Sunday, 14 April 2019

जनरल परसेप्शन : जाति , धर्म और चुनाव ( बिहार और उत्तर प्रदेश के परिप्रेक्ष्य में )




फिर चुनाव आया है . चुनाव तो आता ही रहता है. मुद्दे बदलते रहते हैं. इस बार चुनाव के मुद्दे क्या हैं विकास, भ्रष्टाचार, काला धन, राष्ट्रवाद, आतंकवाद, देश की सुरक्षा ? लेकिन यह जानना क्या जरुरी है ? जरुरी भी है क्योंकि इसका भी प्रभाव चुनाव पर पड़ता है. नहीं भी जरुरी है क्योंकि जितना हम सोचते हैं उतना यह प्रभावित नहीं करता है चुनावी परिणाम को. मेरे पास आंकड़े नहीं हैं, पर मैं आंकड़े का इस्तेमाल करना अभी जरुरी भी नहीं समझता. लेकिन हमलोगों के पास जनरल परसेप्शन की समझ है. सामान्य जन की प्रत्यक्ष अनुभूति (परसेप्शन, perception) क्या है उस पर आधारित है हमारा यह विश्लेषण. और यही परसेप्शन है जो बहुत कुछ मायने रखता है अपने देश में. चुनावी सर्वे में हमें पता नहीं लगता है कि जनता सत्य बोल रही है. अतः कोई भी चुनावी सर्वे जो जनता की राय कैमरे पर या कागज़ पर लिखा कर की जाए और आंकड़े उस पर आधारित हो तो आप समझ सकते हैं कि इस तरह के आंकड़े कितनी सच्चाई बखान करते होंगे. जनरल परसेप्शन के हिसाब से आप अनुमान लगा सकते हैं कि वोटों का कितना प्रतिशत किसके पक्ष में जा रहा है. और यह छोटा-मोटा प्रतिशत नहीं है. चुनावी सर्वे में भाग लेने वाले तथा सही बातें बताने वाले लोग इन जनरल परसेप्शन से भिन्न होते हैं. जनरल परसेप्शन जिस वोटर को कवर करते हैं वो सर्वे में शायद ही सही बोलते हैं या सही लिखकर देते हैं. बहुत अच्छे पढ़े-लिखे लोग तो अपनी बात सर्वे में प्रकट भी नहीं करते. कुछ कम समझ वाले यदि जाति या धर्म के आधार पर वोट करते हैं तो यह वह भी छिपा कर रखते हैं और सर्वे में बताना नहीं चाहते. वोट वह उन्हीं को देते हैं जिनके बारे में पहले से सोच चुके होते हैं जो किसी भी देश हित या क्षेत्र के विकास या मानवता की भलाई जैसे मुद्दों से वास्ता नहीं रखता.
आप व्यक्तिगत रूप से क्या सोचते हैं हमें सच में यह पता नहीं लेकिन हम सब की सम्मिलित सोच क्या है यह तो परिणाम से पता चल ही जाता है. जनरल परसेप्शन भी आंकड़े आधारित ही होते हैं, लेकिन यह बर्षों की सुस्थापित सोच होती है और वर्षों की इसी सुस्थापित सोच से प्राप्त यह आंकड़ा बहुत कुछ बताता है और यही जनरल परसेप्शन है. जनरल परसेप्शन आधारित भविष्यवाणी वही बताती है जैसा हम सोचते हैं. इसलिए जनरल परसेप्शन को समझ लेना सामान्य सर्वे से भिन्न किन्तु ज्यादा सशक्त जरिया है चुनावी भविष्यवाणी के लिए तथा खासकर चुनावी महापर्व के परिणाम को प्रभावित करने के लिए तथा कुछ ख़ास बताने के लिए. जनरल परसेप्शन सबको पता होती है. जनता क्या सोचती है, जनता क्या करने वाली है, यह हम सब आसानी से समझ भी लेते हैं. परिणाम से परसेप्शन बनते हैं और बार-बार का एक जैसा परिणाम एक जनरल परसेप्शन बनाते हैं. निष्पक्ष सोच रखने वाले इस परसेप्शन का अपवाद होते हैं. यह जरुरी नहीं कि निष्पक्ष राय वाले पढ़े-लिखे ही हों. हम इस निष्कर्ष पर भी पहुंचेंगे कि यही निष्पक्ष राय रखने वाले जो जनरल परसेप्शन के अपवाद होते हैं चुनाव के अंतिम परिणाम को सबसे ज्यादे प्रभावित करते हैं.
