Saturday, 4 September 2021

मंडल दा

 नौ - दश वर्षों बाद फिर कोलकाता पोस्टिंग पाया हूँ , लेकिन प्रोमोसन पर जूनियर एडमिनिस्ट्रेटिव ग्रेड में . मैं यहाँ एडमिन और प्लानिंग का हेड हूँ . पियून से लेकर असिस्टेंट इंजीनियर तक के ऑफिसर का ट्रान्सफर पोस्टिंग कर सकता हूँ . फील्ड से प्लानिंग या प्लानिंग से फील्ड में बंगाल , सिक्किम एवं अंडमान निकोबार में . ड्राफ्ट मैन , क्लर्कों एवं पियूनों का भी ट्रान्सफर एकाउंट्स से कॉरेस्पोंडेंस में या कॉरेस्पोंडेंस से एकाउंट्स में  कर सकता हूँ . मतलब मलाई वाली पोस्टिंग या हरियाली वाली पोस्टिंग या सूखा या रेगिस्तानी  पोस्टिंग का पूरा पॉवर मेरे ही हाथ में  है . मतलब बहुत ही पावरफुल पोस्ट , जैसा लोग समझते थे , इसलिए यूनियनों एवं एसोसिएसनों द्वारा साप्ताहिक - पाक्षिक घेराव  इस पोस्ट वाले ऑफिसर का चलता ही रहता था  . यहाँ कहने की जरुरत नहीं , ज्यादेतर लोग मुझे 'सर' कहकर सम्बोधित कर रहे  हैं . कुछ जो पुराने लोग थे जिन्होंने इस ऑफिस में एक दशक पहले कभी हमें सर नहीं कहा था  , अब इस ऊँचे पोस्ट में देखकर भी लज्जावश सर नहीं कह सकते थे , लेकिन उन्होंने भी हमें आदर पूर्वक स्वीकार कर लिया हुआ है . पुराने लोगों ने पुराने रिश्ते की बात याद दिलाते हुए  बहुत देर तक कुशल - मंगल किया, परिवार के बारे में पूछा . हमने भी पूछा , कुछ के साथ चाय भी पी . इसी क्रम में साँवला - सा एक भद्र स्टाफ आया , बीमार -सा  , सिर के बाल उड़े हुए , शर्ट के दो बटन ऊपर से खुले हुए , अन्दर का मटमैला बनियान दिखता हुआ , फ्लोर में चप्पल घसीटता हुआ, नीचे पैन्ट का कोर कटा हुआ , पान से ओठ लाल - लाल  किये  किन्तु मुस्कुराते हुए ......... सर , आमा के चिन्हते पारछेन, आमि मोण्डल , आपनार पियून छिलाम एई ऑफिसे,  जखन आपनि ४०१ रुमे आगे बोशतेन ( सर , मुझे पहचान पा रहे  हैं, मैं मंडल , आपका पियून था इसी ऑफिस में , जब आप रूम नम्बर ४०१ में बैठते थे पहले )................मैं  कुछ देर तक यादों के झरोखों को खंगालने लगा और उस घोर  कम्युनिस्ट कालीन पोस्टिंग के दिन-दिन  के पल - पल को  स्मृति पटल से जीने  लगा . जैसे ही मुझे देरी हुई उस विस्मृत क्षण को फिर से याद करने में , मंडल जी ने मुझे याद दिलाने के लिए एक घटना का तुरन्त जिक्र कर दिया ........ आपनार मामा ससुर एशेछिलेन जाके आपनि चा सिंघाड़ा रसोगुल्ला खाइये छिलेन .......आमि बाजार थेके कीने एने प्लेटे साजिये छिलाम ....... (.........आपके मामा ससुर आये थे जिनको आपने चाय , सिंघाड़ा , रसगुल्ला खिलाया था ....... मैं ने ही बाजार से खरीद कर प्लेट में सजाकर दिया था ........) वो कलकत्ता पुराना कलकत्ता मेरी नजरों से एक - एक फ्रेम गुजरने लगा ..... मैं खो गया पुराने कलकत्ते के आगोश में ... 

अस्सी के दशक के उत्तरार्द्ध में क्लास वन नौकरी की पहली ज्वाइनिंग यहीं कोलकाता में हुई थी . आते ही १८ सप्ताह की फील्ड ट्रेनिंग में भेज दिया गया . इस फील्ड ट्रेनिंग के दौरान कोलकाता और हावड़ा में खूब घूमा ....धर्मतला , एस्प्लेनेड , बड़ा बाजार , टिरेट्टा  बाजार , न्यू मार्केट , बीबीडी बाग़ , सेंट्रल अवेन्यु , बेंटिंक स्ट्रीट , अलीपुर , काली घाट, दक्षिणेश्वर , बेलूर मठ, उलटाडांगा , साल्ट लेक , दमदम , बजबज , उत्तरपाड़ा , हावड़ा मैदान , कदमतला , इच्छापुर इत्यादि . कोलकाता को भली - भाँति जानने में कोई कोताही नहीं बरती . यहाँ के प्लानिंग ऑफिस में फिर रेगुलर पोस्टिंग हो गयी . योगायोग भवन में  अब ऑफिस आने का सिलसिला शुरू हो गया ... ..करीब - करीब समय पर ऑफिस आने लगा  , आकर अपने टेबुल को पोंछा मारना , कुर्सी को पोंछना , उस पर तौलिया झाड़कर फैलाना , ग्लास धोना और ग्लास में पानी लेकर टेबुल पर सजाना , फाइलों को झाड़कर फिर अपने काम में लग जाना . ये सब काम हम अपने कुछ पुराने , अनुभवी , बुजुर्ग और कोलकाता के बंगाली लोकल सहकर्मी , जो हमारे ही हॉल में बैठते थे , को देखकर सीख गये थे . पियून  हमलोगों से एक आध घंटे बाद आता था  और आकर अपनी उपस्थिति पंजी में दर्ज कर कोरीडोर में हमारे हॉल के सामने दरवाजे के किनारे टेबुल पर बैठ जाता  था और अखबार पढ़ता रहता रहता था या ऊँघता रहता था . टेबुल को पोंछना , ग्लास धोना , उसमें पानी देना , फाइलों को झाड़ना इत्यादि का काम उनका नहीं जो एक दिन उसने शुरू में ही बता दिया  था . तो हमने पूछा था वो आखिर क्या काम करेंगे ? हमारे हॉल को सर्व करने वाले  पियून  ने मुझे साफ़ बता दिया था .......घंटी बजाने पर हम आएगा  , फ़ाइल एक कमरे से दूसरे कमरे में ले जाएगा  , किसी को बुलाना हो तो बुला देगा ............... . वैसे डेढ़ - दो सौ कर्मचारियों की संख्या वाले इस ऑफिस में ऑफिसर के लेवल के हिसाब से सात -आठ ऑफिसर ही हम  जूनियर क्लास वन ऑफिसरों से ऊपर के लेवल के थे लेकिन क्या मजाल कि कोई स्टाफ हमलोगों के बुलाने से भी हमारे हॉल में आ जाए . उल्टे चीफ ड्राफ्ट्समैन , क्लर्क , ऑफिस सुपरिन्टेन्डेन्ट , कैशियर आदि कभी भी अपने हॉल में हमलोगों को बुला लेता था . कागज , पेन्सिल, पेन , ग्लास , तौलिये , डस्टर आदि के लिए स्टोरकीपर के पास जाना ही होता था , भिजवाता नहीं था , लाइन में लगकर , सिग्नेचर उपरान्त सामान उपलब्ध कराता था . कैशियर तो सैलरी से लेकर हर कोई पेमेंट हमें बुलाकर , लाइन में खड़ाकर ही देता था . क्लर्क महाशय भी ऐसा ही करते थे . ऑफिसर होना मूल्य हीन था . हमलोग कलकत्ते के ऑफिस की इस समाजवादी साम्यवादी परम्परा से वाकिफ हो गये थे और ये हमारे व्यवहार और हमारी सोच का हिस्सा बन गया था . कैंटीन से चाय बांटने वाला आता था , चाय हमारे ग्लास में डालकर , पैसे लेकर चला जाता था . चाय  पीने के बाद ग्लास धोकर उसे फिर अपने ड्रावर में  हम रख लेते थे . . ऐसा नहीं है कि ये  स्टाफ लोग ऑफिस हेड या एडमिन हेड की नहीं सुनते थे , जिनके पास ट्रान्सफर - पोस्टिंग या बिल पास करने का पावर होता था उनकी एक घंटी पर ये दौड़कर जाते थे . वैसे किसी क्लर्क या पियून से कोई काम ऑफिसर वाली धौंस से तो ये लोग भी नहीं ही करा सकते थे . हम अपने ऑफिस हेड को अपना ब्रीफ केस खुद ढोते हुए देखते थे . अपने कमरे में वो आलमीरा खुद खोलकर फ़ाइल निकालते थे . छह बजने के एक आध घन्टे पहले ही ऑफिस खाली हो जाता था . क्लर्क और पियून को लेट से आने के लिए आप कुछ नहीं कह सकते थे , ये सुबह में ऑफिस टाइम के एक आध - घन्टे बाद ही आते थे , अधिकाँश एई,जेई लेवल के ऑफिसर भी यही रूटीन फॉलो करते थे . कुछ तो डेढ़ दो घन्टे तक लेट आते थे और एक डेढ़ घन्टे समय के पहले चले जाते थे .  यहाँ एक कहावत चलता था --- दो गलतियाँ एक दिन में नहीं कर सकते .... ग्यारह  के पहले आना नहीं पाँच के बाद जाना नहीं ....... इसलिए ग्यारह  के बाद ये आते थे याने लेट , और पाँच बजे भाग जाते थे याने जल्दी .............. लंच टाइम आधे घन्टे के बजाय घन्टे - दो घन्टे का भी हो जाय तो कौन टोक सकता था . इस तरह घन्टे , दिनों के काम सप्ताहों , महीने तक भी ये लोग पूरा नहीं करते थे . ऐसे लोग पार्टी करते थे  और ऑफिस के हेड भी उनको कुछ कहने से कतराते थे , यदि ये पार्टी नहीं भी करते थे तो भी पार्टी वालों के फोलोवर होते थे और उनका संरक्षण पाते थे . 

