धर्म - परिवर्तन , धार्मिक
झगड़े , दंगे –फसाद , घर - वापसी से सम्बंधित घटनाएं पढ़ - सुनकर मन अशांत और भय से
आक्रान्त हो जाता है । ऐसे में ठाकुर श्री रामकृष्ण परमहंस के अनमोल वचन जो
उन्होंने १८६६ से १८८६ के बीच बंगाल में
अपने मुखारविन्द से बहाए , आज उस समय से भी ज्यादा प्रासंगिक हैं ।
उन्हें माँ काली
का दर्शन हुआ था । एक बार दो बार नहीं अनंत बार । वह रोज माँ से बात करते थे । समाधि में लीन हो जाते थे थोड़ी – सी ब्रह्म चर्चा पर , भजन-कीर्तन के समय , चित्रों - मूर्तियों के दर्शन पर अथवा प्राकृतिक दृश्यों पर । जो कुछ उन्होंने
भोगा वही उन्होंने सुनाया । जो कुछ उन्होंने ईश्वर प्राप्ति की अभ्यास के दौरान
महसूस किया वही उन्होंने बाँटा । जो कुछ वह माँ से बात करते थे भक्त वही सुनते थे । जहां तक वेदों , शास्त्रों , कुरआन अथवा बाइबिल की बात है , इनमे से किसी का भी
उन्होंने अध्ययन नहीं किया था । हाँ
, उन्होंने हिन्दू धर्म - ग्रंथों पर
चर्चाओं - प्रवचनों को बचपन से सुनने का मौका पाया था । वे स्वयं कहते थे , “ मैं
ने पढ़ा नहीं है , केवल ज्ञानियों के मुख से सुना है । उनके ज्ञान की ही माला
गूँथकर मैं ने अपने गले में डाल ली है ,
और उसे अर्घ्य के रूप में माँ के चरणों में समर्पित कर दिया है । ” उनकी वैसे भी कोई औपचारिक शिक्षा - दीक्षा तो हुई नहीं थी अतः इस बात की कोई
संभावना ही नहीं थी कि वे इनका अध्ययन कर पाते । किन्तु सभी बड़े-बड़े समकालीन पंडितों
ने उनके चरण-कमल में अपना शीश नवाया । उनके मुख से ज्ञान की बातों की अजस्र गंगा
प्रवाहित होती थी । उनकी अमृत - तुल्य बातें सुनने के लिए गंगा किनारे दक्षिणेश्वर
काली मंदिर परिसर में भक्तों का तांता लग जाता था । बिना किसी झिझक के भक्तों के
सभी प्रश्नों का बखूबी उत्तर देते थे । उस समय की जनता ने उनको ईश्वर का अवतार
माना था । उस समय के ज्यादातर विद्वानों
एवं अंग्रेज़ी पढ़े बुद्धिजीवियों ने उनको ईश्वर का अवतार माना । स्वामी विवेकानंद
जैसे विद्वान् और योगी उनके ही अप्रतिम शिष्य थे । उनके ज्ञान , साधना एवं ईश्वर
प्राप्ति की लालसा की कली को श्री ठाकुर ने ही अपने सान्निध्य , वरदान एवं
आशीर्वचनों से पुष्पित किया था । कहते थे – शंकर ज्ञान के प्रणेता थे , चैतन्य
भक्ति - मार्ग के प्रणेता थे किन्तु ठाकुर श्री रामकृष्ण परमहंस में ज्ञान और
भक्ति दोनों समाहित थे । केशव चन्द्र उनके भक्त थे । केशव सेन अपनी पूरी मंडली के
साथ आकर उनके चरण कमल की धूलि से अपने को कृतार्थ करते रहते थे । ईश्वर चन्द्र
विद्यासागर , दयानंद सरस्वती , बंकिम चन्द्र चटर्जी , देवेन्द्र नाथ ठाकुर उनके समकालीन थे और सभी उनसे अत्यंत ही प्रभावित
हुए थे । उस समय के ब्रह्म समाज के लगभग सभी अनुष्ठानों में ठाकुर परमहंस आमंत्रित
