्थल तक दाढ़ी लहरती हुई
बिखरे बाल कंधे को चूमती हुई
मूंछें मुँह को ढंकती हुई
नसें खिंचीं हुई
हाड़ उभरी हुई
ललाट पर लेप चन्दन-विभूत का
टीका सिंदूर का
मुख पर गहरी मुस्कान है
कमण्डल में जैसे सारा जहान है
।
मोह-माया-ममता से दूर
राजनीति से बेखबर
व्यापार की चाह नहीं
राग-ईर्ष्या-द्वेष का न कोई चक्कर
वह साधू भिखारी है
किन्तु दिल उसका बखारी है
जो भरा है करूणा के आभूषण से
असीमित आनंद के ज्योति पुंज से
उसके खजाने से नादान
लूटेरे बिलकुल अनजान ।
वह भटकता है सुनसान जंगल में
रात के अंधेरे या दिन के मंगल
में
क्यों न हो चोर-उचक्कों की माँद
में
न किसी आतंकी की साँठ-गांठ में
मांगता है चार दाने चावल के
भगवान के नाम पर
पुण्य के दान पर
जाति-धर्म के परिचय से अनजान बस्ती
में
बेफिक्र , निर्भीक , बेखौफ मस्ती
में ।
अमर नाथ ठाकुर , 20 जून , 2014 , कोलकाता ।