Friday, 25 September 2020

बिहार के आम चुनाव पर जाति एवं धर्म का प्रभाव

 

बिहार के आम चुनाव पर जाति एवं धर्म का प्रभाव

 

बिहार में आम चुनाव का बिगुल  फुंक चुका है. वहाँ तीन चरणों का चुनाव 28 अक्तूबर , 3 नवम्बर एवं 7 नवम्बर को होंगे एवं वोटों की गिनती 10 नवम्बर को होगी. विधान सभा का कार्यकाल समाप्त हो रहा था अतः चुनाव तो होना ही था. इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं थी. सभी पार्टियाँ इसकी तैयारी कर रही थी. वैसे तो पार्टियाँ चुनाव की तैयारी चुनाव घोषणा के समय ही नहीं करती, इसकी तैयारी सालों भर चलाती रहती हैं. चुनावी मुद्दे अब अखबार और टी वी पर छाये रहेंगे. पेड न्यूज एवं स्पोंसोर्ड न्यूज अपनी भूमिका निभाएगी. अब रेडियो की भूमिका बहुत कम हो गयी है. हाँ , कहीं-कहीं FM पर भी प्रचार और विज्ञापनों के माध्यम से सशक्त रूप से चुनावी मुद्दों पर चर्चा चलती है, लेकिन FM चैनल बिहार में कम हैं अतः यह उतना प्रभाव नहीं छोड़ेगा. व्हाट्सएप्प, फेसबुक एवं यूट्यूब बिहार के गाँवों में अपनी पैठ बना चुका है अतः इसकी अच्छी खासी भूमिका होगी बिहार के आम चुनाव पर अपना प्रभाव छोड़ने में. भ्रामक लेखों एवं विज्ञापनों के माध्यम से पार्टियाँ जनता को अपनी तरफ आकर्षित करेंगी. ट्विटर बिहार की सिर्फ सुशिक्षित और प्रबुद्ध्ह जनता तक ही पंहुच बनाये हुई है अतः इसका नाम मात्र प्रभाव ही पडेगा. चुनावी रैलियां और लाउड स्पीकरों द्वारा गानों से, नारे बाजी के द्वारा नेता गण और उनकी पार्टियों के लोग चुनाव प्रचार करते रहे हैं और उम्मीद के मुताबिक़ शायद यही तरीका इस बार सबसे प्रभावी हो. कोरोना की वजह से रैलियों पर कुछ पाबंदियां रहेंगी. अतः गाने-बजाने, पोस्टरों, बैनर आदि से चुनाव प्रचार होंगे. नेता गण कोरोना की वजह से शायद दो-चार की संख्या में घर-घर पंहुच बना कर मतदाताओं को प्रभावित करेंगे. डिजिटल एप्प पर भाषण देंगे. चुनाव आयोग और प्रशासन की सख्ती की वजह से इस बार गाड़ियों और  विभिन्न वाहनों की रैलियों एवं सभाओं पर आंशिक प्रतिबन्ध की सीमा कितनी प्रभावी रहेगी यह देखना है.