आज इस विशेष जनरल परसेप्शन की सहायता से हो रहे चुनाव के आने वाले परिणाम का पूर्व विश्लेषण करते हैं. हमें जानना होगा कि जाति और धर्म जनरल परसेप्शन के आधार हैं. जाति और धर्म कैसे हमारे चुनाव को प्रभावित करते हैं, आज इसी पर चर्चा करते हैं. अपने देश में जाति और धर्म से इस कदर लोग जुड़े हुए हैं कि भ्रष्ट से भ्रष्ट , दुर्दांत क्रिमिनल , आतंकवादी और फसादी नेता भी पूरे दावे के साथ अपनी जाति और धर्म वाले के वोट हर हाल में प्राप्त कर लेते हैं. जाति और धर्म का वोट की राजनीति से अटूट बंधन है. अनेक उदाहरण मिल जाएंगे बिहार और उत्तर प्रदेश की राजनीति में. तो आइये बिहार और उत्तर प्रदेश के परिप्रेक्ष्य में ही इस बात की खोज-बीन करते हैं.
  बिहार के लालू प्रसाद यादव भ्रष्टाचार के अनेक मामले झेलते हुए भी यादवों के अधिकांश वोट पाते रहे हैं. उनके जेल जाने के बाद अब यह विरासत उनके बेटे ने ले ली है. लालू यादव ने लालकृष्ण आडवाणी का रथ रोककर मुस्लिमों में एक भरोसा बनाया, फिर अनेक तरह के तथा अनेक अवसरों पर उन्मादी बातें बोलकर मुस्लिमों का ऐसा विश्वास कब्जाया कि अभी तक वह और उनकी पारिवारिक पार्टी आरजेडी ने मुस्लिमों के वोट का भी लाइसेंस ले रखा है. बैकवर्ड-फॉरवर्ड (पिछड़ी-अगड़ी) की राजनीति करते-करते मंडल कमीशन के जन आन्दोलन से होते हुए यादवों के एकछत्र नेता बन गये. माय (MY) याने मुस्लिम-यादव समीकरण के प्रणेता लालू यादव जी ही हुआ करते हैं. फिर भुराबाल काटने ( भूमिहार, राजपूत, बाभन, लाला को समाज से अलग-थलग करने ) की बातों वाला जुमला भी लालू जी की ही देन है. कमोवेश उत्तर प्रदेश की समाज वादी पार्टी मुलायम सिंह यादव की पारिवारिक पार्टी है ( अब अखिलेश यादव ने मुलायम की यह विरासत थाम ली है ) और यह भी माय समीकरण पर काम करती है और मुस्लिम-यादव वोटों का लाइसेंस अपने पास रखे हुए है. अयोध्या में हिन्दुओं को मारने वाला बयान हो या मुस्लिमों को कोई विशेष सुविधा वाला क़ानून हो या मंदिरों में घंटा बजाने पर रोक की बात या हिन्दू पर्वों पर हिन्दुओं के जुलुस पर रोक की बात हो, इन सब बातों ने या घटना क्रम ने मुलायम की पारिवारिक पार्टी को मुस्लिम वोटों का भी मालिक बना दिया. यादवों को नौकरियों में अनैतिक रूप से फ़ायदा पहुंचा कर, सरकारी सहायता यादव जाति विशेष तक सुनिश्चित कर और अनेक तरह की जाति आधारित बयानों एवं कामों के आधार पर मुलायम सिंह यादव यादव नेता बने एवं यादव वोटों का भी एकछत्र अधिकार प्राप्त किया. इन सबके बावजूद लालू सिर्फ बिहार में और मुलायम सिर्फ उत्तर प्रदेश के नेता के रूप में ही उभरे हैं. दूसरे राज्यों में कुछ शहरों में इन प्रदेशों के इन जाति और धर्म वालों के लोगों का कुछ तबका जो अपने व्यवसाय और रोजगार के लिए बसे हुए हैं वो इन्हें कुछ समर्थन देते हैं. लेकिन ये दोनों राष्ट्रीय स्तर के नेता के रूप में स्थान नहीं हासिल कर सके हैं.