नमस्कार या प्रणाम जैसा अभिवादन सिर्फ हम क्लास वन लोग ही अपने बॉस को करते थे . अपने जैसे कुछ समान समझ वाले सहकर्मियों में ही नमस्कार - पाती चलता था . पियून या क्लर्क  या जेई या ड्राफ्ट मेन इस तरह की परिपाटी को  साम्यवाद आने के साथ ही छोड़ चुके थे . पियून यदि किसी काम से पास आ गया तो सामने कुर्सी पर बैठेगा और तब बात करेगा . यदि हमारा फोन भी इस्तेमाल करेगा तो कोई पूछना - वूछना नहीं , सामने की कुर्सी पर बैठेगा और बात करके टेलीफोन को उसके पोजीसन में किये बिना चला जाएगा . रहम करके नाम में जी अथवा साहेब लगाकर बुलाएगा ........... जैसे मुखर्जी साहेब , सिंह साहेब या सिंह जी ... इत्यादि . परोक्ष में  तो ऑफिसरों  के नाम में जी या साहेब शायद ही कोई लगाता . याद  नहीं कभी कलकत्ते में किसी ऑफिस के कर्मचारी ने हमें 'सर' कहकर बुलाया हो , नमस्कार किया हो . हाँ , जब खड़गपुर में एग्जीक्यूटिव इंजीनियर के रूप में फील्ड में पोस्टिंग हुई थी , तो करीब-करीब सारे स्टाफ 'सर' से सम्बोधित करते थे , नमस्कार से अभिवादन करते थे . क्योंकि वहाँ मैं मलाई वाली पोस्ट पर था , ऑफिस हेड था , उपस्थिति चेक करता था , सबको काम बाँटता था , सारे बिल पास करने का पॉवर भी हमें था , टेंडर करता था , वर्क आर्डर साइन करता था आदि आदि !!!! वहाँ मेरी नाराजगी किसी को नुकशान पहुँचा सकती थी !!!! हमने कई बार मंथन किया आखिर ऐसा क्यों है बंगाल में .........सामान्य परम्परा में आदर देना , सम्मान देना , आदर या सम्मान से बातें करना यहाँ की संस्कृति से गायब क्यों हो गया ? अधिकार के लिए लड़ना , अधिकार की पूरी जानकारी रखना , लेकिन काम न करना , काम को टरकाना , भेदभाव मिटाने के बदले ऑफिसरों से भेदभाव करना आदि भी यहाँ के लोगों का खास चारित्रिक स्वभाव कैसे बन गया ? क्या बंगाल का साम्यवाद अथवा समाजवाद यही है ? हमारे मित्र डे साहब , विस्वास जी , दत्ता जी ने बहुत विस्तार से चीजें समझाईं .


बंगाल की धरती संतों , क्रांतिकारियों के लिए तो काफी उर्वरा रही है  लेकिन किसी कमजोरी वश  अँग्रेज यहाँ पहले आये और अपना जड़ जमा बैठे उस समय यहाँ के भद्र लोक ने ज्यादे प्रतिरोध भी नहीं किया , खैर यह तो इतिहासज्ञों के विवेचना की बात है . उल्टे यहाँ के लोगों ने टूटी - फूटी अंग्रेजी सीख ली और उन अंग्रेजों से चिपकने में अपना सम्मान समझने लगे . साथ में एक दूसरा वर्ग तैयार हो रहा था जो उन कुलीन वर्ग वालों से काफी प्रताड़ित - शोषित हो रहा था . लेकिन अँग्रेजों के रहते ये अपनी आवाज नहीं उठा पा रहे थे  .  आजादी के वर्षों बाद प्रतिरोध - विरोध का  पर्याय नक्सल मूवमेंट यहीं से फला - फूला  ........ नक्सल बाड़ी से .....जो यहीं है उत्तर बंगाल में . और फिर वामपंथी कम्युनिस्ट की सरकार 35-36 वर्षों तक लगातार चलती रही . बराबरी के नाम पर यहाँ की अधिकांश जनता ने साम्यवादी सोच के निकृष्ट पक्ष को  अपना लिया . यहाँ की साम्यवादी जनता ने फिर सीख लिया .....क्रान्ति  , आन्दोलन , हड़ताल करना .... .और चलबे ना , कोरबो ना , कालो हाथ भेंगे देबो, क्रान्ति हबे , जिंदाबाद - जिंदाबाद .. ... जैसे नारों से सड़क, बाजार , होटल , फैक्ट्री , ऑफिस , मैदान को गुंजायमान कर दिया . गली - मुहल्लों , वार्ड , पंचायत , म्युनिसिपेलिटी , नगर निगम आदि हर जगह साम्यवादियों का दबदबा हो गया . हर जगह गली - गली , घर - घर , ऑफिस - ऑफिस लाल झण्डे लहराने लगे . फैक्ट्रियाँ बंद होने लगीं , व्यवसायी समुदाय दुखी होने लगे और पलायन करने लगे . साम्यवादी विचारधारा से इतर विचार रखने वाले चुप रहने में भलाई समझने लगे , बंगाली भद्र लोक गुमशुम रहने लगे . गाँवों की जमीनों , शहर की खाली जमीनों पर लाल झण्डे खड़े कर  दिए गये .  इन सबके बावजूद गैर बांग्लाभाषी लोगों को कोई दिक्कत नहीं हुई . बंगाल की भूमि सबको बिना भेद - भाव के आत्मसात करती गयी . बिहार, यूपी , उड़ीसा आदि राज्यों के मजदूर वर्ग के लोग उस समय यहीं भरण - पोषण का आसरा पाते थे , सभी बाहरी मजदूर लाल झंडा थामते थे , उनको वोट देते थे और साम्यवादी नेताओं का संरक्षण पाते थे . कलकत्ता तो लघु भारत होता था सभी भाषा - भाषी के लोग यहाँ बँगला या हिन्दी बोलकर योगायोग करते थे .