रहते थे और साकार निराकार ब्रह्म की बखूबी
व्याख्या करते थे । गृहस्थी
संभालते हुए ईश्वर प्राप्ति के उपायों पर जमकर बोलते थे ।
ठाकुर कहते थे ईश्वर
प्राप्ति ही मानव जीवन का उद्देश्य है । हर किसी को अनवरत इसी के लिए प्रयत्नशील
होना चाहिये । धर्म , ज्ञान , ईश्वर को
उन्होंने इस तरह छोटे-छोटे रोजमर्रा के उदाहरणों से व्याख्यायित किया कि आप दंग हुए बिना नहीं रह
सकते । ब्रह्म , ज्ञान , कर्म, योग इत्यादि को इतने आसान ढंग से उन्होंने समझाया
कि जनता भक्त अविभूत हुए बिना नहीं रहती थी । वैसे उनको भगवान के अलावा और कुछ
मालूम भी नहीं था । जरूरत भी क्या है । ठाकुर को ईश्वरीय कार्यो - सामाजिक भलाई के
कार्यों में लिप्त रहने वालों , वेदों –
शास्त्रों के पंडितों आदि से मिलकर भगवान पर चर्चा करने वालों से मिलने की उत्कट लालसा रहती थी । उनकी सदाशयता , सरलता ,
सज्जनता , दयालुता , आसान पहुँच बेवस ही
लोगों को आकर्षित करती थीं और जो उनसे एक बार मिले पुनः उनसे बिना मिले नहीं रह
सकते थे । वह अपना ज्ञान , अपना ईश्वर का अनुभव जनता में लुटा देना चाहते थे । उनका बाल सुलभ मुस्कान से पुष्पित मुख भक्त लोगों को बिलकुल पास खींच लेता था । लोग
बेधड़क उनके पास अमृत - मधु - वचन पान के लिए मधुमक्खियों की भाँति निर्भीक उनके
शयन कक्ष तक में जमा हो जाते थे । कोई उनका पैर दबाते हुए , कोई उनको पंखा झलते
हुए उनके सान्निध्य का असीम आनंद बटोर कर उनके पास से लाते थे । धन्य थी बंगाल
बिहार उड़ीसा तथा समस्त उत्तर भारत की उस समय की जनता जिन्होंने जीवंत भगवान को इतने
पास से देखने – सुनने का का सौभाग्य अर्जित किया !
विषय को आगे बढाते
हुए कुछ दृष्टान्तों द्वारा ठाकुर श्री की प्रासंगिकता साबित करना चाहता हूँ । इन
उदाहरणों द्वारा मैं ठाकुर को सीमित नहीं कर रहा । यदि हम ऐसा करें तो यह मेरी
निरी धृष्टता होगी । मैं अपने को अनंत के सामने एक बिंदु से भी छोटा समझ आगे बढ़
रहा हूँ तभी मैं ठाकुर श्री रामकृष्ण परमहंस की अनन्त ज्ञान एवं ईश्वर की समझ
की असीम गहराई का महत्त्व समझा पाने में
समर्थ हो पाऊँगा ।
ब्रह्म या ईश्वर के
बारे में श्री मान म द्वारा रचित कथामृत में ठाकुर श्री के वचनों को यथारूप प्रकट कर बढ़ता
हूँ :
“ सब पथों द्वारा
उन्हें पाया जाता है । सब धर्म ही सत्य हैं । मतलब है छत पर चढ़ना । तुम पक्की
सीढ़ियों से भी चढ़ सकते हो , लकड़ी की सीढ़ियों से भी चढ़ सकते हो , बांस की सीढ़ियों
से भी चढ़ सकते हो ; और रस्सी से भी चढ़ सकते हो । और फिर गांठदार बांस ( बिना छिले
बांस ) के द्वारा भी चढ़ सकते हो । ”
“ यदि कहो , उनके
धर्म में बहुत सी भूलें है , कुसंस्कार हैं , मैं कहता हूँ भूल चाहे रहे ही , सब
धर्मों में ही भूल है । सब ही सोचते हैं मेरी घड़ी ही ठीक है । किन्तु किसी की भी
