Thursday, 24 March 2022

पछवरिया टोल : उलझे, बिखरते रिश्तों की यादें

 माँ मेरी भौजिया (भौजी) है. हम सभी सातों भाई - बहन माँ को भौजी या भौजिया ही कहकर बुलाते हैं. बचपन से ही ऐसा चला आ रहा है. हमारे काका लोग हमारी माँ को भौजी बोलते होंगे और यही सुन-सुनकर हमलोग भी भौजी बोलने लगे होंगे. और उसके बाद भौजी से हो गयी भौजिया. पूरे पछबरिया टोल में हमारी भौजी को हमारे पड़ोसी सहित सब कोई काकी नहीं भौजी ही कहते हैं. घुसौते नगबार मूल ( यह मैथिल ब्राह्मणों का एक विशेष प्रकार का मूल है जो मैथिल ब्राह्मणों के एक विशेष प्रकार को बताता है ,  करीब १३ वीं सदी के आस-पास दरभंगा नरेश ने यह वर्गीकरण शुरू किया था , उसी समय पंजी प्रथा भी शुरू हुई थी ) के सभी भतीजे-भतीजी को तो कहना ही है क्योंकि ये हमलोगों के ही मूल के हुए तो खानदानी नजदीकी हुई न. कुछ पोते - पोती के रिश्ते वाले बच्चे भी भौजी या भौजिया के ही सम्बोधन में आनन्द लेते हैं , दादी कह कर नहीं. हमारे यहाँ गाँव में चाची नहीं काकी कही जाती है. चाची कहने में शहरीपन लगता है . यदि उस समय रिश्ते में काकी को चाची कह दिया जाता , जिस समय की बात मैं बता रहा हूँ, तो कोई भी काकी जरुर झेंप जाती . लेकिन जिसे काकी पुकारना चाहिए वो भी काकी न कहकर  भौजिया से ही सम्बोधित करते या करती . इस तरह अधिकांश लोग पछबरिया टोले में मेरी भौजिया को भौजिया ही कहकर बुलाते हैं. यहाँ तक कि हमारा हरवाहा बीदन, बौकी या जिताय , जो जब - जब बहाल हुआ , भी गिरहथनी न कहकर भौजी या भौजिया से ही हाक या डाक देता है.  एक बार एक दिन भौजिया गुस्से में बोली, हाँ क्यों नहीं वह "राड़ (मुर्ख) की भौजी सबकी भौजी" वाली भौजी है इसलिये न ! कभी-कभी व्यंगपूर्ण अंदाज में मुस्कुरा कर भी ऐसा कहती रही है. मेरा छोटा भाई और छोटी बहनें जब किशोर अवस्था में आ गये तो भौजी का अर्थ समझ कुछ लज्जा वश भौजिया को माँ कह कर सम्बोधित करने लगे , लेकिन यह माँ कहना इन सबको अटपटा लगने लगा , बनावटी पन लगा , जैसे अपनापन का अभाव हो , मोह माया ममता से दूर हो.  और पता नहीं कैसे ....... अभी भी ८४-८५ के वयस तक कुछ परपोतों तक के लिए भी ममता की मूर्ति मेरी भौजिया भौजिया ही है.

 एक विचित्र बात और बताते हैं. मेरे पिताजी, पिताजी या बाबूजी नहीं 'बाऊ' थे , हम सभी भाई-बहन उन्हें बाऊ ही कहते थे . मेरे बाऊ के पिता जी ( मेरे दादा जी ) और उनकी माँ ( मेरी दादी ) उन्हें बाऊ कहकर हाक देते थे , इसलिए मेरे बाऊ के सभी भाई बहन उन्हें बाऊ ही कहकर बुलाते थे. और इसीलिये हम सातों भाई-बहन भी अपने पिता जी को बाऊ ही कहते रहे. बाऊ सभी छह भाई बहनों में सबसे बड़े थे और इससे उन्हें ज्यादे स्नेह मिला होगा और इसलिए उन्हें किसी ने नाम से नहीं बुलाया. वैसे उनका महेश और बाऊ ( इसे नाम नहीं कह सकते यह तो रिश्ता हुआ , फिर भी) के अलावा एक और नाम था गोपाल , और इसलिए उनके समवयस्की और उनसे उम्र में श्रेष्ठ उन्हें गोपाल या गोपालजी भी कहकर बुलाते थे. जैसी हमारी भौजिया वैसे ही मेरे बाऊ. पूरे पछबरिया टोल वाले और खासकर घुसौते नगबार मूल के सभी बुजुर्ग लोग भी हमारे बाऊ को बाऊ ही कहकर बुलाते थे, रिश्ते में चाहे ये भैया, काका या दादा भी क्यों न लगते हों. कहने की आवश्यकता नहीं कि मेरे सभी पितयौत (चचेरे) भाई-बहन भी उन्हें बाऊ ही कहते थे. पूरे टोले के हमारे समवयस्क और सभी छोटे बच्चे भी उन्हें बाऊ ही कहकर पुकारते थे.

जैसे चाची को चाची नहीं काकी , वैसे ही चाचा को भी चाचा हम नहीं कह सकते थे , काका कहते थे . चाचा कहकर के  पुकारना भी शहरिया बात होती , इसमें अपनापन नहीं होता न . तो अब हम अपने चार काका की बात करते हैं . ऐसे ही सिर्फ काका किसी को कहें तो यह तो अधूरी बात होती , इसमें खाली पन का संस्कार दीखता है , कुछ कम सम्मान की बात भी होती है और फिर काका काका में भेद कैसे कर पाते. अतः हमारे चार काका इस प्रकार थे - लाल कका , पढुआ कका , करिया कका और नुनु कका. हमें यह आजादी नहीं थी कि हम अपने लाल काका को उमेश काका या पढुआ काका को सुरेश काका कहते . यह हमलोगों की निहायत ही धृष्टता होती और उनका बहुत बड़ा अपमान होता. हाँ , हमारे पड़ोसी या टोले के अन्य लोग उन्हें ऐसा कहने की आजादी रखते थे . वो उन्हें उमेश काका, सुरेश काका आदि कह सकते थे. यहाँ एक और मनोरंजक बात की चर्चा हो ही जानी चाहिये . हमारे लाल काका को उनके पिता जी और माता जी प्यार से बुद्दी , बुदन या बुदना भी कह कर पुकारते थे , इसलिये पड़ोस के लोग उन्हें बुद्दी कका या बुदन कका भी कह कर पुकारते थे. इस तरह जो हमारे लाल कका थे वो पछवरिया टोल में बुद्दी कका या बुदन कका से भी जाने जाते थे. पढुआ कका को अधिकाँश लोग पढुआ कका ही से पुकारते थे. करिया कका और नुनु कका के भी साथ ऐसी ही बात है. और सारी चाचियाँ या काकी क्रमसे लाल काकी, कनियाँ काकी, नबकी काकी और छोटकी काकी से पुकारी जाती थीं. छह भाई बहनों में एकमात्र बहन चौथे नम्बर पर थीं. असली नाम जो भी रहा हो उसे पूरे टोल के लोग बच्ची दाय से , बाऊ ,लालकका और पढुआ कका उन्हें बचबी और दोनों छोटे भाई करिया कका और नुनु कका उन्हें दाय कहते थे जो बड़ी बहन के लिए एक सामान्य किन्तु सम्मान जनक संबोधन था. हमलोग दीदी ( हिन्दी में फुआ) से बुलाते थे . और आपको विचित्र नहीं लगना चाहिये कि मेरा फुफेरा भाई भी अपनी माँ को कभी दाय कभी दीदी कहकर ही बुलाता था.