चुनावी मुद्दे किन्तु क्या होंगे – भारत-चीन सीमा पर तनाव, पाकिस्तान के साथ सम्बन्ध, आतंकवाद, जम्मू-कश्मीर से धारा 370 एवं 35A का हटना, गलवान घाटी में भारतीय एवं खासकर बिहारी सैनिकों का मारा जाना, कोरोना एवं कोरोना में किये गए बचाव में बिहार सरकार की सफलता अथवा विफलता, कोरोना में  बिहारी मजदूरों के भारत के विभिन्न राज्यों से वापस आने के मुद्दे, उत्तर बिहार में बाढ़ की विभीषिका, नेपाल से भारत के सम्बन्ध, सुशांत सिंह राजपूत की ह्त्या या आत्म हत्या, राम मंदिर का शिलान्यास , नागरिकता कानून, बिहार के समग्र विकास इत्यादि ऐसे मुद्दे रहेंगे जिस पर पार्टियाँ अपने पक्ष और विपक्ष में सरकार के किये अथवा नहीं किये  कामों पर जनता को वोटों के लिए अपने-अपने पक्ष में करेगी. इसके अलावा और बहुत से मुद्दे होंगे जिसका स्थानीय स्तर पर बहुत प्रभाव रहेगा और यह खासकर सरकार चला रही पार्टियों के लिए बहुत उल्टा पड़ेगी और स्थानीय स्तर पर बहुत से परिणामों को उलटा-पुल्टा भी करेगी.  इसमें कहीं वारिश की वजह से हुए जल-जमाव, नाले की सहाई, अस्पतालों एवं स्कूलों में अव्यस्था, सड़क आदि मरम्मती से सम्बंधित काम , सरकार की विभिन्न योजनाओं की सफलता-विफलता इत्यादि ढेर सारे मुद्दे होंगे जिन पर पुराने चुने प्रतिनिधियों को नए उम्मीदवार एवं जनता घेरेगी और जलील करेगी और डराने का एक सन्देश देगी. लेकिन पूरे भारतवर्ष में अधिकाँश राज्यों में चुनाव के परिणाम ऐसे ही नहीं पूरी तरह प्रभावित होते हैं. भारत वर्ष में अधिकाँश राज्यों में चुनाव के परिणाम जाति एवं धर्म से प्रभावित होते हैं. कुछ राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियाँ उभर कर आयी हैं किन्तु किसी न किसी रूप में इनके वोट बैंक का आधार भी  जाति या धर्म ही होता है या जाति-धर्म से परिभाषित होने वाले कोई कारक. यहाँ तक कि राष्ट्रीय स्तर की भी पार्टियाँ इन कारकों से प्रभावित रहती हैं और जाति एवं धर्म के आधार पर ही हर चुनाव क्षेत्र के लिए अपने उम्मीदवार खड़ा करती हैं. भारतीय मतदाता जाति एवं धर्म के आधार पर खूब ध्रुवीकृत होती हैं. सभी पार्टियाँ मतदाताओं के इस तरह ध्रुवीकरण में माहिर होती हैं. विकास के मुद्दे, राष्ट्रीय मुद्दे, आतंकवाद, भ्रष्टाचार एवं रोज़गार के मुद्दे, दुनिया में भारत का बढ़ता कद आदि मुद्दे खूब चर्चा में रहेंगे लेकिन मतदाता वोट के वक्त में बँटेंगे अंततः जाति और धर्म के आधार पर ही. कुछ इन्टेलेक्चुअल एवं प्रबुद्ध जनता नरेन्द्र मोदी की करिश्माई व्यक्तित्व से प्रभावित होंगी, कुछ उनकी तथाकथित डींग हांकने वाली प्रचारित छवि से प्रभावित होंगी, कुछ विचार धारा के आधार पर कम्युनिष्टों को वोट देंगे, कुछ पुश्त-दर-पुश्त कांग्रेस को वोट देते आये हैं इसलिए वे कांग्रेस की ही तरफ रहेंगे, कुछ सम्मिलित रूप से लुटियन गैंग , टुकड़े-टुकड़े गैंग एवं कुछ अर्बन नक्सलवाद के समर्थक हैं इसलिए ये उनके साथ अंत तक रहेंगे. लेकिन मिला जुलाकर आपको यह समझना पड़ेगा कि जाति और धर्म के इतर ज्यादतर राज्य में मतदाता इतने नहीं होते कि वो चुनाव परिणाम को बदल दे. आइये बिहार के इस चुनाव के परिप्रेक्ष्य में चुनाव के आगे चुनाव की जाति और धर्म वाली गणित को समझने की कोशिश करते हैं. पहले कुछ उदाहरणों से जाति और धर्म आधारित चुनावी समीकरणों को समझते हैं.

 

अपने देश में जाति और धर्म से इस कदर लोग जुड़े हुए हैं कि भ्रष्ट से भ्रष्ट , दुर्दांत क्रिमिनल , आतंकवादी और फसादी नेता भी पूरे दावे के साथ अपनी जाति और धर्म वाले के वोट हर हाल में प्राप्त कर लेते हैं. जाति और धर्म का वोट की राजनीति से अटूट बंधन है. अनेक उदाहरण मिल जाएंगे बिहार और उत्तर प्रदेश की राजनीति में. तो आइये बिहार और उत्तर प्रदेश के परिप्रेक्ष्य में ही इस बात की पहले खोज-बीन कर लेते हैं.