उत्तर प्रदेश के अनुसूचित जाति के मतदाता मायावती की पार्टी बहुजन समाज पार्टी को वोट करते हैं. कांशीराम हरिजनों के नेता के रूप में प्रतिष्ठापित हो गये थे. मायावती कांशी राम की उत्तराधिकारिणी के रूप में अपने को प्रतिष्ठापित करने में सफल रही. ऊँची जातियों के बारे में विष वमन करके, धार्मिक ग्रंथों की जाति सम्बंधित सन्दर्भों का अतार्किक और गलत अर्थ प्रतिपादित कर, हरिजनों की भावनाओं को भड़का कर बाबा साहेब अम्बेडकर को अपना आदर्श बनाकर वह हरिजनों की नेता बन गयी हैं. जमीनी स्तर तक निरक्षर लोगों तक भी मायावती ने अपनी पहुँच बना ली है. यह एक जनरल परसेप्शन है. आंशिक तौर पर दूसरे राज्यों में भी उनका प्रभाव फैला है और अनुसूचित जाति के कुछ प्रतिशत वोट बसपा को दूसरे राज्यों में भी मिलते हैं और मिलेंगे. पिछले लोक सभा चुनाव में न के बराबर सीटें लेकर भी मायावती लालू और मुलायम से ज्यादे राष्ट्रीय फैलाव वाली नेत्री है.
चौधरी चरण सिंह किसानों और जाटों के नेता थे. यह भी जनरल परसेप्शन की बात है. अतः उनकी विरासत को उनके बेटे अजीत सिंह ने हथियाया और कभी किसानी न करने के बाद भी किसानों के और जाट होने की वजह से जाटों के नेता बने. लेकिन अब परसेप्शन यह है कि वह सिर्फ जाटों के नेता रह गये हैं. शायद सभी जाटों पर अपना प्रभुत्व न रखते हों. पश्चिम उत्तर प्रदेश में कई जिले अच्छी खासी संख्या जाटों वाली है और कई जाट नेता उन वोटों पर अपने हिसाब से कब्जा करते हैं.
मुलायम, लालू, मायावती ऐसे नेता हैं जो दूसरी जाति और धर्म के नेता को भी अपना वोट बैंक ट्रान्सफर करने में समर्थ हैं. यही वह बात है जो इनको अन्य नेताओं से विशेष तौर पर अलग करता है.
उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह लोधों के, अनुप्रिया पटेल कुर्मियों की, राजा भैया क्षत्रियों के, आजम खान मुस्लिमों के नेता के रूप में जाने जाते हैं. बिहार में शहाबुद्दीन मुस्लिमों के, नीतीश कुमार कुर्मियों के, उपेन्द्र कुशवाहा कुशवाहा जाति के, राम विलास पासवान अनुसूचित जातियों के, जीतन राम मांझी भी हरिजनों / अनुसूचित जाति  में खासकर मुसहर जाति के लोगों के नेता के रूप में प्रतिस्थापित हुए हैं. भूमिहारों के, ब्राह्मणों के, कायस्थों के, बनियों के भी नेता होते हैं. हर जाति के नेता होते हैं. यह कोई विशिष्ट बात नहीं क्योंकि हर आदमी किसी न किसी जाति के तो होते ही हैं. लेकिन यह तय है कि यदि कोई आदमी नेता है तो अपनी जाति के वोटों का कुछ न कुछ स्वामित्व तो रखता ही है. किसी भी जाति में जन्म लेना उस नेता की प्राथमिक , नैसर्गिक एवं ईश्वर प्रदत्त योग्यता है जिसे वह चुनाव के वक्त भंजाते हैं और भरपूर भंजाते हैं किन्तु अन्य अवसरों पर जन्म के आधार पर जाति वर्गीकरण और सामाजिक व्यवस्था का घोर विरोध करते और उस पर राजनीति करते पाए जाते हैं.
किसी जाति विशेष के नेता होने या किसी धर्म विशेष के नेता हो जाने से ही उन नेताओं की बहुत सारी अयोग्यता अथवा दुर्गुण भी उनके सामने गौण हो जाती हैं. आप देख सकते हैं लालू प्रसाद के ऊपर भ्रष्टाचार के दर्जनों मामले हैं, कुछ चल रहे हैं, कुछ में अपराधी साबित हो चुके हैं, बिना किसी धंधे अथवा व्यवसाय के करोड़ों की संपत्ति बन गयी हैं उनके पास, फिर भी बिहार में यादवों और मुस्लिमों के निर्विवाद नेता बने हुए हैं. मुलायम सिंह यादव का कुनबा भी कुछ इसी तरह सैकड़ों करोड़ों के संपत्ति का मालिक बना हुआ है और उत्तर प्रदेश के यादवों और मुस्लिमों के नेता हैं. कुख्यात क्रिमिनल होने के बावजूद शहाबुद्दीन जेल में होते हुए भी मुस्लिम वोटों में अच्छी खासी पैठ रखते हैं. इन नेताओं ने यदि विकास के काम अपने क्षेत्र में या अन्य किसी जगह न भी किये हों तो भी उनके वोटों में कोई ख़ास कमी नहीं दीखती. करना ये होता है कि चुनाव के समय ये अपनी जाति या धर्म पर किसी भावी खतरों की बात दुहराते हैं, दुष्प्रचार करते हैं, जातिगत और धार्मिक भावनाओं को कुरेदते हैं. ये सब ऐसे मुद्दे हैं जिससे  पढ़े-लिखे और समझदार लोग भी, हमने देखा है, उनकी जद में होते हैं.
