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रेलवे प्लेटफारम पर देखा
कन्धे में गट्ठर लटकाए हुए
सिर पर पचास किलो का बैग लादे हुए
एक हाथ सिर के ऊपर बैग थामे हुए
दूसरे हाथ से एक और गट्ठर झुलाते हुए
लाल कुर्ते और धोती वाला
पसीने में लथपथ एक मत वाला।
हाँ, वह बिहारी है ।
कलकत्ते की गलियों में
टुन-टुन करता एक रिक्शा
रिक्शे में बैठी महिला और उसका बच्चा
उनके पैरों के नीचे खड़ा
आगे रिक्शे में बेतरतीब फँसा
पसीने में लथपथ एक काला
रुकता दौड़ता दो पैरों वाला
एक मनुज बैल देखा ।
हाँ , वह बिहारी है।
सड़क किनारे चौकी लगाए
उमस भरी गर्मी में पसीने में नहाए
झाल-मुढ़ी भुजिया बेचता
रीत लाल और उसका पोता
गुमटी में पान सिगरेट खैनी बेचता
चौरसिया और उसका बेटा
फुटपाथी खुले ढाबे में
गा-गा कर बर्त्तन धोता छोटकू
चाय की दुकान में चाय बाँटता मटकू
फिर हीरालाल को देखा
लस्सी घोल और शिकंजी बेचता ।
हाँ , ये सब बिहारी हैं ।
चौराहे पर सड़क किनारे कोने में
कुछ दौरे और टोकरियों में
केले ,सेब, नारंगी फैलाए हुए
सुनहरे भविष्य के सपने पाले हुए
लुंगी और जालीदार टोपी में
छाती तक लहराती सफ़ेद दाढ़ी में
सुबह से शाम तक हाँक लगाता
रहमान चाचा
भी बिहारी है।
सफ़ेद धोती कुर्ते में
सुबह-सुबह डेग भरते
ललाट पर सिन्दूर के टीके
तथा झूलती चोटी पीछे
हाथ में एक पोथी जकड़े
अपने यजमान के यहाँ
पूजा-पाठ करने जाते भीम झा
भी बिहारी हैं ।
बड़े बाज़ार में ट्रक में बोरी लादते
ठेला को खींचते और ठेलते
अलीपुर में , राजार हाट में
बिलकुल नहीं होते ठाठ में
कहीं मकान का नींव खोदते
कहीं ट्रक से गिट्टी - बालू उतारते
बसों में गेट पर जान से खेलते झूलते
पैसेंजर को चढ़ाते बचाते खलासी
कभी टेम्पो चलाते कभी चलाते टैक्सी
ये सब दिन-रात का चैन त्याग कर
दो पैसा कमाने आया भाग्य का रोना रो कर ।
हाँ , ये सब बिहारी हैं।
कूड़ा कचड़ा बिनते
छोटे- छोटे कच्चे- बच्चे,
फुटपाथ पर चादर टाँगे नीचे
बच्चे को दूध पिलाती माताएँ
ढील हेरती आगे-पीछे बैठी बालिकाएँ
सड़क किनारे बीत जाती ज़िंदगानी
वहीं नल में आते झर-झर पानी
जहाँ लजाती सकुचाती स्नान करती स्त्रियाँ
वहीं करछुल चलाती , दाल सब्जी बनाती परियाँ ।
सब -के - सब बिहारी हैं ।
साईकिल पर दूध पहुँचाते फेकू
सुबह-सुबह घर-घर अखबार बाँटते लेखू
बाजार में सब्जी बेचते फागू
रद्दी खरीदते-बेचते मोहन लाल
गैरेज़ में तेल-मोबिल-इंजिन वाले मिस्त्री सुपाड़ी लाल ।
सब-के-सब बिहारी हैं।
ऑफिस का चौकीदार
कैम्पस में झाड़ू देता जमादार
जूते में पॉलिश करने वाला भाई
सैलून में बाल काटने वाला नाई
कपड़े में प्रेस हो या कपड़े की सिलाई
या हो गोल-गप्पे या चाट खटाई
गड़िया हाट में , खिदिर पुर में
धर्मतल्ला में फुटपाथ पर
या बेहाला के बाट घाट पर
गंजी-जाँघिया और टी-शर्ट बेचने वाला