  बिहार के लालू प्रसाद यादव भ्रष्टाचार के अनेक मामले झेलते हुए भी यादवों के अधिकांश वोट पाते रहे हैं. उनके जेल जाने के बाद अब यह विरासत उनके बेटे ने ले ली है. लालू यादव ने लालकृष्ण आडवाणी का रथ रोककर मुस्लिमों में एक भरोसा बनाया, फिर अनेक तरह के तथा अनेक अवसरों पर उन्मादी बातें बोलकर मुस्लिमों का ऐसा विश्वास कब्जाया कि अभी तक वह और उनकी पारिवारिक पार्टी आरजेडी ने मुस्लिमों के वोट का भी लाइसेंस ले रखा है. बैकवर्ड-फॉरवर्ड (पिछड़ी-अगड़ी) की राजनीति करते-करते मंडल कमीशन के जन आन्दोलन से होते हुए यादवों के एकछत्र नेता बन गये. माय (MY) याने मुस्लिम-यादव समीकरण के प्रणेता लालू यादव जी ही हुआ करते हैं. फिर भुराबाल काटने ( भूमिहार, राजपूत, बाभन, लाला को समाज से अलग-थलग करने ) की बातों वाला जुमला भी लालू जी की ही देन है. कमोवेश उत्तर प्रदेश की समाज वादी पार्टी मुलायम सिंह यादव की पारिवारिक पार्टी है ( अब अखिलेश यादव ने मुलायम की यह विरासत थाम ली है ) और यह भी माय समीकरण पर ही काम करती है और मुस्लिम-यादव वोटों का लाइसेंस अपने पास रखे हुए है. अयोध्या में हिन्दुओं को मारने वाला बयान हो या मुस्लिमों को कोई विशेष सुविधा वाला क़ानून हो या मंदिरों में घंटा बजाने पर रोक की बात या हिन्दू पर्वों पर हिन्दुओं के जुलुस पर रोक की बात हो, इन सब बातों ने या घटना क्रम ने मुलायम की पारिवारिक पार्टी को मुस्लिम वोटों का भी मालिक बना दिया. यादवों को नौकरियों में अनैतिक रूप से फ़ायदा पहुंचा कर, सरकारी सहायता यादव जाति विशेष तक सुनिश्चित कर और अनेक तरह की जाति आधारित बयानों एवं कामों के आधार पर मुलायम सिंह यादव यादव नेता बने एवं यादव वोटों का भी एकछत्र अधिकार प्राप्त किया. इन सबके बावजूद लालू सिर्फ बिहार में और मुलायम सिर्फ उत्तर प्रदेश के नेता के रूप में ही उभरे हैं. दूसरे राज्यों में कुछ शहरों में इन प्रदेशों के इन जाति और धर्म वालों के लोगों का कुछ तबका जो अपने व्यवसाय और रोजगार के लिए बसे हुए हैं वो इन्हें कुछ समर्थन देते हैं. लेकिन ये दोनों राष्ट्रीय स्तर के नेता के रूप में स्थान नहीं हासिल कर सके हैं.

उत्तर प्रदेश के अनुसूचित जाति के मतदाता मायावती की पार्टी बहुजन समाज पार्टी को वोट करते हैं. कांशीराम हरिजनों के नेता के रूप में प्रतिष्ठापित हो गये थे. मायावती कांशी राम की उत्तराधिकारिणी के रूप में अपने को प्रतिष्ठापित करने में सफल रही. ऊँची जातियों के बारे में विष वमन करके, धार्मिक ग्रंथों की वर्ण सम्बंधित सन्दर्भों का अतार्किक और गलत अर्थ प्रतिपादित कर, हरिजनों की भावनाओं को भड़का कर बाबा साहेब अम्बेडकर को अपना आदर्श बनाकर वह हरिजनों की नेता बन गयी हैं. जमीनी स्तर तक निरक्षर लोगों तक भी मायावती ने अपनी पहुँच बना ली है. आंशिक तौर पर दूसरे राज्यों में भी उनका प्रभाव फैला है और अनुसूचित जाति के कुछ प्रतिशत वोट बसपा को दूसरे राज्यों में भी मिलते हैं. मायावती लालू और मुलायम से ज्यादे राष्ट्रीय फैलाव वाली नेत्री है. वैसे चंद्रशेखर जैसे दलित नेताओं का उदय कुछ हद तक मायावती के लिए खतरा हो सकते हैं और वोटों के बंटवारे में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाकर मायावती की दलितों की एक छत्र नेत्री के रुतबे को चुनौती दे सकते हैं.