लेकिन हम अपने परिवार के और भी रोचक उलझे रिश्ते की चर्चा करेंगे. हम पीछे बता चुके हैं मेरी माँ मेरी भौजी या भौजिया थी. मेरे पिताजी मेरे बाऊ थे. लेकिन मेरे दादा जी मेरे काका थे और हमलोग कका कहकर उन्हें बुलाते थे. मेरे बाऊ और उनके चारों भाई और उनकी एक मात्र बहन भी उन्हें कका ही कहकर बुलाते थे.  हमारे दियादी के मास्टरका , भोलाका , सुर्ज्जूका और रामका सभी मेरे बाऊ से वयस में बड़े थे और पूर्व में मेरे बाऊ के जन्म के पहले से ही शायद इन्होंने मेरे दादाजी को रिश्ते का काका कहना शुरू किया होगा और फिर मेरे दादाजी मेरे बाऊ और काकाओं के कका हो गये होंगे . बचपन से हमलोग भी उन्हें सुनकर उनका नकल कर कका ही कहने लग गये . मेरे कका ठिगने कद के किन्तु बड़े ही तीव्र बुद्धि के थे. थे तो सिर्फ दूसरी कक्षा पास जैसा कि उन्होंने बताया था, लेकिन क्षेत्रमिति के प्रकाण्ड जानकार थे. जिस त्रिभुज , चतुर्भुज आदि के क्षेत्रफल निकालने में कागज कलम की सहायता से मुझे बीसियों मिनट लग जाते थे कका उसे अपनी उँगलियों पर मिनट दो मिनट में मौखिक गणना करके बता देते थे. अमानत के प्रकाण्ड जानकार के रूप में ये बीसियों कोस तक दूर-दूर तक जाने जाते थे और इन्हें जमीन-जगह के नाप-जोख के झगड़े को निपटाने के लिए जरुर बुलाया जाता था. ये कपड़े की कटाई कर सुई धागे से कुर्त्ता गंजी मुफ्त में सी कर सम्माज सेवा करते थे. ये कत्था तैयार कर लेते थे , पेड़ों की छाल को उबालकर और कचड़े के कागज को मिलाकर कूट ( हार्ड बोर्ड ) बना लेते थे. इन्हें फूल-पत्तों से प्राकृतिक रंग बनाने की अद्भुत जानकारी थी . रामायण, गीता, दुर्गा सप्तशती आदि ग्रन्थ के अधिकाँश हिस्से इन्हें याद थे. खादी की धोती ठेहुने तक नहीं पैरों तक और खादी का कुर्त्ता पहनते थे लेकिन दम फूलने की बीमारी से अक्सर परेशान रहते थे और एलोपैथी की दवा के साथ-साथ नाना प्रकार की आयुर्वेदिक दवाइयों और जड़ी-बूटियों का अपने ऊपर प्रयोग करते रहते थे. सभी बच्चों को अंक और वर्णमाला का अभ्यास यही कराते थे. 

 एक कदम और आगे बढ़ते हैं. मेरी दादी भी, दादी कहकर नहीं बुलायी जाती थी , वह माए या माय से पुकारी जाती थी जो सामान्यतया हमारे मिथिला में माँ के लिये सम्बोधन है ( मए,माए या माय भी सही अर्थों में माँ के लिए मिथिला में उच्चरित शब्द को कागज पर नहीं उकेरता है). परपोते , परपोती भी माए या बुढ़िया माए ही कहकर उसे सम्बोधित करते थे. 

इस तरह संक्षेप में ऐसा समझें -- कि हम अपने विस्तारित परिवार में माँ को भौजी (भौजिया), पिताजी को बाऊ , दादी को माय (माँ) और दादाजी को कका (काका , चाचा) से सम्बोधित करते थे. आप समझ रहे होंगे कि हमें माँ , बाबू (पिता के लिये मिथिला में एक सामान्य सम्बोधन), दादा और दादी कहने का अवसर नहीं मिला, ऐसा समझना गलत होगा. नीचे की विस्तृत कथा से चीजें स्पष्ट जो हो जाएँगी. पहले काका वाले प्रकरण को स्पष्ट कर लेते हैं.