उस समय साम्यवाद के नशे में बंगाल झूमता था . हर जगह बराबरी के  व्यवहार का नाटक होता था , बराबरी की चर्चा होती थी . बराबरी का व्यवहार होना जितना मनमोहक सुनने में लगता है उतना ही यह चुभने वाला होता था. अधिकतर  समय  तो लगता था , आप ऑफिसर क्लास में हैं तो इसलिए आपके साथ भेद - भाव हो रहा है . आप अपने रूखे  व्यवहार के लिए तुरन्त झिड़की खा जाएँगे , आपको धमकी मिल जाएगी . आप किसी मजदूर वर्ग के व्यक्ति  से बहस नहीं कर सकते ,  उसके  कर्त्तव्यों का उसको पाठ नहीं बता सकते . जो उसने कहा है वही सत्य मानना पड़ेगा  . मगर अपना अधिकार उसे सब पता है . आप किसी दुकान में सम्मान से बिठाये जाएँगे क्योंकि वह  व्यवसायी है उसे अपने व्यवहार से मुनाफ़ा कमाना है लेकिन उसी सम्मान की अपेक्षा आप रिक्शे वाले से , ऑटो वाले से या किसी कुली अथवा किसी मजदूर से नहीं कर सकते . दुकान वाले आपको पसंद नहीं तो आप दूसरे दुकान में जा सकते लेकिन रिक्शे या मजदूर एकता के सामने आप विवश हैं आप उससे ही सेवा लेने के लिए विवश हैं , कोई और उसके कम्पटीशन वाले आपके पास नहीं आएँगे और न आने दिए जाएँगे . आप बन्धक बना दिए जाएँगे . पुलिस कोई कार्रवाई नहीं कर सकती जब तक कि पार्टी ऑफिस या किसी पार्टी वाले से कोई  संकेत नहीं मिला हो . मजदूरों के आपस के झगड़े तो किसी भी हालत में पार्टी वाले ही सुलझाएँगे . भाई - भाई का झगड़ा , पति - पत्नी का झगड़ा , पड़ोसियों से झगड़ा सब पार्टी ऑफिस के अधिकार क्षेत्र का मामला हो गया  . फुटपाथ पर काम करने वाले , ठेले वाले , रिक्शा वाले , रेलवे स्टेसन के  कुली , हाट - बाजारों में सब्जी - फल बेचने वाले , बस के ड्राईवर , खलासी , स्लम में रहने वाले , दुकानों में सेल्स मैन , होटलों में बैरे , रसोइये , फैक्ट्री में काम करने वाले मजदूर , कर्मचारी गण , ऑफिस में क्लर्क , चपरासी , कंस्ट्रक्शन साइटों पर काम करने वाले अधिकाँश लोग सीपीआईएम , सीपीआई आदि साम्यवादी पार्टियों के सदस्य हो गये .  ये   पार्टी के लोग कहे जाने लगे . कुछ लोग कांग्रेस कांग्रेस भी करते थे लेकिन उनकी संख्या कम थी . कहीं भी आप निकल जाएँ छोटे - छोटे होटलों, दुकानों में , ऑफिसों में , बैंकों में , टेलीफोन ऑफिसों में ........घेराव , नारे बाजी , लाल झण्डों की कतार  आपको दीख ही जाएँगे .  

साम्यवाद का नंगा स्वरूप कलकत्ते की सड़कों पर , ऑफिसों , फैक्ट्रियों में दीखता तो था  ही , उसे महसूस भी किया जा सकता था  . दत्ता साहेब बाहरी नए लोगों को एक  मजेदार उदाहरण से यहाँ के साम्यवाद समाजवाद  का चित्रण करते थे  . मान लीजिये आप कलकत्ते की सड़क पर पैदल चले जा रहे हैं और किसी दूसरे आदमी से जो सामने से आ रहे होते हैं उनकी आप से टक्कर हो जाती है , और आप दोनों गिर जाते हैं . सामने वाला तुरन्त उठेगा , आपको आदरपूर्वक उठाएगा ,  आपका धूल झाड़ेगा और अफ़सोस प्रकट करेगा कि उससे गलती हुई . लेकिन यदि आप साइकिल से जा रहे हैं और सामने वाले से , जिनकी नजर सामने नहीं होती है, याने उनकी गलती से  टकरा जाते हैं और आप दोनों ही गिर पड़ते हैं तो सामने वाला उठेगा और एक - आध गाली देगा , नसीहत देगा साइकिल ठीक से चलाने का और आपको घूरते हुए अपना शर्ट झाड़ते हुए चला जाएगा . लेकिन यदि आप मोटर साइकिल से जाते हुए  सामने वाले की गलती से उससे टकराते हैं और दोनों गिर जाते हैं तो सामने वाला गाली देते हुए उठेगा , दो - चार झापड़ आपको लगाएगा , चीत्कार करेगा , कुछ लोगों की भीड़ इकट्ठा कर देगा . आपको कुछ दूसरे लोग भी गाली देंगे  , कोई आपकी मोटर साइकिल पर पैरों से ठोकर मारेगा , आप काफी डर जाएँगे , आपकी धड़कन तेज हो जाएगी , भीड़ आपसे माफी मनवाएगी और फिर ठीक से गाड़ी चलाने की नसीहत देकर भीड़ छँट जाएगी . लेकिन यदि आप कार से जाते हुए सामने वाले की गलती की वजह से उससे टकराते हैं , आप जल्दी से ब्रेक लेते हैं , गाड़ी रोक आप जल्दी से उतर सामने वाले को उठाते हैं , उसकी धूल झाड़ते हैं , उसकी गलती होने के बावजूद आप ही सॉरी भी बोलते हैं , लेकिन गिरने वाला आदमी चोट नहीं लगने पर भी चोट का बहाना कर चीत्कार करेगा , गाली देते हुए आपकी तरफ झपट्टा मारेगा , भीड़ जमा कर देगा , थाने की तरफ आपकी गाड़ी ले चलने के लिए कहेगा , आपके ऊपर लप्पड़ ,थप्पड़,  झापड़ की बौछार हो जाएगी , खींचा - खींची में आपकी शर्ट का कालर , पॉकेट फाड़ देगा , कार को लोग पीटना शुरू कर  देंगे , कोई हेड लाईट तोड़ देगा, कोई साइड मिरर तोड़ देगा , कोई खिड़की के शीशे तोड़ देगा , कोई कार की चाभी लेकर  चला जाएगा , कोई आपका लाइसेंस ले लेगा , आप रोएंगे , गिड़गिड़ाएंगे फिर पांच सौ या हजार पे बात बनेगी और आप ये फाइन देकर बच पाएंगे . ये है कलकत्ते का साम्यवाद , स्टेटस में जितना अंतर आपकी उतनी पिटाई , उतना ज्यादे दण्ड और उतनी ज्यादे ही फजीहत .

हमारा ऑफिस इस साम्यवाद से अछूता कैसे रहता . इस साम्यवाद को अपनाने में फायदे ही फायदे ही थे , काम कम करना , ऑफिस आने - जाने के समय में आजादी . कोई डर नहीं , कोई मेमो मिलने का  ख़तरा नहीं , साथ ही पार्टी वाले आपको मनचाही पोस्टिंग भी करा देंगे . हमें ड्राइंग के लिए ड्राफ्ट मैन के पास जाना होता , फेरो प्रिंट के लिए फेरो प्रिंटर के पास , ड्राइंग की एंट्री के लिए चीफ ड्राफ्ट मैन के पास , फिर फील्ड ऑफिस में ड्राइंग भिजवाने के लिए क्लर्क के पास , हम खुद चले जाते . उन्हें बुलायें , वो न आयें तो,  इस असम्मान के डर से बचने के लिए अपने को पूरा ढाल लिया था . लेकिन इस क्रम में मेरा  इन कर्मियों से अच्छा बंधुत्व हो गया . मैं उन लोगों के पास जाता वो लोग अपनी कुर्सी से भले ही न उठते , लेकिन हमने महसूस किया मेरे जाने से वो खुश होते और अपनी मुस्कान और मीठी बोली से  मेरे साथ पेश आते . 