घड़ी बिलकुल ठीक नहीं चलती । सब घड़ियों को
ही बीच-बीच में सूर्य के संग मिलाना पड़ता
है । व्याकुलता रहने से ही हुआ ; उनके ऊपर प्यार , आकर्षण रहने से ही हुआ । वे तो
अन्तर्यामी हैं ; अंतर का आकर्षण , व्याकुलता देख लेते हैं । मन में सोचो एक पिता
के कई लड़के हैं , बड़े लड़कों में से कोई बाबा ( पिता ) , कोई पापा आदि स्पष्ट कह कर
उनको पुकारता है । और फिर अति शिशु ( छोटा लड़का ) ‘बा’ या ‘पा’ ही बोल सकते हैं
क्या पिता उनके ऊपर क्रोध करेंगे ? पिता जानता है कि वे मुझको ही पुकार रहे हैं ,
किन्तु ठीक उच्चारण नहीं कर सकते । बाप के लिए सब लड़के ही समान हैं । ”
“ और फिर भक्तगण
उनको नाना नामों से पुकारते हैं , एक व्यक्ति को ही पुकार रहे हैं । एक तालाब के
चार घाट हैं । हिन्दू लोग एक घाट से जल पीते हैं और कहते हैं जल ; मुसलमान और एक
घाट से पीते हैं और कहते हैं पानी , अंग्रेज ( ईसाई ) और एक घाट से पीते हैं और
कहते हैं वाटर , और फिर एक अन्य व्यक्ति एक घाट पर कहता है एक्वा ( aqua ) । ”
“ एक ईश्वर – उनके
नाना नाम । ”
ठाकुर ने आगे एक जगह
कहा –
“ सकल धर्म ही सत्य । जैसे कालीघाट पर नाना पथों से जाया जाता है । धर्म ही कुछ ईश्वर नहीं है । भिन्न-भिन्न धर्म-आश्रय करके ईश्वर के निकट जाया जाता है ।
सब नदियाँ नाना
दिशाओं से आती हैं किन्तु सब नदियाँ समुद्र में जाकर गिरती हैं । वहाँ पर सब एक हो
जाती हैं । ”
“ इसलिए पहले एक ही
धर्म का आश्रय लेना चाहिए । ईश्वर प्राप्त हो जाने पर वही व्यक्ति सब धर्म-पथों
द्वारा ही आना-जाना कर सकता है । जब वह हिन्दुओं के भीतर रहता है , तब सब समझते
हैं हिन्दू है , जब मुसलमानों के संग में मिलता है , तब सब सोचते हैं मुसलमान है
और फिर जब ईसाइयों के संग मिलता है , तब सब सोचते हैं ये शायद ईसाई हैं ।
सब धर्मों के लोग
एकजन को ही पुकारते हैं । कोई कहता है ईश्वर , कोई राम , कोई हरि, कोई अल्लाह ,
कोई ब्रह्म । नाम हैं अलग-अलग , किन्तु वस्तु एक ही । ”
अपने एक भक्त से
ठाकुर श्री रामकृष्ण कहते हैं –
“ आन्तरिक हो जाने पर सब धर्मों के द्वारा ही ईश्वर को
प्राप्त किया जाता है । वैष्णव ईश्वर को पाएँगे , शाक्त भी पाएँगे , वेदान्तवादी
भी पाएँगे , ब्रह्मज्ञानी भी पाएँगे , और फिर मुसलमान , क्रिश्चियन ये लोग भी
पाएँगे । आंतरिक हो जाने पर सब ही पाएँगे । कोई-कोई झगड़ा कर बैठते हैं । वे कहते
हैं ‘ हमारे श्रीकृष्ण को बिना भजे कुछ भी नहीं होगा ’ या ‘ हमारी माँ काली को बिना भजे कुछ भी नहीं होगा ’ ; ‘ हमारे ईसाई धर्म को न लेने से कुछ भी नहीं होगा । ’
“ ऐसी बुद्धि का नाम
है ‘ मतुयार बुद्धि ’ अर्थात मेरा धर्म ठीक है , और सब का मिथ्या – यह बुद्धि
खराब है । ईश्वर के पास नाना पथों द्वारा पहुँचा जाता है ।