कभी-कभी उम्र, बुद्धि अथवा कारोबार या सामाजिक हैसियत में स्थान रखने वाले के उनके नाम के साथ कका जोड़ कर उन्हें  पुकारने की आजादी हमलोग नहीं ले सकते थे. जैसे हरिनारायण काका को टोले के सभी लोग मास्टर कका के नाम से पुकारते थे , आखिर बीरपुर शालीबासा मिडिल स्कूल में वो मास्टर थे और एक इज्जतदार नौकरी करते थे और पूरे टोले में  कुछ ही पढ़े-लिखे सभ्य जनों में से थे. मेरे बाऊ भी कोशी प्रोजेक्ट बीरपुर में क्लर्क की प्रतिष्ठित नौकरी में थे और मास्टर काका की तरह खादी की साफ़-सुथरा धोती और कुर्त्ता पहनते थे. धोती और कुर्त्ता में नील और टीनोपाल जरूर डलता था. किसी के यहाँ झगड़े का निपटारा हो अथवा भोज-भात के सर्वे सर्वा प्रबन्ध की बात हो तो मेरे बाऊ को ही बुलाया जाता था. इस तरह बाऊ को बाऊ ही कहना उनके इज्जत के अनुरूप की बात थी. इसी तरह श्रीकान्त काका या श्रीका  को पूरे टोले वाले गाम कका के नाम से ही पुकारते थे. गाम कका भी शहर में भैंसालोटन में नौकरी करते थे और साल में दुर्गा पूजा के समय में गाँव आते थे. साफ़ सुथरा नील टीनोपाल में चमकती हुई मील वाली धुआ धोती और सिल्क का कुर्त्ता पहनते थे. मास्टर का और बाऊ की तरह ही इनके मुँह में पान होता था और 300 नम्मर गमकौआ जर्दा की भभक अथवा खुशबू लग्गा-दो लग्गा  ( लग्गा नाप की एक इकाई है जो नौ हाथ लम्बी होती है , साढ़े तेरह फीट के बराबर ) भर की दूरी से ही आती रहती थी. बाऊ गंभीर किन्तु आकर्षक मुद्रा में होते थे जबकि गामका के मुख पर हल्की मुस्कान होती थी. हो भी न क्यों , क्योंकि कुछ ही दिनों के लिए तो उन्हें गाँव में रहना होता था और इतने कम दिनों के लिए क्यों किसी टेंशन को अपने मुख पर खामखाह आश्रय देते. गामका जब भी भैंसालोटन से आते थे पूरे पछवरिया टोल में चक्कर लगाते थे और सबके कुशल मंगल से वाकिफ हो लेते थे. हमारे यहाँ भी आकर बैठते थे घन्टे-दो-घन्टे, और पान का कई दौर चलता था . चाय भी उनके लिए बनती थी उनके सम्मान में. इस तरह गाम कका को किसी और सम्बोधन में बांधना सम्भव नहीं था.

मास्टर काका के छोटे भाई श्री राम नारायण ठाकुर को हमलोग राम काका या रामका या राम कका  कहकर पुकारते थे क्योंकि वह पढ़े-लिखे भी नहीं थे और खेती ही तो  करते थे, ज्यादे खेत भी उन्हें नहीं था. आर्थिक स्थिति ऐसी वैसी ही थी. श्री भोला ठाकुर को भोला का , श्री सूर्यनारायण ठाकुर को सुर्ज्जुका कहकर पुकारते थे. ये हमारे दियादी में थे जबकि. भोलाका चार पांच कोस की दूरी पर एक सेठ के यहाँ नौकरी करते थे और सुरजूका भी कोशी प्रोजेक्ट में पिउन की नौकरी करते थे. लेकिन उन दोनों की वैसी हैसियत नहीं बनी. 

बाऊ बड़ा ही एक बहु प्रचलित सम्बोधन हुआ करता था . मेरे एक पड़ोसी  थे श्री कृष्ण कान्त मिश्र , उनके सभी नौ बेटे-बेटी (टुनटुन, महेन्दर या महेन, देबिन्दर या देबेन , सतेन, धीरेन , बिजेंद्र, भरेन आदि) भी उन्हें बाऊ ही कहते थे . टोले में या गाँव में लोगों के बीच कोई रक्त सम्बन्ध या सीधा सम्बन्ध न भी हो, एक मूल के न भी हों तो भी उन्हें उनके उम्र के हिसाब से कोई एक सम्बन्धी सूचक शब्दों  ( काका,भैया,मामा,दादा आदि)  से सम्बोधित करते ही हैं. ये भी हमारी दादी को दाय ( बड़ी बहन ) कहते थे , भाई-बहन के रिश्ते को निभाते भी थे , हमारी दादी से भ्रातृ द्वितीया में नत भी लेते थे, मेरे बाऊ से दश साल बड़े थे , हमलोग उन्हें दादा के सम्बन्ध में जोड़ते थे. लेकिन हमारे बड़े सम्माननीय थे , इसलिए सिर्फ दादा तो कह नहीं सकते थे , हमलोग उन्हें बड़का दादा या बाऊ दादा कहते थे. हमारे बाऊ और अन्य काका उन्हें मामा न कहकर बड़का बाऊ ही कहते थे. पूरे टोले में ये बड़का बाऊ के सम्बोधन से ही बुलाए जाते थे. ये लम्बे कद के एवं बड़े ही गुस्सैल स्वभाव के थे, लड़ाके थे, लेकिन हम सबसे हमेशा मुस्कुरा कर ही बातें करते थे , साँवले थे, ठेहुने तक की मील धोती बिना नील टीनोपाल की पहनते थे, धोती का एक छोर कंधे पर होता था जो पीछे पीठ पर लटकता रहता था , गंजी भी एक होती थी , यह भी बिना नील टीनोपाल की. इसलिए इनकी धोती और गंजी कुछ पीलापन लिये दीखती थी . हमने उनको कुरते में बहुत ही कम देखा. ये खैनी खाते थे . हमारे यहाँ आते ही रहते थे और हमलोग उनको पान जरुर आग्रह करके खिलाते थे , बहुत खुश होते थे. पान की चर्चा चली तो बता दें, पान मिथिला संस्कृति में स्वागत का मुख्य अंग है. हमारे पछबरिया टोल में ज्यादेतर बुजुर्ग पुरुष और ब्याही महिला पान जरूर खाते थे , लेकिन सब कोई अपने घर में पान का इन्तजाम  रखते नहीं थे . मेरे घर में पान हमेशा उपलब्ध होता था और दिल खोलकर आगंतुकों को खिलाया जाता था. हमारे विस्तारित परिवार में भौजिया,बाऊ,कका,माय और तीन काकियाँ पान खूब खाती थीं . मिथिला ऐसी जगह है जहाँ महिलाओं का पान खाना उनके ऊँचे सामाजिक स्तर को दर्शाता है. यहाँ हर महिला जानकी का प्रतिरूप होती है.