चौधरी चरण सिंह किसानों और जाटों के नेता थे. उनकी विरासत को उनके बेटे अजीत सिंह ने हथियाया और कभी किसानी न करने के बाद भी किसानों के और जाट होने की वजह से जाटों के नेता बने. लेकिन अब वह सिर्फ जाटों के नेता रह गये हैं. अब तो सभी जाटों पर अपना प्रभुत्व भी नहीं रखते. पश्चिम उत्तर प्रदेश में कई जिले अच्छी खासी संख्या जाटों वाली है और कई जाट नेता उन वोटों पर अपने हिसाब से कब्जा करते हैं.

मुलायम, लालू, मायावती ऐसे नेता हैं जो दूसरी जाति और धर्म के नेता को भी अपना वोट बैंक ट्रान्सफर करने में समर्थ हैं. यही वह बात है जो इनको अन्य नेताओं से विशेष तौर पर अलग करता है. पिछले बिहार चुनाव में जब लालू और नीतीश ने साथ चुनाव लड़े तो वोटों का यह ट्रान्सफर कम्पूटर की गणना की शुद्धता से हुआ.

उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह लोधों के, अनुप्रिया पटेल कुर्मियों की, राजा भैया क्षत्रियों के, आजम खान मुस्लिमों के नेता के रूप में जाने जाते हैं. बिहार में शहाबुद्दीन मुस्लिमों के, नीतीश कुमार कुर्मियों के, उपेन्द्र कुशवाहा कुशवाहा/कोइरी  जाति के, राम विलास पासवान अनुसूचित जातियों के ख़ास कर दुसाध जाति के , जीतन राम मांझी भी हरिजनों / अनुसूचित जाति  में खासकर मुसहर जाति के लोगों के नेता के रूप में प्रतिस्थापित हुए हैं. आजकल मुकेश साहनी मछुआरों के नेता के रूप में उभरे हैं और अपनी जाति के बहुत वोटों को अपनी तरफ खींचने की ताकत रखते हैं. भूमिहारों के, ब्राह्मणों के, कायस्थों के, बनियों के भी नेता इसी तरह की भूमिका में होते हैं. राजपूतों एवं भूमिहार ब्राह्मणों के बारे में भी ऐसा पर्सेप्सन है कि पढ़े लिखे लोग भी अपनी जाति के प्रभावशाली नेता के लिए पार्टी लाइन से बाहर जाकर वोट करते हैं क्योंकि इनके अन्दर आतंरिक एकता बहुत ज्यादे होती है. इस बार सुशान्त सिंह राजपूत के मुद्दे पर बाजी नीतीश कुमार और बीजेपी ने जीती है बिहार में एफ़आईआर लिखने के बाद सीबीआई को केस ट्रांसफर करने की वजह से अधिसंख्य राजपूत वोट इनकी तरफ खिसकेंगे.

 

हर जाति के नेता होते हैं बिहार में और किसी न किसी स्तर पर चाहे यह स्थानीय स्तर गाँव या मुहल्लों तक ही सीमित क्यों न हो. यह कोई विशिष्ट बात नहीं क्योंकि हर आदमी किसी न किसी जाति के तो होते ही हैं. लेकिन यह तय है कि यदि कोई आदमी नेता है तो अपनी जाति के वोटों का कुछ न कुछ स्वामित्व तो रखता ही है. किसी भी जाति में जन्म लेना उस नेता की प्राथमिक , नैसर्गिक एवं ईश्वर प्रदत्त योग्यता है जिसे वह चुनाव के वक्त भंजाते हैं और भरपूर भंजाते हैं किन्तु अन्य अवसरों पर जन्म के आधार पर जाति वर्गीकरण और सामाजिक व्यवस्था का घोर विरोध करते और उस पर राजनीति करते पाए जाते हैं.

किसी जाति विशेष के नेता होने या किसी धर्म विशेष के नेता हो जाने से ही उन नेताओं की बहुत सारी अयोग्यता अथवा दुर्गुण भी उनके सामने गौण हो जाती हैं. आप देख सकते हैं लालू प्रसाद के ऊपर भ्रष्टाचार के दर्जनों मामले हैं, कुछ चल रहे हैं, कुछ में अपराधी साबित हो चुके हैं, बिना किसी धंधे अथवा व्यवसाय के करोड़ों की संपत्ति बन गयी हैं उनके पास, फिर भी बिहार में यादवों और मुस्लिमों के निर्विवाद नेता बने हुए हैं. मुलायम सिंह यादव का कुनबा भी कुछ इसी तरह सैकड़ों करोड़ों के संपत्ति का मालिक बना हुआ है और उत्तर प्रदेश के यादवों और मुस्लिमों के नेता हैं.