नीतीश कुमार कुर्मियों के एक विशेष प्रकार के नेता हैं. इन्होंने अपनी विशिष्ट छवि बनायी है. इन्होंने बिहार में विकास के बहुत काम किये हैं, इनकी छवि इमानदार नेता की है, इनके ऊपर भ्रष्टाचार के कोई गंभीर आरोप नहीं हैं, इन्होने पारिवारिक राजनीति को बढ़ावा नहीं दिया है, इनकी छवि मुस्लिम समर्थक की भी है. इस तरह इन्होने अपनी छवि कुर्मी जाति और हिन्दू धर्म की सीमा से आगे जाकर भी बना ली है और निष्पक्ष और समझदार मतदाताओं में भी इनकी पैठ बन गयी है.  नीतीश कुमार को जातिगत और धार्मिक उन्मादी बातें उठाने की जरुरत नहीं पड़ती. लेकिन फिर भी जातिगत बंधन का सामीप्य उनको कुर्मियों का निर्विवाद नेता बनाता है और नैसर्गिक रूप से कुर्मियों के अधिकाँश वोट बिहार में उनको ही जाना होता है. जदयू (जनता दल यूनाइटेड) के निर्विवाद नेता के रूप में वह प्रतिस्थापित हैं. शरद यादव जैसे राष्ट्रीय नेता नीतीश कुमार से सैद्धांतिक मतभेद होने के बाद टिक नहीं पाए और उन्हें पार्टी छोड़नी पडी. एनडीए के साथ होने पर भी, जिसकी छवि मुस्लिम विरोधी है, जदयू को मुस्लिम वोट मिलते हैं.
बिहार के एक और नेता पप्पू यादव की चर्चा करना लाजिमी होगा क्योंकि जिस तर्क के लिए बातचीत कर रहे हैं उसको यह मजबूत करेगा. पप्पू यादव आपराधिक छवि के रहे हैं और अच्छा खासा वोट पा जाते हैं जब भी मधेपुरा जो यादव बाहुल्य चुनाव क्षेत्र है और जो उनका गृह क्षेत्र भी है, से चुनाव लड़ते हैं. एक बार विजयी भी हो चुके हैं. सिर्फ यादव होना ही उनकी योग्यता है क्योंकि और उनकी कोई योग्यता नहीं, न समाज सेवा का कोई बैकग्राउंड और न कोई सिद्धांतवादी पार्टी से कोई जुड़ाव. यादव कुल में जन्म लेकर यादव वोटों के अधिकारी ही तो हैं.
राज्य स्तर की पार्टियां, क्षेत्रीय पार्टियां बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में इसी तरह के आधारों पर वोट पाती हैं. अलग तेलंगाना की मांग को एक आन्दोलन के रूप में प्रस्थिपापित करने वाले नेता चंद्रशेखर अलग किस्म के जनरल परसेप्शन के अंतर्गत आते हैं जो जाति और धर्म की संकीर्णता से दूर होते हैं. इसलिए वोटों का उनके हिस्से में जाना चलता रहेगा जब तक कि कोई और नेता जाति और धर्म के आधार पर जनता की भावनाओं को दूषित नहीं कर देते.