बड़का बाऊ या बाऊ दादा के छोटे भाई को सिर्फ बच्ची दादा या बच्चीदा से बुलाते थे क्योंकि उनका पुकारू नाम बच्चा मिसर ही था. उनके भतीजे और पूरे टोले के हमतुरिया उन्हें  बच्चीका  से सम्बोधित करते थे. ये भैंस चराते थे भिनसर में , दिन में इनके बेटे भोगेन , अमरेन या सुरेन चराते थे . बड़े बेटे जोगेन को कभी भैंस चराते नहीं देखा और न सुना. मुझे यह भी नहीं पता कि बड़े बेटे जोगेन को ये बाऊ कहते थे या नहीं. इसी तरह बाऊ ददा के भी सबसे बड़े बेटे टुनटुनका को भी बाऊ नहीं कहते थे या कहते भी होंगे तो यह पुकार नाम के रूप में पूरे टोले में प्रचलन में नहीं आ पाया. जो भी हो बाऊ ददा भी भैंसे रखते थे . इनके ही घर के बगल में ही बाबू (बाबू कौन थे बाद में चर्चा हुई है) और खोखन भैया का भी घर था और वो भी भैंसें रखते थे. भैसें पालने की वजह से इनके घर को सम्मिलित रूप से लोग पूरे पछवरिया टोल में बथान भी कहते थे और पूरे टोले में प्रतिदिन के दूध की आवश्यकता को ये बथान वाले ही पूरा करते थे. आर्थिक बदहाली को ये भैंसें काफी हद तक दूर कर देती थी क्योंकि पूरे साल का  अनाज बाबू  को छोड़ बथान पर और किसी को खेत से नहीं पैदा होता था. 

टोले में एक थी जुगबा दीदी , बहुत ही गरीब थी, अत्यन्त ही सीधी - सादी थी , और विधवा भी थी, धोती ही साड़ी की तरह पहनती थी जो घिसी-पिटी और मटमैली होती थी . सभी महिलाएँ और दूसरे सारे बच्चे इन्हें जुगबा दीदी से ही पुकारते थे.  इनका  एकमात्र बेटा था श्री खोखन ठाकुर. सामाजिक सम्बन्ध के हिसाब से हमारे भाई लगते इसलिए इनको हमलोग कहते थे खोखन भैया . जुगबा दीदी अपने बेटे खोखन को बाऊ कहकर बुलाती थी , कहने की जरूरत नहीं कि यह जुगबा दीदी का प्यारा बेटा ही रहा होगा. इसलिए खोखन भैया भी अपने सात बेटे-बेटियों - धनिया, कुमन, उमन , भीमा , टीमा आदि के बाऊ ही थे. खोखन भैया पढ़े - लिखे तो थे नहीं लेकिन व्यंग्य भरी बात लाग लपेट की कला के साथ प्रस्तुत करने में महारत रखते थे. लोग इन्हें गंभीरता से नहीं लेते थे और कहते थे ये बातें बहुत भाँजते हैं. इनको अक्सर हमने कुर्ते में देखा जबकि ये बहुत ही गरीब थे. ये चट्टी लगाते थे, धान गेहूँ पटुआ आदि खरीद बिक्री का धंधा करते थे और बमुश्किल गुजारा करते थे. खेत भी इन्हें कम ही था. कुछ खेती- बटाई वगैरह भी कर लेते थे. 

बाऊ वाली बात यहीं ख़त्म नहीं होती है. स्वर्गीय श्री खड्गपाणि मिसर की विधवा बहन भी इसी टोले में उनके ही आँगन में रहती थी और उनका बेटा भी बाऊ ही कहलाते थे. इनका नाम वैसे तो था श्री दयानाथ झा , काका का सम्बन्ध बनता था , लेकिन हमलोग इन्हें बाऊभिया ( बाऊ भैया) कहकर बुलाते थे. इनकी एक अच्छी सामाजिक हैसियत थी क्योंकि ये दरबार में हाजिरी लगाते थे. दरबार याने ललित बाबू (पूर्व रेल मंत्री) के भाई श्याम बाबू के दरबार में . श्याम बाबू गाँव के निर्विरोध मुखिया भी होते थे. रेलमंत्री के भाई और बाद में मुख्य मंत्री के भाई ( उनका ही भाई जगन्नाथ मिश्र हुआ करते थे जो कई बार बिहार के मुख्य मंत्री बने, बाद में केन्द्रीय मंत्री भी बने ) के दरबार में हाजिरी लगाने से ही गाँव में और आस-पास के गाँवों में भी लोग इनको जानते थे. ये ठेकेदारी भी करते थे. ये  भी नील टीनोपाल वाली खादी की धोती और कुर्त्ता पहनते थे और कंधे पर खादी का एक गमछी रखते थे. पैरों में हवाई चप्पल भी होता था. पान खाते थे गमकौवा जर्दा वाला . ये हमारे यहाँ के जैसे ही सुबह शाम चाय भी पीते थे.

जुगबा दीदी की बात पीछे अधूरी रह गयी थी. जुगबा दीदी विधवा होने के बाद अपने छोटे भाई श्री चुल्हाय झा के ही आँगन में रहने लगी थी. चुल्हाय झा के नाम से वो जाने जाते तो थे लेकिन उनका असली नाम था श्री नागेश्वर झा. उनके पाँचों बेटे-बेटी उनको बाबू कहकर बुलाते थे , इसलिये हमलोग भी उनको काका का सामाजिक सम्बन्ध होते हुए भी काका नहीं कहकर बाबू ही कहते थे. उनके बेटे फदन को हमलोग फदी भैया और छोटे बेटे नीरस को नीरस भैया से बुलाते थे. बाबू के पोते पोती भी बाद में उनको दादा की जगह बाबू ही कहकर बुलाते रहे. हमारे काका लोग बाबू को चुल्हय भैया से सम्बोधित करते थे. अपनी खेती बाड़ी से उनका गुजारा चल जाता था . बाबू लम्बे कद के थे , ठेहुने से थोड़ा ही नीचे तक (छाबा तक ) बिना नील टिनोपाल की मील वाली धोती और दरजी के पास सिलवाई हुई जेब वाली  गंजी पहनते या कंधे पर लटकाए रखते थे. जब कभी गाँव से बाहर किसी रिश्तेदारी में निमन्त्रण में जाना होता था कुरता उधार का लेकर कंधे के ऊपर रख लेते थे . कुर्त्ता पहनते नहीं थे. क्या पता फिट भी न बैठे. चप्पल आदि नहीं पहनते थे . हाँ सुबह-शाम जब घर लौटते थे तो हाथ-पैर धोकर खरम (खड़ाऊं) पहनते थे. इसलिए जब चलते थे फट-फट की आवाज होती थी. कमर में धोती में स्टील वाली एक चुनौटी खोंस कर रखते थे, जिसमें एक तरफ चूना और दूसरी तरफ तमाकू होता था. ये तमाकू का सेवन करते थे. उनका घुरा बहुत नामी था. जाड़े में उनके यहाँ सुबह-शाम घुरा लगता था और लोग आग तापने आते थे . बैठने के लिए पुआल का १०-१५ बीड़ा भी घुरा के चारों तरफ वृत्ताकार में सजा देते थे. हमने भी कक्षा २-3 से कक्षा १० तक लगभग हर जाड़े में सुबह-शाम बाबू के यहाँ घुरा तापने का आनन्द लिया है. बच्चे से बुजुर्ग तक वहाँ जमा होते थे और पूरे टोले , गाँव आदि की खबरें बांटीं जाती थी . बीबीसी के समाचार भी नियमित रूप से विशेष चर्चा में रहते थे. तलहत्थी पर दूसरे हाथ के अंगूठे से चूना और खैनी को मसल कर हाथ से सट-सट चोट मारते , खैनी तैयार करते  और फूंक मारकर नोइस को जब बुजुर्ग लोग उड़ाते तो छींक आने लग जाती थी और हम बच्चे लोग उछल कर छींकते हुए दूर भाग जाते. 

