विजयी आत्म-समर्पण
उलाहने जब कोई सुना जाता है
शुरू हो जाती है खुद से लड़ाई
और पिटता रहता हूँ अन्तर्द्वन्द्व से
मैं बेचैन हो जाता हूँ
नींद गायब होने लग जाती है
तर्क-वितर्क चलने लगता है
पूरी रात गुजर जाती है
खुशियाँ गायब हो जाती है
चेहरा मलिन पड़ जाता है
हज़ामत भूल जाता हूँ
बाल सँवारना रह जाता है
कपड़े की इस्तरी रह जाती है
जूते की पॉलिश नहीं हो पाती है
मौजे से बदबू आती रहती है
खाना बेस्वादू हो जाता है
फिर पूरा दिन भी गुज़र जाता है
और कई दिन-रात गुजरते चले जाते हैं
कमज़ोर हो जाता हूँ
डॉक्टर कहता है मत सोचो इतना
क्यों लेते हो टेंसन इतना
खुद को परास्त महसूस करने लगता हूँ
और पहचान छुपाने चेहरा ढँक लेता हूँ
फिर तब होता है आत्म समर्पण
उस असीम के चरणों पर ।
और तब होता है अन्तर्चेतना का अभ्युदय
तर्क-वितर्क खत्म हो जाता है
खुद को समझने लगता हूँ
मैं ऊर्जान्वित हो जाता हूँ
तभी मैं मुस्कुरा उठता हूँ
प्रकृति हरी - भरी नज़र आने लगती है
सूर्य रश्मियाँ मार्ग दर्शक बन जाती हैं
चाँदनी सुकून पहुँचाने लगता है
दिनचर्या दुरुस्त हो जाती है
अहंकार का मिट जाता है नामो – निशान
सुनाई देता है वहीं विजय घोष की तान
निःस्वार्थ सेवा भाव की अभिलाषा से
विजयी मुद्रा में कर देता तन-मन तब अर्पण
जब एक हो जाते हैं मैं और मेरा अन्तर्मन ।
अमर नाथ ठाकुर , 7 जून , 2018 , मेरठ ।