और फिर कोई कहता है
ईश्वर साकार है , वे निराकार नहीं । ऐसा कहकर झगड़ा करते हैं । जो वैष्णव है , वह वेदान्तवादी के साथ झगड़ा करता है । ”
“ यदि ईश्वर सामने
दर्शन दें तभी ठीक-ठीक कहा जाता है । जिसने दर्शन किया है , वह ठीक जानता है ,
ईश्वर साकार , और फिर निराकार हैं । वे और भी क्या-क्या हैं , बताया नहीं जाता । ”
“ कई अन्धे हाथी के
पास पहुँच गए थे । किसी ने बता दिया इस जानवर का नाम हाथी है । तब अन्धों ने पूछा
, हाथी कैसा है ? वे हाथी का शरीर स्पर्श करने लगे । एक ने कहा , ‘ हाथी एक स्तम्भ
जैसा है । ’ उस अन्धे ने हाथी का केवल पाँव स्पर्श किया था । और एक जन बोला ‘हाथी
तो एक सूप ( छाज ) के सामान है । ’ उसने केवल एक कान पर हाथ लगाकर देखा था । इसी
प्रकार जिन्होंने सूंड या पेट पर हाथ लगाकर देखा था वे नाना प्रकार से कहने लगे । वैसे
ही ईश्वर के सम्बन्ध में जिसने जितना देखा है वह सोचता है , ईश्वर उतना ही , वैसा
ही है ; और कुछ नहीं । ”
“ एक व्यक्ति जंगल
से बाह्य से आकर बोला , वृक्ष के नीचे एक सुन्दर लाल जानवर देखकर आया हूँ । और एक
बोला , मैं तुम्हारे से पहले उसी पेड़ के नीचे गया था – वह तो हरा है , मैं ने अपनी
आँखों से देखा है । और एक व्यक्ति बोला , उसे मैं
खूब जानता हूँ , तुम लोगों से पहले
मैं गया था – वह नीला है । और दो जन थे । वे बोले , पीला और खाकी – नाना रंग का । अन्त में खूब झगड़ा लग गया । सभी समझते हैं , मैं ने जो देखा है , वही ठीक है । उनका झगड़ा देखकर एक व्यक्ति ने पूछा , बात क्या है भाई ? जब समस्त विवरण सुन लिया
, तब बोला , मैं उसी वृक्ष के नीचे रहता हूँ ; और वह जानवर क्या है , मैं पहचानता
हूँ । तुम प्रत्येक जन जो-जो कह रहे हो , वह समस्त सत्य है ; वह गिरगिट है – कभी
हरा , कभी नीला इसी प्रकार नाना रंगों का होता है ! और कभी देखता हूँ , बिल्कुल भी
कोई रंग नहीं होता । निर्गुण । ईश्वर साकार भी है निराकार भी । ”
“ तो फिर ईश्वर को
केवल साकार कहने से क्या होगा ? वे श्रीकृष्ण की न्यायीं मनुष्य-देह धारण करके आते
हैं , यह भी सत्य है ; नाना रूप लेकर भक्त को दर्शन देते हैं , यह भी सत्य है । और
फिर वे निराकार , अखण्ड सच्चिदानन्द हैं , यह भी सत्य है । वेद में उनको साकार , निराकार दोनों ही कहा है ;
सगुण कहा है , निर्गुण भी कहा है । ”
अपने शिष्यों से
ठाकुर श्री रामकृष्ण कहते थे :
“ मैं ने हिन्दू ,
मुसलमान , ईसाई सभी धर्मों का अनुशीलन किया है , हिन्दू धर्म के विभिन्न
सम्प्रदायों के भिन्न – भिन्न पथों का भी अनुसरण किया है ... मैं ने देखा है कि
उसी एक भगवान की तरफ ही सबके कदम बढ़ रहे हैं , यद्यपि उनके पथ भिन्न – भिन्न हैं । तुम्हें भी एक बार प्रत्येक विश्वास की परीक्षा तथा भिन्न – भिन्न पथों पर पर्यटन
