मैं अकेला होता
बाहर ये हवा भी न होती
और न होता ये अन्तर्मन
तब तो जान पाता एकाकीपन
और तब न माप पाता संग-संग
चलने-बसने का आनंद ।
संभव नहीं ये परिकल्पना
परमेश्वर की जैसी है ये रचना
ये शरीर और ये चेतना
साथ-साथ ही सदा होना ।
चेतना का न होना
है शरीर का मर जाना
अतः एकाकीपन है दुःख का कारण
तो संग रहकर क्यों ये मरण-मारण
।
साथ-साथ है जब रहना
तो फिर क्यों है झगड़ना ।
साथ-साथ का दुःख होता क्षणिक
और ये माया की प्रवंचना ।
साथ-साथ में सिर्फ चिर आनंद होता
क्योंकि साथ-साथ रहना ही है ईश्वर
की साधना ।
अमर नाथ ठाकुर , 4 सितंबर , 2014 , कोलकाता ।