योगायोग भवन में कई महीने मेरी पोस्टिंग को हो गये थे .  एक दिन फोन पर कोलकाता में रहने वाले मेरे ममेरे ससुर ने अपने एक और रिलेटिव के साथ मेरे ऑफिस में मेरे से मिलने की इच्छा व्यक्त की . मैं बड़ा परेशान हो गया . मेरे  अपने गाँव में ,  ससुराल में लोग जानते थे  कि मैं क्लास  वन ऑफिसर हूँ . अब तो मेरी मिट्टी पलीद होने वाली है , मैं ने सोच लिया अपनी इज्जत अब बचने वाली नहीं . जब मेरे मामा जी देखेंगे ऑफिस में ये हाल कि हम उन्हें चाय - पानी भी नहीं करा सकते तो वो क्या सोचेंगे . एक क्लास वन ऑफिसर की औकात जान लेंगे . मेरे क्लास वन ऑफिसर की बात पर वो प्रश्न चिह्न लगा हर जगह प्रचार - प्रसार कर देंगे . कोलकाता में मैं इतने महीने बाद तक भी इस हीन भावना से ग्रस्त था . मैं बहुत चिंतित था . अपने कुछ सहकर्मियों से चर्चा भी की . सबने कहा ......भई , ऑफिस में जैसे ही आयें बाहर उस दास होटल में चले जाना ....वहाँ से चाय - पानी करा के ले आना , यहाँ लोग ऐसा ही करते हैं . हमें  ये उचित नहीं प्रतीत हुआ . यदि वे गेस्ट लोग हम - उम्र होते तो ठीक था , वो बुजुर्ग थे अतः उनको ऑफिस में बैठा कर ही चाय - वाय कराना वाजिब था . कलकत्ते में वहाँ के अनुरूप ढालने के बाद भी मेरे मन में क्लास वन का नशा अभी भी था . ऑफिस पियून की बात  कि वो सिर्फ फ़ाइल ढोएगा मुझे परेशान कर रही थी . उसके बाद हमने याद किया ........उस दिन सिंह साहेब ने बार - बार  घन्टी बजाई तो भी वो नहीं आया था, जब बाहर जाकर देखा तो हमलोगों का पियून मण्डल टेबुल पर बैठा ऊँघ रहा था , कहने पर उसने  सिंह साहेब को झिड़क दिया था ........अरे साहेब , परेशान मत कोरिये .... हमको  गुम (नींद ) आ रहा  है . इस घटना से मेरा तो विश्वास ही हिल गया था , मण्डल दा  से कोई उम्मीद नहीं कर सकते कि वो कोई हेल्प करेगा . शाम हो रही थी मैं हॉल से बाहर निकला , मंडल दा से आँख मिल गयी  , मंडल ने मुस्कुरा दिया , मेरी हिम्मत बढ़ गयी  .  मैं ने कहा अरे मण्डल दा कैसे हैं ? कहा ......... ठीक है . फिर मैं ने सोचा अच्छा मौक़ा है इसे रिक्वेस्ट कर के देख लें . मैं ने कहा ........... मंडल दा , कल मेरे मामा ससुर आएँगे साढ़े दश - ग्यारह बजे , उन्हें चाय - वाय कैसे पिलाएँगे ? बिना किसी विलम्ब के फट से बोला  ...... कोर देगा . मैं अचरज में था , ये कैसे हाँ बोल गया , कहीं गलती से तो नहीं बोल गया  . मैं ने फिर पूछ पक्का होना चाहा , उसने फिर कहा .......हम तड़ा- तड़ी आ जायगा ...... कोर देगा . मैं निश्चिन्त महसूस करने लगा . लेकिन मैं रात में भी सोच सोच कर  परेशान जरूर होता रहा कि कहीं इस मंडल के  ऊपर साम्यवादी सोच आकर उसके विचार को बदल न दे . तो फिर  क्या ........नीचे उतर दास होटल से उनको चाय-पानी करा देंगे ......... मैं ने ऐसा सोच अपने को दिलासा दिला दिया  .

अगले  दिन मैं ने देखा , मंडल दा  अन्य दिनों की अपेक्षा पहले आ गया है और उसने मेरे टेबुल को  बढ़िया से पोंछ दिया है, मेरी कुर्सी को और सामने रखी तीनों - चारों कुर्सियों को भी पोंछ दिया है , तौलिया को बढ़िया से झाड़कर मेरी कुर्सी पर कायदे से फैला दिया है , फ़ाइलों को सजा दिया है , ग्लास वगैरह को साफ़ करके तैयार कर रख लिया है , कुछ और ग्लास इकट्ठे कर लिया है . मेरे सीट के ऊपर के पंखे को ऑन कर दिया है , खिड़की के परदे को ठीक - ठाक कर दिया है . जैसे ही मेरे मामा ससुर आये , मंडल दा ने उन्हें पानी पिलाया , मेरे से टाका लेकर बाजार से  सिंघाड़े , रसगुल्ले और स्पेशल चाय लाकर आदरपूर्वक सर्व किया  , फिर मेरे रिलेटिव से पूछ कर उनकी पसन्द का पान भी लाकर खिलाया , टेबुल साफ़ किया और सभी जूठे ग्लास को धोकर सही जगह में रखा भी . ऑफिस में मंडल के द्वारा अतिथियों का आव - भगत करते देखकर दुसरे सभी ऑफिसर  दंग थे, मैं तो स्वयं इसे कल्पनातीत समझ रहा था . मैं ने मंडल दा को कहा  ...... मंडल दा , धन्नोबाद . फिर मंडल दा ने खुद कहा ............ साहेब , उन लोगों का काज हम इसलिए नहीं कोरता  कि वो लोग ओफिसियरी देखाता है ... वो हमको पसन्द नहीं ...... मैं आज अपने को धन्य समझ रहा था कि मैं ने अपने व्यवहार से अपने को विनम्र बना कर रखा है . मुझे लगा कि कलकत्ते में मैं यूनियन वालों से निपटते हुए  काम कर लूँगा .    

खड़गपुर में चार साल काम करने के बाद कुल आठ - नौ सालों के बाद बंगाल से मेरा  ट्रांसफर लखनऊ हो गया , अश्रुपूर्ण नेत्रों से विदाई लेकर लखनऊ में  ज्वाइन किया . वहाँ जाते ही पता चला क्लास वन की नौकरी क्या होती है .  ड्राईवर नमस्कार करता था , गाड़ी का गेट खोलता था , बंद करता था , पियून ऑफिस में पहुँचने के पहले टेबुल पर पोंछा लगा  चुका होता था , ग्लास धोना , पानी सर्व करना , बाजार से नाश्ते - पानी लाना , यहाँ तक कि खाने के बाद प्लेट हँटाना - धोना सब काम पियून करता था . चैम्बर में घुसते ही पंखे का स्विच ऑन करना , एसी चलाना , बैग गाड़ी तक पहुंचाना भी  उसका काम होता था . आप बाजार से पर्सनल काम भी किसी से करवा सकते थे , और हर स्टाफ बिना झिझक ऐसा किया करता था . आप ऑफिस में किसी भी क्लर्क , पियून , एई , जेई, एओ  , ड्राफ्ट मैन को बुला सकते थे . जब तक न बोलें कुर्सी पर नहीं बैठेंगे . आप सेक्शन में राउंड ले लें , हर कोई अपनी कुर्सी से खड़ा हो जाएगा सम्मान में . ये हम कहाँ आ गये थे किस दुनियाँ में , हम सातवें आसमान में उड़ने लग गये थे , कितना आनन्द आ रहा था !!!! ऑफिस का वर्क कल्चर ऐसा कि आप स्वर्ग की नरक से तुलना नहीं कर सकते हैं ..... लखनऊ एवं कोलकाता की तुलना ही नहीं हो सकती .  क्या आकाश और पाताल में कोई तुलना होती है . कोलकाता में काम नहीं करने के अनेक बहाने होते थे , यहाँ स्टाफ बहाना ढूंढ़कर काम कर लेते थे . हम निकृष्ट साम्यवादी कल्चर से दूर कहाँ आ गये थे . हम तो अपने स्टाफ से बिना उम्मीद के रहते थे लेकिन हमें जो काम और व्यवहार का आउटपुट मिलता हमारी सोच से कई गुना ज्यादे होता . हम बड़े आनंद में यहाँ पांच साल बिता गये . मुझे अब पता चल गया था ऑल इंडिया कैडर वाले ऑफिसर कोलकाता पोस्टिंग क्यों नहीं चाहते . कोलकाता नरक होता है . इस बीच मेरा फिर प्रोमोसन हो गया और मेरी पोस्टिंग का  आर्डर पुनः कोलकाता के लिए आ  गया .  प्रोमोसन की खुशी में हमने सोचा ही नहीं कि फिर उसी कोलकाता में ज्वाइन करने जा रहे हैं  , लेकिन ओफिसियरी लखनऊ  को समर्पित कर विनम्रता के साथ पुनः मैं ट्रेन का टिकट ले चुका था . 


 कोलकाता में जॉइनिंग के बाद आज जब मण्डल दा ने मेरे मामा ससुर वाली बात बतायी तो मुझे मण्डल दा द्वारा कही गयी वह बात भी  याद आ गयी कि .......... साहेब आपका काम हम इसलिए कर देता है कि आप हमारा जैसा ही रहता है और हमारा जैसा ही  लगता है , आप ओफिसियरी नहीं झाड़ता है ...........मैं  ने मंडल दा को पास बुलाया , मैं कुर्सी से उठ टेबुल के सामने आ गया .....और  फिर मंडल दा को  लगा लिया ...

एडमिन सेक्सन वालों के सामने अपनी इच्छा व्यक्त की  कि मण्डल दा को बहुत  फैमिली प्रॉब्लम है , बीमार भी रहता है , उसे साल्ट लेक पोस्टिंग दे सकते हैं ? साल्ट लेक का आर्डर निकलते ही मंडल दा आँखों में आँसू लिए मुझे धन्यवाद देकर अविश्वास भरी नजर से मुड़-मुड़ कर देखते हुए  मेरे चैम्बर से बाहर जाते हुए दीख रहे थे .

 मैं मंडल दा के मूल मन्त्र को याद कर वामपंथी कलकत्ते की  फिर से इस नयी यात्रा के लिए आशा के साथ कूच कर गया था .


अमर नाथ ठाकुर , 4 सितम्बर , २०२१ , कोलकाता .

Wednesday, 1 September 2021

मैं कृष्ण बनूँगा

    

उपदेश देना चुटकियों का काम 

इसलिये कृष्ण बनना है आसान .