 

कुख्यात क्रिमिनल होने के बावजूद शहाबुद्दीन जेल में होते हुए भी मुस्लिम वोटों में अच्छी खासी पैठ रखते हैं और इनकी इन्हीं योग्यता को संरक्षण देकर लालू प्रसाद यादव इन्हें अपने साथ रखते थे. पिछले चुनाव में ओवैसी बिहार में मुस्लिमों की आवाज के रूप में आये और मुस्लिम बाहुल्य किसनगंज जैसे क्षेत्रों से खूब वोट बटोरे. विभेदकारी, खरी-खोटी और सम्प्रदायवादी बातें करने वाले ओवैसी इस बार भी बहुत-कुछ मुस्लिम वोटों को अपनी तरफ खींचने में कामयाब होंगे. राम मंदिर, तीन तलाक, नागरिकता कानून , धारा 370 एवं 35 A इत्यादि मुद्दों पर ये मुस्लिमों को डराने में कामयाब रहते हैं.

 इन नेताओं ने यदि विकास के काम अपने क्षेत्र में या अन्य किसी जगह न भी किये हों तो भी उनके वोटों में कोई ख़ास कमी नहीं दीखती. करना ये होता है कि चुनाव के समय ये अपनी जाति या धर्म पर किसी भावी खतरों की बात दुहराते हैं, दुष्प्रचार करते हैं, जातिगत और धार्मिक भावनाओं को कुरेदते हैं. ये सब ऐसे मुद्दे हैं जिससे  पढ़े-लिखे और समझदार लोग भी,  हमने देखा है,  उनकी जद में होते हैं.

नीतीश कुमार कुर्मियों के एक विशेष प्रकार के नेता हैं. इन्होंने अपनी विशिष्ट छवि बनायी है. इन्होंने बिहार में विकास के बहुत काम किये हैं, इनकी छवि इमानदार नेता की है, इनके ऊपर भ्रष्टाचार के कोई गंभीर आरोप नहीं हैं, इन्होने पारिवारिक राजनीति को बढ़ावा नहीं दिया है, इनकी छवि मुस्लिम समर्थक की भी है. इस तरह इन्होंने अपनी छवि कुर्मी जाति और हिन्दू धर्म की सीमा से आगे जाकर भी बना ली है और निष्पक्ष और समझदार मतदाताओं में भी इनकी पैठ बन गयी है.  नीतीश कुमार को जातिगत और धार्मिक उन्मादी बातें उठाने की जरुरत नहीं पड़ती. लेकिन फिर भी जातिगत बंधन का सामीप्य उनको कुर्मियों का निर्विवाद नेता बनाता है और नैसर्गिक रूप से कुर्मियों के अधिकाँश वोट बिहार में उनको ही जाना होता है. जदयू (जनता दल यूनाइटेड) के निर्विवाद नेता के रूप में वह प्रतिस्थापित हैं. शरद यादव जैसे राष्ट्रीय नेता नीतीश कुमार से सैद्धांतिक मतभेद होने के बाद टिक नहीं पाए और उन्हें पार्टी छोड़नी पडी. एनडीए के साथ होने पर भी, जिसकी छवि मुस्लिम विरोधी है, जदयू को मुस्लिम वोट मिलते हैं.