सत्तू-नीबू और लिट्टी बेचने वाला
फर्नीचर दुकान में लकड़ी पर रन्दा चलाने वाला
स्टोव-चूल्हा रिपेयर शॉप वाला
हैं अधिकांश निम्न- चतुर्थ वर्गीय काम करने वाला ।
किन्तु सबके-सब बिहारी हैं ।
कलकत्ते में प्लेटफारम हो या फुटपाथ
गलियों में मज़मा लगाए नीचे बिछे पाट
गुमटियों में , झोपड़ियों में
नाले के किनारे, जूट मिलों में ।
कहीं मगही की तान तो कहीं भोजपुरी की शान
कहीं अंगिका वज्जिका कहीं मैथिली सुरीली महान
कहीं शारदा सिन्हा तो कहीं भिखारी
कहीं मालिनी अवस्थी की तान प्यारी।
हर जगह बिहार बसता है ।
कहीं झिड़कियाँ सुनते ,
कहीं गाली खाते ,
कहीं झिक-झिक करते
फिर भी मुस्कुराते होते
हर जगह बिहारी हैं ।
ये हर जगह तिरस्कृत होते , पेट और पैसे की आश में
घर से दूर दिन-रात मेहनत कर रहे होते हर सांस में ।
कलकत्ते के हर निर्माण में बिहारी हाथ होता है ।
यहाँ की हर साधना में बिहारी साथ होता है।
सुना है बिहारी देश के हर हिस्से में हैं
बनते-बिगड़ते देश के हर किस्से में है ।
हर जगह राष्ट्र- निर्माण में बिहारी योगदान कर रहे हैं ।
हर जगह मालिकों के मुख पर मुस्कान ला रहे हैं ।
कुछ छुटभैये नेता बिहारी अस्मिता पर थूकते हैं ।
बिहारी को गाली बकते हैं और ठोकर मारते हैं ।
पढ़े-लिखे उच्च पद पर कार्य रत अप्रवासी बिहारी ,
या हो केंद्र तथा राज्य में बिहार के राज नेता दुरात्कारी
ये सब सुनते रहते हैं ।
पता नहीं वो क्या करते हैं ?
लेकिन प्रवासी शोषित बिहारी इनसे रहते बेखबर
बिना किसी दुर्भावना के इस संकीर्णता से होते हैं ऊपर।
बिना किसी लोभ के
बिना किसी क्षोभ के
बिना किसी चाह के
बिना किसी डाह के
होते हैं ये बिहारी ।
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छठ में बाबू घाट पर गंगा किनारे
नाचते गाते लोग ढेर सारे
दीये जलाते पटाखे चलाते
रंग-बिरंगी रोशनियों से वातावरण को चमकाते।
नाक से सिर तक सिन्दूर की लाल मोटी रेखा में
रंग-बिरंगी साड़ियों में सुरीली गीतों की लहरियों में
दौरे सूप कोनियाँ में फल-फूल सजाये
खजूरी ठेकुए पुड़किये से दिशा महकाए
गंगा के जल में भींगे वस्त्र में थरथराती खड़ी-खड़ी
डूबते और उगते सूर्य देव के लिये हाथ जोड़े पड़ी-पड़ी
अश्रुपूरित नयनों से अर्घ्य देती हुई ये ललनाएँ
बिहार को फिर जीवन्त करती कल्पनाएँ ।
यहाँ छठ में पूरा- पूरा बिहार दीखता है ।
कलकत्ते में हर जगह बिहार बसता है ।
यहाँ विकास का वाहन बिहारी मज़दूर खींचता है
बिहारी अपने खून-पसीने से कलकत्ते को सींचता है।
ये बिहारी आत्म-सम्मान को कर चूर
अपनी जन्म-भूमि से रहकर भी दूर
वस्त्र चाहे गन्दा पहने हुए है
अपनी बिहारीयत को ज़िंदा रखे हुए है ।
इतिहास स्वर्णिम न भी बताकर
वर्त्तमान की टंकार पर
आओ बोलें हम बिहारी है
सम्पूर्ण भारत हमारी बिरादरी है।
अमर नाथ ठाकुर , 19 नवम्बर , 2015 , कोलकाता ।