अर्जुन न  , मैं  तो कृष्ण बनूँगा

धर्म  का ज्ञान ही मैं परोसूँगा .


चिड़िया की आँख पर लक्ष्य कैसे हम साधें

अगणित  अस्त्र - शस्त्र क्यों कर हम साजें  

द्रौपदी का चीर - हरण बर्दाश्त कैसे  करना  

राज सभा में अपमान का घूँट क्यों कर पीना 

क्यों कर वर्षों  का दुष्कर वनवास  झेलना 

कैसे फिर स्त्री बन अज्ञात वास में घुटना .


नामुमकिन है हमसे  गाण्डीव ढोना 

हमसे  नहीं सम्भव अब अर्जुन बनना . 


कैसे  करूं कौरव संहार  का कठिन  प्रण 

रण क्षेत्र में  कैसे  लाँघू मोह-माया-ग्रहण  

नीति विरुद्ध कैसे   कर्ण  वध करना   

निहत्थे द्रोण भीष्म को  कैसे  मारना  

क्यों न हो घोर कलयुग मुझसे न हो सकेगा  

इस कदर तरकश से तीर मेरा न निकषेगा . 

  

जन्म - जन्म के  पाप हमने किये हैं 

शत - शत बार अपमान हमने सहे हैं

 ये पुनरावृत्ति हम से न हो सकेगा 

ये अभिनय हम से  न हो सकेगा .


अबकी कुरुक्षेत्र का उपदेशक बनूँगा

कसम गीता का  गीता ज्ञान ही बाँटूंगा 

धर्म संस्थापना के लिए  सुदर्शन धरुंगा 

अबकी जन्म में सिर्फ  कृष्ण ही बनूंगा .



अमर नाथ ठाकुर , १ सितम्बर , २०२१ , कोलकाता .

Sunday, 29 August 2021

ड्रा

 


उन्होंने कहा कि अपने घर में एक पार्टी रख लो , डिपार्टमेंट के हमारे सभी जान – पहचान वाले लोगों को उसमें बुला लेना और उसी पार्टी में हम उन सब को बेटे की शादी की इंगेजमेंट के दिन का फॉर्मल निमन्त्रण दे देंगे . मेरा दिमाग घूम गया . मैं तुरन्त समझ गया कि एक बार मैं फिर फँसने ही वाला हूँ . मैं सम्भला . मैं ने मन ही मन सोचा , कंजूसी और क्षुद्रता की भी हद होती है और तुरन्त अपने खुराफाती दिमाग का सहारा लिया . सामान्य शिष्टाचार और अपने (मेरे दाँत उखाड़े गए थे और अभी भी दांत में दर्द था ) और अपनी पत्नी के अस्वस्थ होने का कारण बनाया और उसी समय फोन पर ही इस पार्टी के नहीं आयोजित कर पाने की असमर्थता बता कर पिंड छुड़ाया . कितनी बड़ी राहत की सांस ली थी हमने . भूत में ऐसे कई मौके आये थे जब इस तरह के जबरदस्ती के नैतिक अनैतिक दबाव को हमने टाला था . फिर तो भूत के आईने में हम झाँकने लग गये और तीन दशक पुरानी स्मृतियों के आगोस में जैसे चंप से गये .

30-35 साल पहले की बात है जब हमने सेंट्रल गवर्नमेंट की क्लास वन की नौकरी कलकत्ते में ज्वाइन की थी . एक ही ऑफिस में अलग- अलग कमरे में हमलोग बैठते थे . लेकिन कश्यप साहेब हमसे छह - सात बैच सीनियर थे , अतः सम्माननीय थे और हमलोग उन्हें सर कहकर सम्बोधित करते थे . बातों में पता चला था वो हमारे ही कॉलेज के पढ़े हुए थे इससे वह हम पर ज्यादे ही धौंस जमाते थे . हम सभी वहाँ छह क्लास वन ऑफिसर एक साथ ही ग्रुप में चलते थे . संयोग वश एक ही कोलोनी में घर भी पा गये थे तो एक साथ ही कलकत्ते की भीड़ भरी बस में लटक-फटक कर ऑफिस के लिये आना- जाना होता था . हमारे सर करीब नब्बे - पंचानब्बे  किलो के थे , इससे उनको बस में पहले चढ़ने देते थे . वो भीड़ को जब चीरते हुए पीछे तक चले जाते तो उनके पीछे पैदा हुए वैक्यूम में बाँकी बचे हमलोग आसानी से अपना रास्ता ढूँढ़ लेते थे . मिला-जुला कर कश्यप साहेब हमारे गैंग लीडर थे . उनकी ही इच्छा चलती थी , हमलोग उनके आदेश को मानने की बाध्यता पाले हुए थे , क्योंकि वो इतने सीनियर थे और भारी - भरकम  शारीरिक डील - डौल वाले भी थे . 


कलकत्ते में हमलोगों का एक कॉमन मंथली फण्ड था , जिससे पूरे महीने बस का भाड़ा , चाय और दोपहर के लंच का चुकता किया जाता था . सब बराबर - बराबर का भार वहन करते थे भले ही हमलोग एक - एक समोसा , एक - एक रसगुल्ला खाएँ और कश्यप साहेब दो - दो तीन - तीन समोसे और रसगुल्ले प्रति दिन के हिसाब से क्यों न खा रहे हों क्योंकि ये उनके उस समय के बंगाल के साम्यवाद और  प्रजातन्त्र के हिसाब के अनुरूप ही था . एक अकेला मैं ही इस भेदभाव के विरुद्ध आवाज उठाता था क्योंकि मैं थोड़ा बड़बोला था , और बाँकी दोस्त मुझे विप्लबी कहते थे . कुछ महीनों तक जब ऐसा ही चलता रहा , कोई सुनवाई नहीं हुई , तो लाचार हो हमने भी दो - दो तीन - तीन समोसे और रसगुल्ले खाने शुरू कर दिए . बाद में गैंग लीडर से हमारी बराबरी के प्रयास को देखकर नाराजगी में गैंग लीडर ने स्वयं अपने ही अध्यादेश से इस मंथली कॉमन फण्ड के सिस्टम को भंग कर दिया . लेकिन नौकरी जॉइन करने के , पहली सैलरी पाने के , शादी की साल गिरह के , किसी की शादी ठीक होने के , या कोई और अच्छी खबर के मिलने के अवसर की ताक कश्यप सर को हमेशा होती थी . इसे सेलिब्रेट करना अनिवार्य होता था और मिठाई और समोसे वो इन अवसरों पर जमकर तोड़ते थे क्योंकि इनमें उनका पॉकेट कहाँ कटता था .

 इच्छापुर की कालोनी में सिविल विंग से कह कर हमारे गैंग ने एक बैडमिंटन कोर्ट बनवा लिया था और सुबह - सबेरे हमलोग बैडमिंटन भी खेलने लगे थे . हमारे कश्यप सर अच्छा खेलते थे  और बाँकी हमलोग बारी – बारी से ज्यादे समय उनसे हारते ही रहते थे . लेकिन कभी – कभी यदि हम उन्हें हराने की कगार पर पहुँचा देते या हरा देते तो यह उनके लिए सदमा जैसा होता और सर इस हार को पचा नहीं पाते . अपना भड़ास हमारे ऊपर कई दिनों तक निकालते . हम भी नहीं चूकते अपने ग्रुप में या ऑफिस में उनके सामने उनकी हार की चर्चा जरुर कर देते  और उनकी बौखलाहट का मजा लेते . 