बनियों और व्यवसायिओं के ऐसे कोई राज्य व्यापी नेता  सामान्यतया नहीं हैं जो सिर्फ जाति के आधार पर ही अपने लिए वोट लेते हों. जो प्रतिस्थापित तथ्य हैं उस आधार पर बनिए, व्यवसायी, जैन इत्यादि परम्परागत ढंग से बीजेपी को ही वोट देते आये हैं. इस तरह कह सकते हैं कि ये समुदाय निष्पक्ष और समझदार की श्रेणी में हो सकते थे किन्तु परम्परागत ढंग से इनका बीजेपी से जुड़े रहना उन्हीं अनुसूचित जातियों, यादवों, कुर्मियों, राजपूतों, भूमिहारों, ब्राह्मणों , मुस्लिमों इत्यादि की तरह के जाति तथा धर्म के आधार पर वोट देने जैसी इनकी सोच को भी दर्शाता है और हमारी जनरल परसेप्शन वाले सिद्धांत के अनुसार ही उनका वोटिंग पैटर्न बनता है.
अपनी जाति में ही शादी-ब्याह की विवशता, एक जाति में एक तरह की सांस्कृतिक परम्परा, एक तरह की पूजा पद्धति, एक ही तरह की जाति आधारित व्यवसाय इत्यादि कुछ ऐसी बातें है जिससे लोग अपनी जाति से जुड़ाव तोड़ नहीं पाते. ईश्वर में आस्था, एक जैसी पूजा पद्धति , एक ही पूजा स्थल, एक जैसी सांस्कृतिक विरासत आदि ऐसे कारक हैं जो एक धर्म के लोगों को उस धर्म के लोगों से जोड़े रखता है. दूसरे धर्म वालों के ये सब एक दम अलग हैं और इसलिए वे अलग-अलग हो जाते हैं. एक जाति वालों का निवास स्थल एक जगह होना और उसी तरह एक धर्म वालों का एक जगह सैकड़ों वर्षों से रहते आना उनको अपनी जाति या अपने धर्म वालों से भी जोड़े रखता है. पूर्व में एक जाति वालों का दूसरी जाति वालों पर अत्याचार, उसी तरह एक धर्म वालों पर दूसरे धर्म वालों का प्रहार इत्यादि ऐसे कारक हैं जिससे लोग अपनी जाति के बीच या अपने धर्म वालों के बीच अपने को सुरक्षित मानने लगे हैं. ये सब ऐसी बातें हैं जिससे लोगों ने शायद जाति के आधार पर या धर्म के आधार पर वोट करना शुरू कर दिया यह समझ कर कि सत्ता के पास रहकर सत्ता की ताकत से अपने को अभेद्य महसूस कर सकें.
बड़े-बड़े नेताओं के जुड़ाव और भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में महत्त्वपूर्ण भूमिका की वजह से बिहार , उत्तर प्रदेश के ज्यादतर लोग जो ऊँची जातियों से होते थे तथा जो पढ़े-लिखे होते थे कांग्रेस को वोट देते थे. पहले बहुत सारी पिछड़ी जातियों वाले, अनुसूचित जाति एवं जन जाति के लोग वोट देने भी नहीं जाते थे या जोर-जबरदस्ती वोट देने से वंचित भी किये जाते थे. विकास के काम भी ऊँची जातियों के इलाकों तक या शहरों तक ही सीमित रहे. यही कारण है कि अगड़ी जातियों में जाति के आधार पर वोट बांटने की या वोट देने जैसी बात पहले कम थी और अभी भी कम ही है. लेकिन जैसे ही जागरूकता आयी, शिक्षा का प्रसार हुआ, उपेक्षित लोगों ने अपने अधिकारों को समझा और उसी समय जातियों से प्रेरित नेताओं का प्रादुर्भाव हुआ जबकि कुछ चतुर तथा पढ़े-लिखे लोगों ने चुनाव और वोट की असीम शक्ति को समझ अपनी जाति के लोगों के वोटों को भुनाना शुरू किया उनको वोट गिराने के अधिकार का प्रयोग करवाकर.  पिछड़ी और अनुसूचित जातियों तथा जन जातियों में आरक्षण और राजनीतिक सत्ता-शक्ति के पिछड़ी और अनुसूचित जातियों और जन जातियों में धीरे-धीरे हस्तांतरण से अगड़ी जातियां अपने को शक्तिहीन समझने लगी. अपने को सुशिक्षित और योग्य होने के बाद भी सत्ता से दूर रहना उन्हें गंवारा नहीं लगा. यह उनके लिए अवसाद की सी स्थिति थी. फिर अगड़ी जातियां भी लामबंद होकर वोट करने लगी. एक दशक पहले पहली बार मायावती ने ब्राह्मणों को लोलीपॉप का वादा किया और शायद ब्राह्मणों का एकमुश्त वोट उनको मिला और वह सरकार बनाने में सफल भी हुई. वैसे भी पहले अगड़ी जातियां भी इस जाति और धर्म आधारित वोटिंग से पूर्णतः मुक्त नहीं थी.उत्तर प्रदेश में कमलापति त्रिपाठी ब्राह्मणों के नेता थे और उनको ब्राह्मण वोट मुश्त में मिलते थे. ललित नारायण मिश्र तथा बाद में डा. जगन्नाथ मिश्र बिहार में मैथिल ब्राह्मणों में अच्छी पैठ के लिए जाने जाते थे.
