Friday, 15 March 2013

दुर्विचार से मुक्ति : एक भ्रम


-१-

घर में घुटन होती है –
मैं मुख्य दरवाजा खोल देता हूँ –
और वह ( ईष्या-द्वेष-घमंड ) बुदबुदाना शुरू कर देती है-
कहती है हवा आती है –
धूल और धुआँ लाती है-
बाहर से बालों का गुच्छा आ जाता है-
पड़ोसिन की दाल-सब्जी का छौंक छींक पैदा करता है –
पड़ोसियों के आने-जाने की चहल-पहल बाधा पहुंचाता है-
पड़ोसी के घर की भजन-संगीत-ध्वनि कोलाहल मालूम पड़ती है-
वह झपट्टा मारकर आती है-
धड़ाम से दरवाजा बंद कर देती है –
अमन-चैन के लिए मैं चुप रहता हूँ-
जैसे ही वह दूसरे कमरे में जाती है
नज़रों से ओझल होती है-
मैं फिर से दरवाजा खोल देता हूँ-
उसे घ्राण-शक्ति से पता चल जाता है-
झल्लाकर बकती हुई आती है-
और दरवाजा पुनः बंद कर जाती है-
मैं फिर से बंद कमरे में कैद रह कर रह लेता हूँ-
मैं उसे समझा नहीं पाता हूँ-
मेरी तर्क शक्ति फेल हो जाती है-
दरवाजे के खोलने और फिर बंद कर दिये जाने का यह क्रम वर्षों से चल रहा है-

-२-
आज वह नहीं है –
मेरा हाथ सिटकनी को नीचे उतारने के लिए बढ़ता है –
और फिर वापिस आ जाता है-
दरवाजा बंद ही रह जाता है-
क्योंकि यह अब मेरी भी आदत बन चुकी है मेरी लत बन चुकी है –
इसका मुझे पता नहीं चलता है-
मेरी संवेदना शेष हो चुकी है-
अब मुझे भी अपने दुर्विचारों में रहना-खेलना अच्छा लगता है-

-३-

आज दुर्विचारों का रौद्र – रूप धारण हो चुका है-
वह चीत्कार करती है-
हाहाकार मचाती है-
गालियों और दुर्वचनों का पारावार बनाती है-
असीमित शापित वचनों से कुल-खानदान को कलंकित करती है-
गला फाड़-फाड़ कर पड़ोसियों से भी दूर सड़क
जाते लोगों के भी ध्यान को खींच लाती है-
पूरा घर दलमलित हो गया है –
कण-कण कम्पित हो चला है-
वह इस कोने-से उस कोने में भागती है-
घर का कोलाहल निर्बाध प्रवाहित होना चाहता है-
दूर-दूर तक अपना आक्रोश संचारित करती है-
चहुँ-दिशाओं में लोगों को बता देना चाहती है-
वह सख्त पद-प्रहार से दरवाजा तोड़ देती है-
शीतल पवन का झोंका आकर मेरा रोम-रोम पुलकित कर देता है-
मेरे अंदर के व्याज-सहित संचित पाप का मिश्रधन स्वतः फूट पड़ता है –
लगता है जैसे अब दुर्विचार-संग से पूर्ण मुक्ति मिल गयी-
मैं अब उन्मुक्त विचरण कर सकता हूँ-

अमर नाथ ठाकुर , १४ मार्च , कोलकता .

Wednesday, 13 March 2013

घर वाली नारी


-१-

अलगनी पर फैला
भींगा-भींगा तौलिया मैला
उस पर कमीज़ और उसके ऊपर पायजामा
कपड़ों और सिर्फ कपड़ों का हंगामा .

बिछौने की सिलवटें
जैसे शब्दहीन आहटें

असंयमित तकिये तकिया के ऊपर
तिस पर असभ्य गंदा-सा चादर
फिर बगल में लंबायमान कंबल
जैसे कर रहा हो सबको बेदखल.

कोने-कोने में लटके मकड़ी के जाले
दरवाजे और खिडकी पर अधखुले परदे भोले-भाले.

फेरे कपड़ों का अंबार
बिखरे अखबार .

जंगले की जाली में पड़ी धूल की परतें
अधमोड़े फटे कालीन जैसे तोड़ती शर्तें .

रसोई का तो ढंग ही निराला
अंचार खुला है और बिखरा है मशाला
खरकटल जूठे बर्त्तनों के ढेर
सब्जियों के छिलके सेर-के-सेर
टिप-टिप-टिप-टिप करते नल
गिरे-पड़े-अधभरे पानी के बोतल
खुली तेल की शीशी
थाली कटोरा चम्मच चार
बासी भात बासी रोटी
तिस पर तैरती मक्खी तिलचट्टे बेशुमार .

बाथरूम का अधखुला दरवाजा
बेडरूम की अधखुली अलमारी
उटपटांग कुर्सियां असंतुलित स्टूल
की करती हुई घुड़सवारी.

उलटे चप्पल, करवट लिए जूते
और मौजे से रह-रह  आते बास
खूंटी से उलटे टंगे लहराते
फटे कैलेण्डर के व्यंगपूर्ण अट्टहास.

तीन दिनों से पड़ी
आधी चाय वाली प्याली
टेबुल पर छोड़ती पेंदी की
वृत्ताकार भूरी निशानी .
टूथ-ब्रश डाइनिंग  टेबुल पर
टूथ-पेस्ट विराजती बालकनी में
साबुन फ्रिज पर , हिंग गोली बाथरूम में
फर्श पर पड़ी चाभियां दांत बिचकाए भ्रम में.

भले ही न हो कोई कटाक्ष
और न हो कोई मजाक
न कोई ताली या गाली
घर बनेगा भूतन का डेरा
यदि न हो घर में घरवाली .



-२-


घर में व्यवस्था लाने वाली
अब यहाँ नहीं बसने वाली
वह घर की लक्ष्मी दुर्गा या काली.

जिस नारी से घर होता सुसज्जित
उस नारी से क्यों न हो देश व्यवस्थित
नारी नहीं अब सिर्फ घर का गहना
अब क्यों कोई जुल्म सहना
नारी सशक्तिकरण के उद्घोष से
नारी दिवस पर हनुमान सरीखी जोश से
गदा थामेगी अब घर वाली नारी .

नारी अब आँसू नहीं बहाएगी
नारी अब आँचल नहीं फैलाएगी
वात्सल्य पौरुष की निशानी बनेगी
घर-आँगन के बंधन तोड़ नारी
अब दुनिया चलाएगी .

दया माया करुणा ममता स्नेह
ये सब पुरुष तुम भी  संभालो
नफरत दुश्मनी क्रोध हिंसा तोड़-फोड़ नारी-सुलभ
गुण भी बनेंगे , पुरुष ! ये मन तुम बना लो.


अमर नाथ ठाकुर , नारी -दिवस पर ,  मार्च , २०१३ , कोलकाता .


मैं हर पल जन्म नया लेता हूँ

 मैं हर पल जन्म लेता हूँ हर पल कुछ नया पाता हूँ हर पल कुछ नया खोता हूँ हर क्षण मृत्यु को वरण होता हूँ  मृत्यु के पहले जन्म का तय होना  मृत्य...