करना चाहिये । मैं जिधर भी दृष्टि डालता हूँ
उधर ही हिन्दू , मुसलमान , ब्राह्म , वैष्णव व अन्य सभी संप्रदायवादियों को
धर्म के नाम पर परस्पर लड़ते हुए देखता हूँ । परन्तु वे कभी इस बात पर विचार नहीं करते कि जिसे हम कृष्ण के नाम से पुकारते हैं ,
वही शिव है , वही आद्याशक्ति है , वही ईसा है , वही अल्लाह है , सब उसी के नाम हैं
–एक ही राम के सहस्रों नाम हैं । ”
उपर्युक्त निष्कर्ष
पर पहूँचने के पहले उनके लिए यह कहना है कि १८६६ में उनहोंने इस्लाम धर्म की पूरी
छानबीन की । उन्होंने गोविन्द राय नामक एक गरीब मुसलमान को पूजा व प्रार्थना करते
हुए देखा । उनके भूलुंठित शरीर के बाह्य पृष्ठ को ही देखकर जान लिया कि इस मनुष्य
ने इस्लाम के द्वारा ईश्वर को पा लिया है । उन्होंने गोविन्द राय से दीक्षा देने
के लिए कहा , और कुछ दिनों के लिये काली का भक्त अपने सब देवताओं को एकदम भूल गया । उनहोंने उनकी पूजा करनी छोड़ दी , उनका विचार तक भी त्याग दिया । वे मंदिर की
सीमा से बाहर रहने लगे , अल्लाह का नाम जपने लगे , और मुसलमानों की पोशाक धारण कर
ली । पूर्ण आत्मसमर्पण के उपरांत उन्हें गंभीर मुद्रा धारण किये एक शुभ्र श्मश्रुधारी
ज्योतिर्मय पुरुष के दर्शन हुए ( पैगम्बर के दर्शन हुए ) । ठाकुर श्री रामकृष्ण ने
मुसलामानों के परमात्मा “सगुण ब्रह्म” का साक्षात्कार किया । वहाँ से वे निर्गुण
ब्रह्म में पहुँच गये । इस प्रकार इस्लाम की नदी ने उन्हें पुनः समुद्र तक पहुँचा
दिया ।
इसी प्रकार १८७४ में
ठाकुर को ईसाई धर्म की भी उपलब्धि हो गयी । जिस समय ऐसा हुआ उनकी हिन्दू की आत्मा
परिवर्तित हो चुकी थी । उस समय ईसा के अतिरिक्त अन्य किसी के लिये वहाँ कोई स्थान
नहीं था । कई दिनों तक वह ईसाई चिंतन और ईसा के प्रेम में ही निमग्न रहे । उनके
दिल से मंदिर में जाने का विचार निकल गया । एक दिन अपराह्न वेला में ठाकुर श्री रामकृष्ण को एक आयतलोचन , शांत मूर्त्ति , गौरांग पुरुष ( ईसा मसीह ) का दर्शन हुआ ।
आजकल कोई भी धर्म की
शिक्षा देने लगता है । ठाकुर इनके घोर विरोधी थे । वह कहते थे –
“ पहले डुबकी लगाओ । डुबकी लगाकर रत्न उठाओ , फिर अन्य कार्य । पहले माधव – प्रतिष्ठा , उसके बाद इच्छा हो तो वक्तृता ( lecture ) देओ ।
“ पहले डुबकी लगाओ । डुबकी लगाकर रत्न उठाओ , फिर अन्य कार्य । पहले माधव – प्रतिष्ठा , उसके बाद इच्छा हो तो वक्तृता ( lecture ) देओ ।
कोई डुबकी लगाना
नहीं चाहता । साधन नहीं , भजन नहीं , विवेक - वैराग्य नहीं , दो-चार बातें सीखते
ही झट लेक्चर देना ।
लोक शिक्षा देना
कठिन है । भगवान के दर्शन पर यदि कोई उनका आदेश पा लेता है , तो फिर लोक शिक्षा दे
सकता है । ”
एक जगह वह पंडित
शशधर ( उस समय के ख्याति प्राप्त पण्डित ) से कहते हैं –
“ तुम लोगों के मंगल