धर्म के आधार पर भेद-भाव की बात तो देश के बंटवारे से भी जुडी हुई है क्योंकि धर्म के आधार पर देश को बांटा गया तो लोगों में यह भावना तो आजादी के समय से ही घर कर गयी कि मुसलमान यहाँ नहीं होना चाहिए था. फिर दंगे-फसाद से मुसलामानों में ऐसा भय व्याप्त हुआ कि वो अभी तक है और जब भी वो अपने लिए सुरक्षा का वादा किसी पार्टी वाले से पाता है उसे वोट दे देता है. इस तरह मुसलमानों के वोट कई-कई चुनाव में निर्णायक सिद्ध होने लगे और मुसलामानों के चहेते नेता जीतने लगे और उसकी चहेती पार्टियां भी अच्छी सीटें पाने लगीं. सत्ता से वो करीब होने लगे हालांकि वो अभी पिछड़े हुए हैं, जिनका कारण कुछ और है. मुसलमानों का लाम बंद होकर वोट करने के तौर-तरीकों ने हिन्दुओं को डराया और बीजेपी जैसी पार्टी ने इसको भुनाया और हिंदुत्व को भड़का कर हिन्दू वोटों का ध्रुवीकरण करवाने में सफलता प्राप्त की. बिहार और उत्तर प्रदेश में बीजेपी का यह प्रयोग काम आया हुआ है. सभी हिन्दू सिर्फ बीजेपी को ही वोट नहीं देते तथा लामबंद होकर एक साथ मुसलामानों के नेतृत्व के विरुद्ध सब के सब वोट नहीं देते हैं, किन्तु इस तरह वोट करने वाले हिन्दुओं के प्रतिशत में बड़ा उछाल आया हैं. ऐसे मतदाता जो जातिगत संकीर्णता से दूर रहना चाहते थे उनके लिए एक विकल्प हिंदुत्ववाद का बन गया था. इस तरह भारतीय जनता पार्टी पहली बार जोर शोर से  आडवाणी जी की रथ यात्रा तथा विवादित मस्जिद के गिराने के पहले तथा बाद में अयोध्या विवाद को भुनाने में सफल हुई. पढ़े-लिखे लोगों में अटल बिहारी वाजपेयी जी के विशाल व्यक्तित्व के प्रति भी आदर भाव था जिसे उनके लिए वोटों में तबदील होते देखा गया. अगड़ी जाति वाले जो निष्पक्ष राय रखते थे उन्होंने बीजेपी को खूब अपनाया. एक जनरल परसेप्शन है कि अभी भी बहुत संख्या में सुशिक्षित लोग बीजेपी के साथ हैं जो पहले कांग्रेस के साथ हुआ करते थे. आतंकवाद, देश की सुरक्षा के मामले, हिंदुत्व, भ्रष्टाचार एवं काले धन और विकास के मुद्दे पर निष्पक्ष राय वाले अधिसंख्य लोग बीजेपी के साथ हैं...
जाति और धर्म के समीकरण का खेल ऐसा है कि पूरे भारत वर्ष में कोई भी पार्टी इस तथ्य से इनकार नहीं कर सकती और जब भी उम्मीदवारों का चयन होता है इन्हीं तथ्यों और जातिगत तथा धर्म आधारित जनसँख्या के आंकड़े को ध्यान में रखकर ही किया जाता है. जनरल परसेप्शन तो ऐसा है कि सिर्फ राष्ट्र हित के मुद्दे पर तथा वैयक्तिक योग्यता के आधार पर हिंदुस्तान का कोई भी नेता किसी भी क्षेत्र से चुनाव में जीतने का माद्दा नहीं रखता, यहाँ तक कि वर्त्तमान में देश का सर्व श्रेष्ठ नेता नरेंद्र मोदी भी नहीं.

अमर नाथ ठाकुर ,14 अप्रैल, 2019 , कोलकाता, thakuran.blogspot.in,  thakuran@rediffmail.com    


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