ऊपर में स्वर्गीय श्री खड्गपाणि मिश्र की चर्चा हुई. वो अब जीवित नहीं थे . हमने बचपन से ही उनको नहीं देखा. मेरे दादा जी के वो यार थे . श्री खड्गपाणि मिश्र दो भाई थे . छोटे भाई का नाम श्री चक्रपाणि मिश्र था . इनके परिवार अलग-अलग को हो गये थे - एक पोखर के दच्छिन की तरफ , जिधर हमलोग रहते थे, बड़े भाई का , और दूसरा  पोखर के उत्तर को, छोटे भाई का . पछवरिया टोल का यही एक परिवार था जो पोखर के उस पार था और इसलिए थोड़ा दुराव रहता था आपसी लेन -देन , हेल-मेल और दैनिक आचार-व्यवहार में. हालाँकि मेरे दादा जी से बड़े भाई के साथ वाली यारी उनकी मृत्यु के बाद इन्होंने जारी रखी और वो और मेरे दादा जी आपस में आजीवन यार रहे. ये दोनों एक दूसरे को यार कहकर बुलाते थे. यार ददा के भी छह बेटे थे और सभी बेटे और टोले के सभी लोग उन्हें दो भाइयों में छोटे होने की वजह से छोटू काका या फिर छट्टू काका से सम्बोधन करते थे .  लेकिन मेरे दादा जी के यार होने की वजह से मेरे बाऊ और मेरे अन्य काका लोग उन्हें छट्टू काका न कहकर यार काका  या यारका कहते थे. हमलोग भी उन्हें छट्टू दादा न कहकर यार दादा या यार ददा ही कहते थे, जैसा कि ऊपर हमने कह ही दिया है. फिर वही, उनका बड़ा बेटा  श्री रमाकान्त मिश्र भी बाऊ ही कहलाते थे और उनके सभी छोटे भाई एवं बेटे-बेटी एवं भतीजी - भतीजे सभी उन्हें बाऊ ही कहकर बुलाते थे. पछवरिया टोल में सभी बच्चे उनके यहाँ के लोगों को फूल काका, गाम काका ( उनकी चर्चा ऊपर हो चुकी है ) कुलो काका , पच्चू काका और सबसे छोटे को बुदनिया काका कहकर बुलाते थे जैसा कि उनके यहाँ के बच्चे बुलाते थे. गामका की माँ को काका लोग छोटकी काकी कह कर बुलाते थे और हमलोग सिर्फ दादी कहते थे.  

स्वर्गीय श्री खड्गपाणि मिश्र की चर्चा अभी भी कुछ बांकी है. उनके तीन बेटे थे, बड़े बेटे की जल्दी ही मृत्यु हो गई थी और उनकी पत्नी की भी, किन्तु इनका एक बेटा था ऐसे तो उसका नाम श्री विद्यानन्द मिश्र था लेकिन हमलोग उसे हुकना नाम से बुलाते थे. बांकी दो बेटे थे श्री डम्बर नारायण मिश्र और श्री चुन चुन मिश्र . क्या विचित्र नाम था. था न ? डम्मर कका के बेटे का नाम कुछ रहा होगा लेकिन वह बाबा के नाम से जाना जाता था. चुन चुन काका को हमलोग चेतोका  या चेतीका कहकर बुलाते थे. चेतीका के बड़े बेटे का नाम था चुकना. असली नाम तो था अवनि, लेकिन हमलोग उसे चुकना ही कहकर बुलाते थे. हुकना चुकना की दादी बहुत बूढ़ी थी , झुककर चलती थी ओर पूरे टोले में सभी काका लोग उन्हें बड़की काकी से बुलाते थे. हमलोग बुढ़िया दादी कहते थे. डम्मरका और चेतोका उन्हें माए ही कहकर बुलाते थे.

'बाऊ' सम्बोधन की बात यहीं खत्म नहीं होती. मास्टरका के चार बेटे थे. बड़े बेटे का नाम था श्री उग्रानंद ठाकुर, लेकिन मास्टरका ने भी अपने बड़े बेटे का नाम बाऊ ही रखे हुआ था. और वह भी अपने परिवार के साथ-साथ पूरे टोले में 'बाऊ' नाम से ही सम्बोधित किए जाते थे. मास्टरका की पत्नी को उनके बेटे माँ कहकर बुलाते थे और पूरे पछवरिया टोल में हमारे जैसे छोटे बड़े सभी बच्चे उनको माँ कहकर ही बुलाते थे काकी नहीं. और पूरे टोले में उस समय जबकी बात हम बता रहे हैं सिर्फ यही एक माँ थीं. कारण क्या हो सकता था ? मास्टरका टोल के सर्व प्रथम मैट्रिक पास व्यक्ति थे, सबसे पहले योग्यता आधारित सरकारी नौकरी पाए थे और इससे सबसे पहले नजदीकी शहर में प्रतिदिन आने जाने का मौका पाए थे और इससे उनके और उनके परिवार के व्यवहार का शहरीकरण सबसे पहले शुरू हुआ था.