के लिए वक्तृता करते हो , यह तो बढ़िया है । किन्तु बाबा , भगवान के आदेश के अभाव
में लोकशिक्षा नहीं होती । वे लोग दो ही दिन तुम्हारा लेक्चर सुनेंगे , फिर भूल
जाएँगे । ”
रामकृष्ण उदाहरण देते हैं – “ हालदार पुकुर ( पोखर ) के किनारे लोग बाह्य किया करते थे ; लोग उसे रोकने के लिये गाली - गलौच करते किन्तु कुछ भी फल नहीं होता था । अंत में सरकार ने जब एक नोटिस लगा दिया , तब वह बंद हुआ । जभी ईश्वर का आदेश हुए बिना लोकशिक्षा नहीं होती । ”
रामकृष्ण उदाहरण देते हैं – “ हालदार पुकुर ( पोखर ) के किनारे लोग बाह्य किया करते थे ; लोग उसे रोकने के लिये गाली - गलौच करते किन्तु कुछ भी फल नहीं होता था । अंत में सरकार ने जब एक नोटिस लगा दिया , तब वह बंद हुआ । जभी ईश्वर का आदेश हुए बिना लोकशिक्षा नहीं होती । ”
और इस तरह यह बात
उनके लिये मायने रखती थी कि वह लोगों को धार्मिक लेक्चर दे सकें चूँकि उन्होंने
ईश्वर के दर्शन और उनकी आज्ञा पा ली थी और फिर यह भी कह सकें कि सभी धर्म भगवान को
पाने के लिये अलग – अलग रास्ते हैं क्योंकि सभी धर्मों का अनुशीलन कर उन्होंने एक
ही ब्रह्म के दर्शन किये थे । वह कहते थे कि प्रत्येक मनुष्य को अपने मार्ग पर
चलने दो । यदि उसके अन्दर हार्दिक भाव से ईश्वर को जानने की उत्कट लालसा है , तो
उसे शान्ति पूर्वक चलने दो । वह अवश्य ही उसे पा लेगा ।
उपर्युक्त कथन क्या
आज के पोंगा – पण्डितों , धर्म – गुरुओं , मुल्लाओं , पादरियों के लिए एक सीख नहीं
है जो इच्छानुसार अपने – अपने धर्म की व्याख्या करते है , दूसरे के धर्म की बुराई करते हैं , शिष्य बनाते हैं , अपना
स्वार्थ सिद्ध करते हैं , अकूत संपत्ति बनाते हैं और धर्म परिवर्त्तन का धंधा करते
हैं , पूरे समाज में बखेड़ा खड़ा करते है । ईश्वर के सही मार्ग से भटका कर व्यक्ति
और समाज की शान्ति छीनने का पाप करते हैं ।
आज के परिप्रेक्ष्य
में धर्म परिवर्तन का क्या औचित्य रह जाता है । क्या फर्क पड़ता है यदि कोई मुस्लिम
है या कोई ईसाई है या कोई हिन्दू है । क्यों इतने सारे झगड़े हों । क्यों इतने सारे
धार्मिक प्रवचन होते हैं उनके द्वारा , जो कि योग्य ही नहीं हैं क्योंकि उन्होंने
भगवान का साक्षात्कार ही नहीं किया है । किसी दूसरे धर्म को कोई कैसे नीचा दिखा
सकता है जबकि सारे धर्मों में बुराइयाँ हैं और फिर सारे धर्म तो सिर्फ रास्ते हैं
उस सगुण या निर्गुण रूप वाले ईश्वर के पास पहुँचाने के लिए । मूल बात तो है प्रेम
की , निष्ठा की , दया की , करूणा की , हार्दिक भाव से भगवान् को जानने की उत्कट लालसा
की ।
ठाकुर श्री रामकृष्ण
परमहंस कितने ज्यादा प्रासंगिक हैं आज !!!!
श्री म द्वारा रचित “कथामृत” एवं Romain Rolland रचित “The Gospel of Sri
Ramkrishna” से साभार ।
अमर नाथ ठाकुर , ५
अप्रैल , २०१५ , कोलकाता I