 

 कश्यप सर ब्रिज भी बढ़िया खेलते थे . वस्तुतः उन्होंने ही हमें ब्रिज खेलना सिखाया था . ब्रिज में उनका पार्टनर उनकी पत्नी होती और मेरा पार्टनर मेरे ही बैच का एक दूसरा ऑफिसर . हमलोग  नव सिखुए थे अतः खूब हारते रहते थे . हमारे सर को पैसा कमाने की बड़ी ललक थी . इससे इसे वो जुआ का शक्ल देने की कोशिश करते और कहते हार - जीत में प्रति पॉइंट पाँच या दस पैसे या पचास पैसे के हिसाब से चुकाना होगा . प्रति पॉइंट कम पैसे को रख हमें फँसाने का उनका एक जाल था . हम इस जुए के सख्त विरोधी थे इसलिए  जुए के शक्ल में इसे एकदम नहीं आने देते थे . इससे वह हमें मिडिल क्लास या लोअर क्लास देहाती गँवारू कह मेरा मखौल भी उड़ाया करते थे . उनके इस मखौल में हम स्वयं ही एक पंख और जोड़ देते थे यह कहकर कि "मेरे दादाजी जाते - जाते कह  गये थे , पोते ,  कुछ भी खेलना जुआ मत खेलना , पाप लगेगा ." लोग ठहाका लगाते लेकिन  हम ब्रिज को जुए की शक्ल देने नहीं देते थे . उनकी धूर्तता और चालाकी को , उनकी हर इस प्रकार की क्रिया - कलाप को हम समझ लेते थे और अपने को बचाते रहते थे . उनकी ये विषेशता हमने शुरू में ही उनके सम्पर्क में आते ही जल्दी ही पढ़ लिया था , उस समय जब उन्होंने एक बार करीब दो हजार रुपये हमसे उधार ले लिये . उस समय मेरा परिवार कलकत्ता आया नहीं था , अतः सात - आठ सौ रुपये महीने के हमारे गुजारे के लिए पर्याप्त था . हमने भी उन्हें ये महीने की सैलरी से बचे रूपये उन्हें दे दिए थे कि उनको  बहुत ही जरुरत थी जैसा उन्होंने हमें उस समय कहा था . बाद में ये रूपये उनसे वापस लेने में मेरे पसीने छूट गये , कई महीनों में उन्होंने थोड़ा - थोड़ा  करके लौटाया . बाद में पता चला कि ये शेयर मार्केट के खिलाड़ी थे और किसी अच्छे इन्वेस्टमेंट के लिए मेरा पैसा उन्होंने इस्तेमाल किया था मुझे अँधेरे में रखकर , मुझे बुद्धू बनाकर और मेरे सीधेपन का फायदा उठाकर .

चार - पाँच महीने की नौकरी के बाद मैं अपना परिवार कलकत्ते ले आया था लेकिन उस शुरुआती दौर में मेरे घर में एक फोल्डिंग खटिया , एक मसहरी ( मच्छरदानी ) , दो तीन चमड़े के सूटकेस , एक गार्डेन चेयर , एक छोटा - सा टी टेबुल , एक थाली , एक गिलास , एक बाटी और एक बाल्टी  और दैनिक इस्तेमाल के कुछ छोटे - छोटे सामान थे . पानी साफ़ करने के लिए एक कैंडल वाला वाटर फिल्टर , किरासन पर चलने वाला बत्ती वाला एक स्टोव भी  था जिससे गृहस्थी चल रही थी . हाँ घर में सभी खिडकियों और दरवाजे पर हमने परदे लगा रखे थे . कुछ सप्ताह के बाद जब तक एक चौकी नहीं खरीद ली थी मैं नीचे में चटाई पर सोता था और करीब - करीब साल भर का मेरा लड़का और पत्नी खटिया पर , जिसमें वो दोनों सिमटकर चादर , तोसक सहित गड्ढे में  एक जगह आ जाते थे .

 मेरा लड़का  लगभग एक साल के होने के बावजूद थोड़ा - थोड़ा चल पाता था . हम सुबह - शाम उसे गोद में घुमाते थे .  वह बहुत दुबला भी था , इससे जो भी उसे देखता मुझे कुछ न कुछ उसके खाने - पीने का विशेष परामर्श भी दे दिया करता . इसी क्रम में एक सुबह जब मैं अपने लड़के को गोद में लेकर घूम रहा था तो मैं ने देखा कश्यप साहेब मैदान को चीरते हुए अपने क्वार्टर से हाथ में  लकड़ी का एक पुराना तीन पहिया वाकर लिए हुए मेरी तरफ आ रहे हैं . मुझे खूब शिक्षा दी और मेरे बच्चे से पूरी सहानुभूति दिखाते हुए कि ..... इसे अपने पैरों पर चलना सीख लेने के लिए ये वाकर ठीक रहेगा ......  और इसीलिये ये ले लो ........ कहने लगे  . उस समय मैं मन ही मन कितना खुश हो गया था कि ये कितने अच्छे हैं , मैं खामख्वाह इन्हें क्यों कोसता रहता हूँ ? मुझे अपनी स्वार्थी सोच वाली प्रवृत्ति पर बड़ी  ग्लानि हुई . कुछ ही पलों के लिए तो मैं ने ऐसा सोचा होगा कि सर तब तक में अपने अधूरे वाक्य को पूरा कर गये थे कि ......... पटने में अपने बेटे के लिए बनबाया था , पूरे दो सौ लगे थे , अब तो मेरा बेटा बड़ा हो गया है पूरे पांच साल का हो गया है , ये वाकर ऐसे ही बेकार पड़ा था , डेढ़ सौ ही मैं लूंगा , तेरा बेटा बहुत जल्दी चलना - दौड़ना सीख जाएगा , मुझे भी आत्मिक खुशी होगी , अभी बनवाओगे ज्यादे लगेगा इस लकड़ी की क्वालिटी का और ऐसी फिनिस का .................. जैसे ही मैं ने सुना डेढ़ सौ रूपये लगेंगे , मेरी अन्तरात्मा घृणा  और गुस्से से सातवें आसमान पर आ गयी  किन्तु मेरे मुँह में लगाम था , मैं ने सर के सीनियर होने का पूरा लिहाज रखा किन्तु  इस क्षुद्र प्रस्ताव के बदले में अपनी चालाकी से उन्हें उनकी  शर्मिन्दगी का अहसास करा दिया . मैं ने मुस्कुराते हुए उनको फिर वही दादा जी वाली बात बता दी .............  सर, मेरे दादा जी कहते थे नए बच्चे को पुरानी चीज मत देना , बच्चे की आत्मा हमें अभिशप्त करेगी और हम पाप के भागी होंगे . वैसे कभी - कभी तो सोचता हूँ  कि हम भी क्या अभी तक पुराने ख्यालात में उलझे रहें और दादा जी की इन दकियानूसी बातों में भरोसा रखे रहें.  इसलिये ले ही लें जब आप दे रहे हैं तो . लेकिन , सर , मेरा ये लड़का भी  न बड़ा बदतमीज है , बच्चा है इससे कम बोलता है लेकिन जब बोलता है  बड़ा खाँटी कटु बोलता है , कल कह रहा था कि......... हम फेरा हुआ माल नहीं लेते . और फिर इसने मेरे भतीजे का पुराना शर्ट जो इसकी बड़ी चाची ने इसे दिया था , बालकनी से नीचे फेंक दिया था . अब बताइये ये खरीद भी लें और ये इस्तेमाल ही न करे तो ? ................ सर उलटे पाँव हाथ से वाकर और चेहरे से मुँह  लटकाए हुए  तेजी से जाते हुए दीख रहे थे . हम उसी दिन बेंटिंक स्ट्रीट गए और हम ने दो सौ पचहत्तर रूपये में एक ट्राय साईकिल खरीदकर अपने बच्चे को देकर उसे खुश कर दिया था . ऑफिस में जब ये वाकया हमने दोस्तों में बताया तो लोगों ने परोक्ष में सर की ढीठाई और बेशर्मी पर खूब मजा किया . 

सर लेकिन इतने पर ही रुकने वाले नहीं थे . कुछ दिनों बाद वो फिर आ गये . उनके पास रसोई गैस के दो कनेक्सन थे . उन्होंने हमें कहा .............. एक सिलिंडर वाला कनेक्सन तुम ले लो तुम्हें बच्चे के साथ घर चलाने में बड़ी दिक्कत होती होगी , किरासन के स्टोव पर खाना बनाने में बड़ी फजीहत होती है यार .............. मैं  ने फिर सोच लिया ........... क्या सर बदल गये हैं ? मेरे साथ के दूसरे सहकर्मियों को ऐसा न कहकर हमें देने आये हैं मैं पल में ही अभिभूत - सा हो गया और जैसे ही मैं अब उन्हें धन्यवाद देता कि उनका व्यापार परक शेष शब्द समूह उनके मुखारविन्द से निकला ...... पन्द्रह सौ ही में दे देंगे ............. हमने कहा .......  सर , हम तो सोच रहे थे कि आप का यह विनम्र आव -  भाव तो  हमें फ्री में सिलिंडर इस्तेमाल के लिए है . एक सिलिंडर वाले कनेक्सन का तो सिक्यूरिटी मनी  चार सौ पचास रूपये है और  गैर कानूनी रूप से दूसरे के नाम का यह सिलिंडर और वो भी इतना महँगा हम कैसे ले सकते हैं . मेरे दादा जी के मरने के पहले के वचन मुझे ऐसा करने से फिर रोक रहे हैं ................ मैं ने मुस्कुरा दिया था , मेरी हँसी में पैना तिरस्कार था और बिना किसी  लाग - लपेट के वह झर - झर प्रवाहित हो रहा था . लेकिन सर मुझे कहते रहे ...........कहीं लाइन लगाओगे दो - तीन वर्षों के पहले नम्बर आने वाला नहीं ............ स्टोव पर खाना बनाने के अनेक कष्टों को देखते हुए भी हम झुक नहीं सकते थे सर के निकृष्ट व्यापार और मुनाफावादी वृत्ति के सामने . प्रेम, प्यार , सौहार्द्र में व्यवसाय का कहाँ कोई स्थान होता है . कश्यप साहेब फिर अपने तुच्छ व्यापार के जाल में हमें नहीं फाँस पाए थे . पता नहीं हम किस आदर्श स्थिति की कल्पना में थे ? इस बार फिर जब हमने अन्य सहकर्मियों में यह बात बताई तो पता चला सर ने उन लोगों को भी ऐसा ऑफर पहले ही दे दिया हुआ था और सबकी सर के बारे में मेरी जैसी ही राय थी .  कश्यप साहेब को हम अपने व्यवहार से लगातार घायल करते जा रहे थे .