बाबू साहेब नाम भी खूब रखे जाते थे. सबसे नजदीक की पड़ोसिन लाल काकी थीं. वो विधवा थीं लेकिन पूरे टोले वालों की लाल काकी थी. लाल काकी का बड़ा लड़का हमारे क्लास में ही पढ़ता था , उसका नाम वैसे तो श्री हरिश्चन्द्र मिश्र था लेकिन पूरे टोले में बाबू साहेब के नाम से ही जाना जाता था. मास्टरका के दूसरे लड़के का नाम भी बाबू साहब था और वो भी पूरे टोले में इसी नाम से जाने जाते थे न कि श्री उद्यानन्द ठाकुर के नाम से. भोलाका के एकमात्र बेटे का नाम विद्यानन्द कोई नहीं जानता था, सब उसे लडडू बाबू से बुलाते थे.

लाल काकी की चर्चा हुई तो ख्याल आया , हम भी लाल काका की पत्नी को लाल काकी से ही पुकारते थे, जो कि चर्चा हमने ऊपर कर रखी है. टोले में और भी लाल काकी होती थी, लगभग हर परिवार में. हम सबका ब्यौरा नहीं दे सकते नहीं तो यह लेख और भी लम्बा हो जाएगा. लेकिन इन दो महिला की चर्चा छोड़ दें तो शायद रोचकता में कमी न रह जाय. मेरे ही टोल में एक थे श्री नारायण मिश्र , उनका देहान्त कब हुआ हमें नहीं याद , हमने उन्हें शायद देखा भी न हो . उनकी विधवा को हमारे बाऊ और सभी काका गण मेरे सभी काका सहित  मामी कहते थे इससे उनको पूरे टोले में हम लोग दादी नहीं मामी कहकर ही सम्बोधित करते थे. इसी तरह एक और विधवा महिला थी भोलाका की भाभी जो उनके ही आँगन में रहती थी अकेली , निःसंतान थीं. उसे बाऊ और दूसरे काका गण बायसी वाली भौजी कहते थे लेकिन हमलोग कोई काकी नहीं बहिन दाय कहते थे. वह भोलाका के बड़े भाई की पत्नी थी इसलिए दूसरी बहुएँ उन्हें बहिन दाय के सामान्य सम्बोधन से पुकारती रही होंगी और पूरे टोले के हमलोग यही सुनकर उन्हें बहिन दाय से सम्बोधित करने लग गये होंगे.

पछवरिया टोल पन्द्रह  परिवारों का, जिनके चूल्हे अलग थे , एक वृहद् परिवार और करीब सवा सौ की आबादी वाला टोल था . कितने हिले- मिले थे. अपना पराया का भेदभाव तो था लेकिन स्वार्थ की बू नहीं थी. लोग झगड़ते तो थे लेकिन जान के प्यासे नहीं. ये बात पांच दशक पहले की है. 

दीवाली की रात में सभी बच्चे - बुजुर्ग टोल के हर अपने से श्रेष्ठ जन को पैर छूकर प्रणाम कर आशीर्वाद लेने की दशकों पुरानी परम्परा का उस समय तक निर्वहन कर रहे थे. उस रात दूसरे के घरों में खाना खाने के विशेष आग्रह को स्वीकारना ही पड़ता था. मेरी माए (दादी) तो वेसन के  दर्जनों बड़े और कभी कभी बतासे पैर छूने वालों को बाँटती थी. दुर्गा पूजा में नवरात्रि के दिन भी चरण स्पर्श की परम्परा को निभाते थे. बुजुर्ग लोग सभी घरों में जाकर अपने से छोटे को जयन्ती माथे पर रख कर आशीर्वाद देकर आते थे. भरदुतिया ( भ्रातृद्वितीया ) में बाऊ जिलेबी लाते थे और पांच-पांच जिलेबी का पैकेट बना कर देते थे और पूरे टोले में हर घर में जाकर हम सभी भाई सभी बहनों को जिलेबी देकर और बहनों से नत (टीका) लेकर आते थे. बहनें पढ़ती थी एक मन्त्र जिसका अर्थ यही होता था  -- गंगा जमुना में जब तक रहे पानी मेरे भाई की रहे जिन्दगानी.....कुछ घरों में तो आग्रह स्वरूप खाना भी खाना ही पड़ता था. आग्रह को टाल नहीं सकते थे. दूसरे घरों से भी भाई हमारे यहाँ आते मिठाई के साथ , हमारी बहनों से नत लेने के लिए. यह पारस्परिक था. भाई-बहन के सामाजिक रिश्ते निभते थे.

फगुआ में  भी श्रेष्ठ जन को पैरों पर अबीर देकर आशीर्वाद लेते थे. फगुआ के एक दिन पहले धुरखेल मनाया जाता था . धुरखेल में भी बुजुर्गों के पैरों पर धूल डाल कर आशीर्वाद लेते थे. मेरे कका (दादा जी ) मुझे साथ लेते थे और फगुआ के दिन टोले की सबसे बुजुर्ग महिला बुढ़िया दादी ( हुकना चुकना की दादी) के पैरों पर अबीर डाल आशीर्वाद ले आते थे. बुढ़िया दादी जो जमीन के समानान्तर झुक गयी थी उझक-उझक कर मेरे कका को माथे पर अबीर लगाती थी , मेरे कका अपना सिर अबीर लगवाने के लिये झुका लेते थे जिससे बुढ़िया दादी को दिक्कत न हो . बुढ़िया दादी  माल पुआ खिलाने की आग्रह भी करती थी. इस दृश्य पर हमलोग मुस्कुरा भर लेते थे. यह दृश्य याद कर आज भी चक्षु पटल डबडबा जाता है . 

पूरे टोले में मेरी पड़ोसिन लाल काकी ही छठ का व्रत रखती थी और सभी उनके यहाँ डाली दे जाते थे. टोल के सभी बच्चे और महिलायें लाल काकी के पीछे पंक्ति बद्ध हो शाम और सुबह के अर्घ्य के लिए नहर के छहर पर जाते थे.

 पड़ोसियों के यहाँ मेहमान आते तो हमारे यहाँ से कुर्सी उठा कर ले जाते. पान लगा कर भी ले जाते. कभी-कभी  पड़ोसियों के मेहमान रात में रुक जाते तो फिर उनके लिए रात्रि विश्राम की व्यवस्था हमारे यहाँ करनी होती. चौकी पर साफ चादर डलवाना , मच्छरदानी फैलाना हमारा दायित्व बन जाता था. ऐसे में उन मेहमानों को चाय- पान कराने की भी नैतिक जिम्मेवारी हमारे यहाँ आन पडती, जिसे बिना किसी दुर्भावना के निभाते. 

