-१-
घर में घुटन होती है –
मैं मुख्य दरवाजा खोल देता हूँ –
और वह ( ईष्या-द्वेष-घमंड ) बुदबुदाना शुरू कर देती है-
कहती है हवा आती है –
धूल और धुआँ लाती है-
बाहर से बालों का गुच्छा आ जाता है-
पड़ोसिन की दाल-सब्जी का छौंक छींक पैदा करता है –
पड़ोसियों के आने-जाने की चहल-पहल बाधा पहुंचाता है-
पड़ोसी के घर की भजन-संगीत-ध्वनि कोलाहल मालूम पड़ती है-
वह झपट्टा मारकर आती है-
धड़ाम से दरवाजा बंद कर देती है –
अमन-चैन के लिए मैं चुप रहता हूँ-
जैसे ही वह दूसरे कमरे में जाती है
नज़रों से ओझल होती है-
मैं फिर से दरवाजा खोल देता हूँ-
उसे घ्राण-शक्ति से पता चल जाता है-
झल्लाकर बकती हुई आती है-
और दरवाजा पुनः बंद कर जाती है-
मैं फिर से बंद कमरे में कैद रह कर रह लेता हूँ-
मैं उसे समझा नहीं पाता हूँ-
मेरी तर्क शक्ति फेल हो जाती है-
दरवाजे के खोलने और फिर बंद कर दिये जाने का यह क्रम वर्षों से चल रहा है-
-२-
आज वह नहीं है –
मेरा हाथ सिटकनी को नीचे उतारने के लिए बढ़ता है –
और फिर वापिस आ जाता है-
दरवाजा बंद ही रह जाता है-
क्योंकि यह अब मेरी भी आदत बन चुकी है मेरी लत बन चुकी है –
इसका मुझे पता नहीं चलता है-
मेरी संवेदना शेष हो चुकी है-
अब मुझे भी अपने दुर्विचारों में रहना-खेलना अच्छा लगता है-
-३-
आज दुर्विचारों का रौद्र – रूप धारण हो चुका है-
वह चीत्कार करती है-
हाहाकार मचाती है-
गालियों और दुर्वचनों का पारावार बनाती है-
असीमित शापित वचनों से कुल-खानदान को कलंकित करती है-
गला फाड़-फाड़ कर पड़ोसियों से भी दूर सड़क
जाते लोगों के भी ध्यान को खींच लाती है-
पूरा घर दलमलित हो गया है –
कण-कण कम्पित हो चला है-
वह इस कोने-से उस कोने में भागती है-
घर का कोलाहल निर्बाध प्रवाहित होना चाहता है-
दूर-दूर तक अपना आक्रोश संचारित करती है-
चहुँ-दिशाओं में लोगों को बता देना चाहती है-
वह सख्त पद-प्रहार से दरवाजा तोड़ देती है-
शीतल पवन का झोंका आकर मेरा रोम-रोम पुलकित कर देता है-
मेरे अंदर के व्याज-सहित संचित पाप का मिश्रधन स्वतः फूट पड़ता है –
लगता है जैसे अब दुर्विचार-संग से पूर्ण मुक्ति मिल गयी-
मैं अब उन्मुक्त विचरण कर सकता हूँ-
अमर नाथ ठाकुर , १४ मार्च , कोलकता .