सर का घाव अभी शायद  भरा भी नहीं हुआ होगा  कि मेरे बेटे का जन्म दिन आ गया , लेकिन ऐसी औकात कहाँ कि हम इसे धूम - धाम से मनावें . ऑफिस से आते समय हमने गंगूराम से सबसे अच्छी वाली एक पैकेट मिठाई ले ली और सर सहित अन्य सहकर्मियों को घर में बुला लिया . सबको मिठाई खिलाई , लेकिन सर नहीं आये , उन्होंने कहा इतने लोगों को तुम कहाँ  बैठाओगे, एक कुर्सी है तुम्हारे घर में , और उन्होंने यह भी पता कर लिया कि मिठाई के अलावा हमने और किसी भी चीज का इंतजाम नहीं किया है , न केक, न और कोई खाने - पीने का . उन्होंने कहा  ............ऐसे ही थोड़े किसी को बुला लिया जाता है  बिना किसी विशेष इंतजाम के ........... मुझे बुरा तो लगा लेकिन मैं ने इस अपमान को अन्यथा न लेकर सम्बन्ध पूर्ववत बनाये रखा . 

कुछ ही महीने का तो कॉलोनी में कश्यप साहेब के साथ रहने का  सान्निध्य रहा . इस बीच में उन्होंने अपनी पुरानी किताबें , लकड़ी के बर्त्तन रखने वाले सेल्फ , जुते रखने के शू रैक , आलमीरा , पर्दे आदि अनेक पुरानी चीजें बेचने की कोशिश की . हमने अपने दादा जी के तथाकथित सिद्धान्तों का पालन करते हुए कोई भी पुरानी और इस्तेमाल की हुई चीजें नहीं खरीदी . पता नहीं कोई और उनकी चंगुल में आया या नहीं ?  थोड़े दिनों में उनका प्रोमोसन हो गया और उनकी भारत के पश्चिम हिस्से में पोस्टिंग का आर्डर भी आ गया . उनके सामान बंधने लगे . सभी सहकर्मियों ने सोचा सर को क्यों न अपने - अपने यहाँ खाने या चाय पर  बुलाकर उनको सम्मानपूर्वक फेयरवेल दे दिया जाय . हमने तो साफ़ मना कर दिया यह कह कर कि भाई मेरी पत्नी स्टोव पर इतना खाना नहीं बना पाएगी और हमारे घर में एक कुर्सी है , उन चार लोगों को हम कहाँ बिठाएँगे . दूसरे ने कहा हम तो फैमिली के साथ हैं नहीं , एक ने कहा हम तो आज छुट्टी पर जा रहे हैं और पत्नी की तबियत ठीक भी नहीं . चौथे मित्र ने जो अगले दिन सुनाया तो हँसते - हँसते सब लोट -पोट हो गये . उसने कहा कि ...... हमने भी सोचा कम से कम सर को फेयरवेल की चाय तो पिला दें , खाना तो नहीं खिला सकते . हमारे यहाँ भी दिक्कत थी इसलिए शाम में सर के घर गया और बताया......... चलिए सर , हमारे यहाँ चाय पीने , लेकिन सर ने साफ़ मना कर दिया . हमलोग आश्चर्य में पड़ गये सुनकर . लेकिन मित्र ने कहा अभी पूरी बात तो सुनो , अधूरी में क्यों अपनी राय बनाते हो . हमारे चाय के निमन्त्रण पर उन्होंने कहा , चाय छोड़ो कल शाम में हमलोग खाना ही खाने आ जाएँगे और आज अभी इसलिये ऑफिस से दोपहर में छुट्टी लेकर जा रहा हूँ उनके खाने का इन्तजाम करने के लिए . पड़ोसी से कुर्सी इत्यादि और थाली , गिलास , चम्मच के लिए कह रखा है . फिर तो सर के सामान पैक होने तक हमलोग उनसे कन्नी काटते रहे क्योंकि उन्होंने कह रखा था बारी – बारी से सबके यहाँ खाने पर आएँगे.  

सर का सामान ट्रक में लद चुका था और  उसके अगले दिन गाड़ी में स्टेशन के लिए जब बैठ रहे थे तो हमने पंद्रह - बीस  पराठे और सब्जी का उनको पैकेट दिया रास्ते के भोजन के  लिए , जो हमारी पत्नी ने हमें बनाकर दिए थे . हमने उनसे विनती पूर्वक कहा ....... मेरे घर में तो गृहस्थी पूरी जमी नहीं है , न कुर्सी , न बर्त्तन , न गैस , न डाइनिंग टेबुल , इसलिए घर बुला नहीं पाए .  सर के मुख पर कोई भी भाव नहीं था , उन्होंने अपनी नजर किसी और की तरफ फेर ली थी , निरपेक्ष भाव और  अन्यमनस्क हो उन्होंने पैकेट रख लिया था . हमने अपना फेयरवेल  कर्त्तव्य का निर्वहन करके सन्तोष की आह भरी थी . जाते - जाते उन्होंने हमें कागजों का एक पुलिन्दा दिया था जो एसोसिएशन के ट्रेजरार का हिसाब-किताब का था और हमें  अस्थायी रूप से ट्रेजरार का काम देखने के लिए कहा गया था. हमने दूसरे दिन देखा , कश्यप साहेब एसोसिएशन का साढ़े तीन हजार रूपये लेकर चले गये हैं . प्रेसिडेंट को हमने हिसाब दिखाया . प्रेसिडेंट एक और भी ऊँचे अधिकारी थे. तुरन्त  ही फोन लगाया और उन्हें रूपये भेजने को कहा गया . उनकी बड़ी बेइज्जती की गयी थी . उन्होंने वादा किया था कुछ दिनों में वो रूपये भेज देंगे जो उन्होंने भेज तो दिए लेकिन उसके पहले फोन करके हमें बहुत बुरा - भला कहकर हमारा बहुत क्लास लिया और हमें भविष्य के लिए धमकी तक भी दे दी . 

खैर , सर तो चले गये थे लेकिन उनकी  व्यापार प्रवृत्ति , उनका स्वार्थ ,  उनकी क्षुद्रता और साथ ही उनकी धौंस हमलोगों की चर्चा का बहुत ही आनंद का विषय होता था . लेकिन इन सबके बावजूद कश्यप साहेब को कलकत्ते के ऑफिस में उनके सर्विस बुक , टेलीफोन डिस्कनेकसन , क्वार्टर सरेंडर आदि से सम्बन्धित कोई काम होता तो वो हमें ही कहते और हम अक्सर उनका काम कराते रहते थे .  नयी जगह पर उनके बॉस बड़ी कड़क मिजाज वाले थे और अपनी ईमानदारी , नियमबद्धता , समयबद्धता और अनुशासन प्रियता के लिए पूरे भारतवर्ष में हम लोगों के कैडर में जाने जाते थे . कलकत्ते की तरह ये वहां भी ऑफिस लेट पहुंचते थे , यहाँ तो कोई नहीं पूछता था लेकिन वहाँ कश्यप साहेब मेमो पाते ही रहते थे . एक बार तो पता चला घर में एसटीडी ओवर यूज के लिए उस समय बारह – चौदह हजार उनको भरना पड़ गया था . इनके टी ए बिल , एल टी सी बिल ऑडिट के जांच के घेरे में भी आ गये थे . लेकिन इन सब आरोपों से ये बचते रहे और एक बिंदास अधिकारी के रूप में कार्य करते रहे और अन्त में कुछ तिकड़म के साथ ऊँचे पद तक भी पहुँचने में कामयाब रहे .