हमें याद है पूरे पछवरिया टोल में एक ही  थर्मामीटर था वो भी हमारे यहाँ . जब कोई बीमार होता तो हम थर्मामीटर लेकर जाते ज्वर मापने  सुबह - शाम , चाहे जुगबा दीदी हो या बाऊ ददा या सुरजूका. १९६७-६८ में मेरे पढ़ुआका ने शायद जमीन बेचकर फिलिप्स का चार बैंड वाला रेडियो खरीदा था तो पूरे गाँव के लोग आ गए थे इस उत्सव को मनाने. ललित बाबू के परिवार का मालूम नहीं , लेकिन इधर पूरे गाँव के लिये शायद यह पहला रेडियो था. पछवरिया टोल के लोग तो फिर आकाशवाणी पटना से सुबह में प्रसारित वंदना और शाम में साढ़े सात बजे प्रसारित होने वाले प्रादेशिक समाचार सुनने के लिये नियमित रूप से हमारे यहाँ ही बैठने लगे थे.  बीबीसी  समाचार , क्रिकेट और हॉकी की कमेंट्री के लिए भी कुछ किशोर जुटने लगे थे. नौजवान किशोर की पसन्द थे  विविध भारती और रेडियो सीलोन से अमीन सयानी की संगीतमय आवाज में प्रसारित होने वाला बुधवार का बिनाका जो बाद में सिबाका हुआ . 

चूड़ा कूटने के लिये ऊखल और समाठ , कुदाल, पासैन(खुरपी), घर के छत पर चढ़ने के लिये बाँस की सीढ़ी, तिरपाल, दरी , तौलने के बटखरे, तराजू गेहूं-धान दौनी के लिए बैलों आदि, दैनिक इस्तेमाल की अन्य चीजें खूब एक दूसरे के यहाँ से लायी जाती थीं. बाड़ी में सजमनि(लौकी), कद्दू, टमाटर, गोभी , रामझींगुनी (भिन्डी) आदि के पैदा होने पर बेचने के पहले लोगों में बाँटे जाते. कुछ विशेष प्रकार की सब्जियों के घर में पकने पर महिलाएं आपस में एक दूसरे को भी बाँटती थी. नमक , तेल, चीनी भी असमय घट जाने पर पड़ोसी से उधार ले आया जाता. शादी-ब्याह, उपनयन, श्राद्ध आदि में पूरे टोल वाले मिलकर सारा काम निपटा लेते. 

कबड्डी हमलोग बथान पर खेलने जाते. हम छोटे बच्चे लड़कियों के साथ गुड्डी खेलते थे. गुड्डी लड़कियों का खेल हुआ करता था. हुकना और चूकना के घर के सामने घास का बड़ा मैदान सा होता था जहाँ हम सब बच्चे दो इंच के रबर वाले गेंद से फुटबॉल खेलते अथवा पुल्ली डंडा , जिसे शहरी लोग गिल्ली डंडा भी कहते हैं, खेलते. कौड़ी या लेड बॉल से घुच्ची-घुच्ची भी खेलते थे. पंच गोटिया का खेल भी बैठे - बैठे समय बिताने के लिए अच्छा जरिया था. गर्मियों में घर बैठे पच्चीसी भी अच्छा आनंद देता था. ताश खेलते पकड़े जाने पर बड़ी डांट लगती थी , यह हमलोगों के लिए प्रतिबन्धित खेल था. यह सिर्फ बुजुर्ग लोग ही खेलते थे. वैसे कौड़ी खेलने पर भी सख्त पाबंदी हुआ करती थी. आम के बगान थे घर के सामने और बाबू के घर के उत्तर में, वहाँ चुक्का का खेल होता था जो ताकतवर युवाओं के लिए होता था. हम बच्चे भी अपनी टीम बनाकर इस खेल को कभी-कभी खेल लेते थे. आम के बगान में हम बच्चे लोग दोल दोलीचा खेलते थे जिसमें आम के पेड़ की फुनगी पर चढ़ कर अपने को पकड़े जाने से बचाते थे. शतरंज की बिसात भी हमारे यहाँ बिछती थी. 

एक आध लोग गांजा पीने वाले भी थे लेकिन वो भारी तिरस्कृत होते थे. किसी गंभीर चर्चा  में उन्हें शामिल नहीं किया जाता. भाँग का सेवन कोई खास निकृष्ट नहीं माना जाता था. भाँग के पत्ते सुखा कर अतिथियों के आगत-स्वागत के लिये हमलोग घर में रखते थे . भाँग की कोई खेती नहीं करनी होती , ये जंगली पौधे की तरह हर रास्ते, खेत, गली और बाड़ी में,घरों के किनारे स्वयं पनपते हैं. इन्हें काट कर फेंकते रहना होता है नहीं तो गर्मियों में ये पतली पगडंडियों के दोनों तरफ उग कर रास्ते को बाधित कर देते थे और चलना दूभर कर देता था . शराब आदि नशे का सेवन अस्वीकार्य था.

१९७०-७२ तक मैट्रिक पास की संख्या तीन से बढ़कर आठ हो गयी थी. डिप्लोमा पास इंजीनीयर भी एक हो गये थे. आगे पढ़ने के लिए अब शहर की तरफ बहुत लोग मुख करने लग गये थे. अस्सी के मध्य तक हमारे टोल में मैट्रिक पास की संख्या २० को पार कर गयी थी. अब लोग इंजीनीयरिंग की पढाई के लिए भी कोशिश करने लग गये थे. परिवार बँटने और टूटने भी लगे थे. 