बिहार के एक और नेता पप्पू यादव की चर्चा करना लाजिमी होगा क्योंकि जिस तर्क के लिए बातचीत कर रहे हैं उसको यह मजबूत करेगा. पप्पू यादव आपराधिक छवि के रहे हैं और अच्छा खासा वोट पा जाते हैं जब भी मधेपुरा, जो यादव बाहुल्य चुनाव क्षेत्र है और जो उनका गृह क्षेत्र भी है, से चुनाव लड़ते हैं, यादवों के वोट पर कब्जा जमाते हैं. मज़ा तो तब आता है जब ऐसे यादव बाहुल्य क्षेत्रों से तीन-तीन महारथी नेता एक ही जाति विशेष के वोटों के भरोसे खड़े हो जाते हैं और निरीह यादव जनता किंकर्त्तव्यविमूढ़ हो जाती है कि अपने वोट से वह किसे कृतार्थ करे. यह बात अन्य जातियों पर भी ऐसे ही लागू होती है क्योंकि नेताओं का चयन सभी पार्टियां किसी चुनाव क्षेत्र विशेष में जाति बाहुल्य को ध्यान में रखकर ही करती है. तो बात पप्पू यादव की चल रही थी, पप्पू यादव एक बार यहाँ से विजयी भी हो चुके हैं. सिर्फ यादव होना ही उनकी योग्यता है क्योंकि और उनकी कोई योग्यता नहीं, न समाज सेवा का कोई बैकग्राउंड और न कोई सिद्धांतवादी पार्टी से कोई जुड़ाव. यादव कुल में जन्म लेकर यादव वोटों के अधिकारी ही तो हैं.

 

बनियों और व्यवसायियों के ऐसे कोई राज्य व्यापी नेता  सामान्यतया नहीं हैं जो सिर्फ जाति के आधार पर ही अपने लिए वोट लेते हों. जो प्रतिस्थापित तथ्य हैं उस आधार पर बनिए, व्यवसायी, जैन इत्यादि परम्परागत ढंग से बीजेपी को ही वोट देते आये हैं. इस तरह कह सकते हैं कि ये समुदाय निष्पक्ष और समझदार की श्रेणी में हो सकते थे किन्तु परम्परागत ढंग से इनका बीजेपी से जुड़े रहना उन्हीं अनुसूचित जातियों, यादवों, कुर्मियों, राजपूतों, भूमिहारों, ब्राह्मणों , मुस्लिमों इत्यादि की तरह के जाति तथा धर्म के आधार पर वोट देने जैसी इनकी सोच को भी दर्शाता है और हमारी जनरल परसेप्शन वाले सिद्धांत के अनुसार ही उनका वोटिंग पैटर्न बनता है.

 

बिहार जैसे राज्य में अब कांग्रेस का कोई आधार रहा नहीं. इनका वोट बैंक सवर्ण, हरिजन और मुस्लिम वर्ग माने जाते थे , जिनको धीरे – धीरे बिहार की अन्य पार्टियों ने हथिया लिया. ज्यादतर सवर्ण बीजेपी के साथ, हरिजन रामविलास पासवान या जीतन राम मांझी या सहनी के साथ और अधिकाँश मुस्लिम आरजेडी के साथ खिसक गए.

 

राज्य स्तर की पार्टियां, क्षेत्रीय पार्टियां बिहार और उत्तर प्रदेश तथा भारतवर्ष के अधिकाँश राज्यों में इसी तरह के आधारों पर वोट पाती हैं. अलग तेलंगाना की मांग को एक आन्दोलन के रूप में प्रस्थिपापित करने वाले नेता चंद्रशेखर अलग किस्म के नेता के रूप में आते हैं जो जाति और धर्म की संकीर्णता से दूर होते हैं. इसलिए वोटों का उनके हिस्से में जाना चलता रहेगा जब तक कि कोई और नेता जाति और धर्म के आधार पर जनता की भावनाओं को दूषित नहीं कर देते. बांकी सभी उत्तर एवं पश्चिम  भारत में लगभग सभी राज्यों में एक जैसा ही जाति और धर्म का फार्मूला चलता है. दक्षिण भारत में भी मिला जुला कर कुछ ऐसे ही समीकरण बनते हैं. बंगाल, असम एवं ओड़ीसा में जाति आधारित चुनाव न होते हों किन्तु धार्मिक भावनाओं के साथ खिलवाड़ चलता ही रहता है.

 