इन कई वर्षों में कई राज्यों के ट्रान्सफर झेलने के बाद हम फिर कोलकाता में पिछले कई महीने से पोस्टेड हैं . सर कोलकाता आने वाले  हैं आज ही उन्होंने हमें फोन किया . एअरपोर्ट से गाड़ी चाहिये गेस्ट हाउस तक के लिए और उसके बाद भी कुछ और दिनों के लिए . हमने असमर्थता जताई , गाड़ी और ड्राईवर की खराब स्थिति उनको बढ़ा  - चढ़ा कर बतायी  क्योंकि वो धौंस जमाते ऑफिसर बन जाते हैं जहाँ भी रहते हैं ऐसे में कलकत्ते में कोई ड्राईवर उनको अपनी सेवा नहीं दे सकता और वो भी लगातार कई दिनों तक . खैर वो आये और चले भी गए . जरुर नाराज हो गए होंगे . लेकिन कुछ महीने के बाद फिर आये और फिर गाड़ी की डिमांड और हमने फिर मना कर दिया यह कहकर कि , सर कुछ घंटों के लिए दे सकते हैं , लेकिन दिन भर के लिए और कुछ दिनों के लिए नहीं हो पाएगा . यहाँ आपके बैच वाले हैं या कुछ और भी अधिकारी गण हैं उनको कहिये . शायद कहा हो लेकिन अब डिपार्टमेंट का वैसा हाल कहाँ जो राजशाही ठाट अभी तक चले .  कश्यप  साहब किसी दूसरे डिपार्टमेंट के गेस्ट हाउस में रुके हुए थे . शाम में उनका फोन आया , उन्होंने जानना चाहा यहाँ कौन – कौन पोस्टेड हैं जान पहचान वाले . हमने सबका नाम और नंबर बता दिया , मेसेज भी कर दिया . उनके लड़के की शादी का इंगेजमेंट है चौथे दिन . मुझसे कहा .........इन सभी जान पहचान वालों को मेरी तरफ से निमन्त्रण दे दो .......... मुझे कुछ विचित्र - सा लगा , लेकिन उनका बहुत दबाव था . मैं कुछ विशेष न बोला, अच्छा- अच्छा  बोलकर फोन रख दिया . हमने मंथन किया इस विषय पर , एक मित्र से चर्चा भी की . वह बहुत हँसा , बोला इंगेजमेंट उनके बेटे की है , तुम्हारे कहने से कौन निमन्त्रण स्वीकार करेगा . यहाँ कोई नहीं जाएगा . मैं ने फोन उठाया, और तुरन्त उनको कहा ............ सर, यह सामान्य शिष्टाचार के विरुद्ध है आपको अपने बेटे के लिए आशीर्वाद चाहिये इसलिए आप स्वयं आकर लोगों को निमन्त्रण दीजिये , यदि नहीं आ पाते हैं तो कम – से – कम आप स्वयं फोन पर  निमन्त्रण का निवेदन कीजिये , तभी लोग आएँगे नहीं तो यहाँ कोई नहीं पहुँचेगा ............ उनके ऊपर कोई प्रभाव नहीं पड़ा था . कोई परिवर्त्तन भी नहीं था उनके स्वभाव में , वही तौर –तरीका जो 25 – 26 साल पहले था , उनके आचरण में कोई विनम्रता भी नहीं . वो कहने लगे ........ ऐसा करो यार सबके यहाँ जाना मुश्किल है तुम आज शाम अपने घर में एक पार्टी रख लो और सबको बुला लो , हमलोग भी आ जाएँगे और उसी पार्टी में सबको निमन्त्रण दे देंगे .............. मुझे बहुत जोर का धक्का लगा . मेरे मन में ये कैसे – कैसे विचार आ गये . मेरे सामने से पच्चीस – छब्बीस साल पहले की वो सारी घटना – दुर्घटनाएँ एक – एक कर मेरे उपर चोट करने लगी .....वो मेरे दो हजार रूपये , बैडमिंटन , ब्रिज , लकड़ी का वाकर , गैस कनेक्सन, मेरे बच्चे का बर्थडे , इनका प्रोमोसन , ट्रांसफर , पराठे , एसोसिएशन के  साढ़े तीन हजार बकाये के रूपये और उसके बाद हमें ढेर सारी फजीहतें और धमकी . हम एकाएक कठोर हो गये और फोन पर ही हमने नीति , विनम्रता और शिष्टाचार की ढेर सारी पाठ पढ़ा दी . हमने कहा ............ सर, ये पार्टी हमारे घर पर सम्भव नहीं है , आपके बेटे की शादी है आप ही प्री इंगेजमेंट पार्टी दीजिये और उस में सबको बुलाकर निमन्त्रण दे दीजिये . हम पार्टी क्यों दें ? हमारे बेटे की शादी थोड़े ही है , आप बाहर से आये हैं , आप हमें कहिये अपनी बिल्डिंग के क्लब रूम में आपकी तरफ से आपके खर्चे से आपके लिए हम आपकी इस पार्टी का आयोजन कर देते हैं . हमारे घर में कोई भी पार्टी बड़ी हास्यास्पद बात होगी ............ हमने अपनी पत्नी और स्वयं के खराब स्वास्थ्य का हवाला देकर अपनी असमर्थता भी बतायी , जिसमें उन्हें मेरा नकली बहाना पता चल रहा था . उनको हमसे इस तरह के उत्तर की अपेक्षा न थी , वो जैसे आसमान से गिर गये हों , तुरत सम्भल गये और यह कहते हुए कि फिर से फोन करते हैं . फिर से उनका फोन नहीं आया . हम इंगेजमेंट पार्टी में गये , हमने देखा कोलकाता वाले डिपार्टमेंट से हमलोग सिर्फ तीन लोग थे बाकी उनके रिलेटिव थे . बाद में कई महीने बाद जब उनके बेटे की शादी हुई , हमें फिर कोई निमंत्रण नहीं मिला .

रिटायरमेंट के पहले हम कश्यप साहेब के ससुराली टाउन में पोस्टिंग पा गये थे लेकिन फिर  गाड़ी इत्यादि की कोई सुविधा हमारे तरफ से उनके कहने के बावजूद उनके ससुराल वालों को न मिल पायी . फिर सर डिपार्टमेंटल हेड के रूप में प्रमोट हो गये थे लेकिन सारी पुरानी बातों का हमारा हिसाब वो रखे हुए थे और जब हमें अपने होम टाउन में अपनी पोस्टिंग की जरुरत हुई तो उन्होंने साफ़ मना कर दिया ........... यार, तुम्हारा काम हम नहीं कर सकते ........... हमें स्वार्थ , क्षुद्रता , घृणा , द्वेष , निकृष्ट व्यापार वृत्ति की तीक्ष्ण दुर्गन्ध आ रही थी . हम उनके हेड ऑफिस के चैम्बर में और रुक नहीं पा रहे थे . उन्होंने चाय ऑफर की थी , लेकिन हमें अपने दादा जी की जीवन जीने की पाठ के शेष अंश फिर याद आ गये . हमने कश्यप साहेब को कहा ........... सर मुझे मेरे दादा जी की कुछ वैसी बातें फिर याद आ रही है कि इस समय अब मुझे यहाँ नहीं रुकना चाहिये , लेकिन दादा जी के पाठ को , जो मेरे स्मृति पटल पर लगातार नर्त्तन कर रही है और बेचैन कर रही है , आज हम नहीं सुनने वाले . आज हम चाय पीकर ही जाएँगे ............ हमने चाय पी और उनको जम कर खरी – खोटी सुनाई , उनको उनकी  मूल्यहीनता का अहसास करा डाला , हमने भी तीन दशकों का अपना पूरा हिसाब उनको सुना बराबर कर दिया . मुझे लगा मैं ने कश्यप साहेब के साथ वही बैडमिंटन मैच फिर से खेला हो और मैं ने अच्छे स्मैश , लम्बी - लम्बी रैलियाँ और अच्छी - अच्छी प्लेसिंग जरुर लगाकर उनको परेशान किया हो क्योंकि वो झल्लाहट में नजर आये और यदि मैं न भी जीता हो तो ये मुकाबला कम - से - कम ड्रा जरुर हो गया था . 

लेकिन इस तरह के पात्र अन्तरात्मा की नहीं सुन पाते , बहरे हो जाते हैं .

मेरे मित्र ने जैसा कहा हमने वैसा ही ऊपर में सुनाया . वर्षों बाद कोलकाता की मण्डली का यह सदस्य अभी - अभी आया था और हम दोनों ने पुरानी स्मृतियों में खूब डुबकियाँ लगाई .

 

अमर नाथ ठाकुर , २८ अगस्त , २०२१ , कोलकाता .

 

 

 

 

 

 

 

 

मैं हर पल जन्म नया लेता हूँ

 मैं हर पल जन्म लेता हूँ हर पल कुछ नया पाता हूँ हर पल कुछ नया खोता हूँ हर क्षण मृत्यु को वरण होता हूँ  मृत्यु के पहले जन्म का तय होना  मृत्य...