Monday, 14 April 2014

माँ



बचपन के बीते मधुर पल
छूते जब ये स्मृति-पटल । 
ढोल मजीरा ध्वनित करतल
झंकृत कर देता मन – चंचल । 
दृग कोनों से ढलकाता अविरल
ऊष्ण – जल ये अश्रु –जल ।

न था कोई अनुशासन बोझिल
न था कोई पोशाक जटिल । 
लुका-छिपी के खेल में
आश्रय देता था माँ का आँचल ।

दौड़ –दौड़ जब थक जाता
पैर दबाती थी होकर विकल ।
अंग-अंग में तेल मसलती  
और लगा देती आँखों में काजल ।

पत्थर फेंकता , गेंद उछालता
बच्चों – संग मचाता था कोलाहल । 
चावल बिखेरता , आँटा उड़ेलता
पानी डाल सब कुछ कर देता था तरल ।
लौट शाम को पिताश्री लगाते
झापड़ ,थप्पड़ ,छड़ी और चरण-कमल ।
देर रात तक क्रंदन करता
माँ तब हो जाती थी विह्वल ।
गोद में बिठाकर कौर खिलाती
फिर मैं हो जाता था हर्षित चपल ।

देह रगड़-रगड़ जब नहलाती
मैं बन जाता था उच्छृंखल ।
वह मेरी यशोदा मैया होती थी
मैं होता उसका कन्हैया विट्ठल ।

दुलराती थी , पुचकारती थी मुझे
वह करती थी प्यार अविरल ।
माँ ने मुझे करूणा-अमृत पिलाया
बड़ा हो गया मैं चूस-चूस उसका वक्षस्थल ।

बचपन के मधुर पल ।  


अमर नाथ ठाकुर , 14 अप्रैल , 2014 , कोलकाता । 

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