आज की तारीख में ये पछवरिया टोल पन्द्रह परिवार से ७० -८० परिवारों में बंट गया हुआ है. आबादी सवा सौ से बढ़ कर पांच सौ  से ज्यादे हो गयी है. नजदीकियाँ बिखर गयी है. अब वो अपनापन नहीं रह गया है. हर घर में लोग पढ़े-लिखे हैं. मैट्रिक और ग्रेजुएट की कमी नहीं रह गयी है . हर घर में टीवी है, कुछ ने फ्रिज भी खरीद रखा है. सबके घर में बिजली के पंखे हैं. सबके यहाँ चाय बनती है. सबके यहाँ पान-सुपड़ी की व्यवस्था  है.  सबके यहां कुर्सी टेबुल है. कई ने पक्का घर बना रखा है. हुकना, चुकना, बबरा ,बुदन ,बीदन ,भीमा, टीमा अब नाम नहीं होते . अब लोग पिंकू, राजू, पप्पू, टिक्कू, मिकी, सोनू ,मोनू  आदि नाम रखने लगे हैं. अब बाबू के यहाँ का घुरा प्राचीन इतिहास की बातें हैं, अब लोगों के यहाँ हीटर है, लोग अब महँगे -महँगे जैकेट पहनने लगे हैं , खादी वाला चादर नहीं लपेटते हैं. घुरा के पास बैठ जो बतियाते थे - देश-विदेश और गाँव -घर की बातें करते थे अब लोग टीवी के सामने बैठ ब्रेकिंग न्यूज देखते सुनते हैं. बच्चे -बच्चे के पास मोबाइल है , सब व्हात्सप्प , फेसबुक में उलझे रहते हैं. खोखन भैया की नमक मिर्च से लेपित व्यंग, बीदो भाय के फकड़े, टुनटुन कका के चहुँ दिशाओं की खबर की अब कोई कीमत नहीं, प्रतीक्षा भी नहीं . अब मोबाइल के फेक न्यूज और जोक चलते हैं. देश- विदेश की खबर एक साथ सबको पहुँच रही है. पड़ोसी के यहाँ क्या बीत रही है नहीं पता, लेकिन पाकिस्तानी आतंकियों ने कश्मीर में ग्रेनेड से लोगों को घायल किया सब पता है. शादी ब्याह , श्राद्ध , उपनयन के भोज और सभी प्रकार के इन्तजाम की जिम्मेवारी टोल के लोगों की होती थी अब केटरर और टेंट वाले करते हैं. पैंच-उधार की परम्परा जैसे गायब हो गई हो. यह प्रतिष्ठा के प्रतिकूल समझी जाने लगी है. यदि किसी ने पैंच-उधार की चर्चा कर दी तो उसे हेय दृष्टि से देखने लगते हैं. कई घरों में नशाबन्दी के बावजूद शराब के पान की बात आम हो गई है.

 पड़ोसी चार-पांच दिन बीमार होने के बाद पूर्णियाँ, सिलीगुड़ी , दरभंगा या पटना चला जाय पता तभी चलता है. बीमार होने पर पहले माथे पर पट्टी लगाने वाले भी पड़ोसी के यहाँ से कोई न कोई आ जाते थे अब बुलाये ही नहीं जाते. पहले पेशाब में चींटी लगने की बात से सशंकित हो चीनी की बीमारी की खबर पूरे टोल में सबको मिल जाती थी , अब बहुत दिनों तक बीमारी की खबर और बीमारी के प्रकार की खबर छिपाई जाती है. अब आप बीमारी की चर्चा नहीं कर सकते. 'क्या आप को यह बीमारी हो गयी है' किसी को ऐसा नहीं पूछ सकते. यह अपमान जनक है. यदि आपने पूछ दिया तो झगड़ा न भी हो किन्तु बोल-चाल जरुर बंद हो जाएगी.  कोई किसी से कम नहीं. कोरोना ने तो और भी कमाल कर दिया. टोल के किसी का हाल-चाल यहाँ कोलकाता दिल्ली से रहकर फोन पर भी नहीं ले सकते. अपने परिवार के अपने भाई-काका आदि लोगों से भी नहीं. यदि आपने पूछ दिया तो कटा-कटा जबाव मिलेगा ,"क्यों पूछेंगे, क्या हमने उधार माँगा है , क्या हम आपकी सहायता की उम्मीद में हैं क्या ?" उलाहना सुनने को मिल जाएगा.

पांच सिर्फ पांच दशक पहले ..... हमलोगों की एकमात्र माँ हमारे आँगन  से दो सौ लग्गा दूर उत्तर में थी, बाबू सौ लग्गा दूर हमारे घर के पश्चिम , दादी डेढ़ सौ लग्गा दूर हमारे घर से उत्तर , ददा सौ लग्गा पश्चिम , यार ददा तीन सौ लग्गा दूर, भिया(भैया) भी डेढ़ सौ लग्गा दूर थे  , मामी पचास लग्गा दूर थी , दाय ( बहिन दाय) दो सौ लग्गा दूर ,दीदी {जुगबा दीदी } सौ लग्गा दूर रहती थी . मतलब ये सब अपने आँगन से दूर-दूर थे . अपने घर के आँगन में तो मेरी भौजिया , मेरे बाऊ , मेरी माए ,मेरे कका ही थे. तो फिर ..... ?  तब एक वृहद परिवार था जिसमे लगभग सभी रिश्ते थे......  पूरा पछबरिया टोल फिर भी एक परिवार था. और आज .....?  पछवरिया टोल में दर्जनों 'परिवार' हैं और इसलिए दर्जनों माँ या मम्मी है, पापा हैं, दादा  हैं, चाचा  हैं काका नहीं , चाची हैं काकी नहीं।  लेकिन सब अलग हैं , सब अपने घर और आँगन की अपनी सीमा में है . पहले भी तो अलग-अलग ही चूल्हे थे और सब अलग-अलग ही तो खाते थे और अभी भी  अलग-अलग ही तो खाते हैं . तो फिर फर्क क्या है ........नहीं , फर्क है  भई ....... 

विकास , टेक्नोलॉजी और पश्चिमी शिक्षा ने हमारे सामाजिक ताने-बाने को तितर-बितर कर दिया है. संस्कृति से दूर और विकृत सभ्यता की ओर अग्रसर हो गये हैं. अपनी सांस्कृतिक धरोहर को खो रहे हैं. ईर्ष्या , द्वेष, घृणा की पैठ ज्यादा हो गयी है. अपनापन चला गया है. रिश्ते सब हैं , किन्तु कागज पर. ................रिश्ते की मिठास गायब हो गयी है.



अमर नाथ ठाकुर, २४ मार्च , २०२२ , कोलकाता .




 


मैं हर पल जन्म नया लेता हूँ

 मैं हर पल जन्म लेता हूँ हर पल कुछ नया पाता हूँ हर पल कुछ नया खोता हूँ हर क्षण मृत्यु को वरण होता हूँ  मृत्यु के पहले जन्म का तय होना  मृत्य...