अपनी जाति में ही शादी-ब्याह की विवशता, एक जाति में एक तरह की सांस्कृतिक परम्परा, एक तरह की पूजा की परम्पराएं, एक ही तरह का जाति आधारित व्यवसाय इत्यादि कुछ ऐसी बातें है जिससे लोग अपनी जाति से जुड़ाव तोड़ नहीं पाते. ईश्वर में आस्था, एक जैसी पूजा पद्धति, एक ही पूजा स्थल, एक जैसी सांस्कृतिक विरासत आदि ऐसे कारक हैं जो एक धर्म के लोगों को उस धर्म के लोगों से जोड़े रखता है. दूसरे धर्म वालों के ये सब एक दम अलग हैं और इसलिए वे अलग-अलग हो जाते हैं. एक जाति वालों का निवास स्थल एक जगह होना और उसी तरह एक धर्म वालों का एक जगह सैकड़ों वर्षों से रहते आना उनको अपनी जाति या अपने धर्म वालों से भी जोड़े रखता है. पूर्व में एक जाति वालों का दूसरी जाति वालों पर अत्याचार, उसी तरह एक धर्म वालों पर दूसरे धर्म वालों का प्रहार इत्यादि ऐसे कारक हैं जिससे लोग अपनी जाति के बीच या अपने धर्म वालों के बीच अपने को सुरक्षित मानने लगे हैं. ये सब ऐसी बातें हैं जिससे लोगों ने शायद जाति के आधार पर या धर्म के आधार पर वोट करना शुरू कर दिया यह समझ कर कि सत्ता के पास रहकर सत्ता की ताकत से अपने को अभेद्य महसूस कर सकें.

 

बड़े-बड़े नेताओं के जुड़ाव और भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में महत्त्वपूर्ण भूमिका की वजह से बिहार, उत्तर प्रदेश के ज्यादतर लोग जो ऊँची जातियों से होते थे तथा जो पढ़े-लिखे होते थे कांग्रेस को वोट देते थे. पहले बहुत सारी पिछड़ी जातियों वाले, अनुसूचित जाति एवं जन जाति के लोग वोट देने भी नहीं जाते थे या जोर-जबरदस्ती वोट देने से वंचित भी किये जाते थे. विकास के काम भी ऊँची जातियों के इलाकों तक या शहरों तक ही सीमित रहे. यही कारण है कि अगड़ी जातियों में जाति के आधार पर वोट बांटने की या वोट देने जैसी बात पहले कम थी और अभी भी कम ही है. लेकिन जैसे ही जागरूकता आयी, शिक्षा का प्रसार हुआ, उपेक्षित लोगों ने अपने अधिकारों को समझा और उसी समय जातियों से प्रेरित नेताओं का प्रादुर्भाव हुआ जबकि कुछ चतुर तथा पढ़े-लिखे लोगों ने चुनाव और वोट की असीम शक्ति को समझ अपनी जाति के लोगों के वोटों को भुनाना शुरू किया उनको वोट गिराने के अधिकार का प्रयोग करवाकर.  पिछड़ी और अनुसूचित जातियों तथा जन जातियों में आरक्षण और राजनीतिक सत्ता-शक्ति के पिछड़ी और अनुसूचित जातियों और जन जातियों में धीरे-धीरे हस्तांतरण से अगड़ी जातियां अपने को शक्तिहीन समझने लगी. अपने को सुशिक्षित और योग्य होने के बाद भी सत्ता से दूर रहना उन्हें गंवारा नहीं लगा. यह उनके लिए अवसाद की सी स्थिति थी. फिर अगड़ी जातियां भी लामबंद होकर वोट करने लगी. एक दशक पहले पहली बार मायावती ने ब्राह्मणों को लोलीपॉप का वादा किया और शायद ब्राह्मणों का एकमुश्त वोट उनको मिला और वह सरकार बनाने में सफल भी हुई. पिछले कुछ चुनावों से अधिसंख्य ब्राह्मणों का झुकाव बीजेपी की तरफ रहा. उत्तर प्रदेश के चुनाव में ब्राह्मणों की भूमिका बहुत निर्णायक होती है, इसलिए आप देख रहे हैं कि विभिन्न पार्टियों के नेता ब्राह्मण क्रिमिनल के मारे जाने पर भी किस तरह ब्राह्मणों को भड़काकर उसे उत्तर प्रदेश बीजेपी सरकार के विरुद्ध करना चाह रही है.  वैसे भी पहले अगड़ी जातियां भी इस जाति और धर्म आधारित वोटिंग से पूर्णतः मुक्त नहीं थी. उत्तर प्रदेश में कमलापति त्रिपाठी ब्राह्मणों के नेता थे और उनको ब्राह्मण वोट मुश्त में मिलते थे. ललित नारायण मिश्र तथा बाद में डा. जगन्नाथ मिश्र बिहार में मैथिल ब्राह्मणों में अच्छी पैठ के लिए बिहार में जाने जाते थे.

 

धर्म के आधार पर भेद-भाव की बात तो देश के बंटवारे से भी जुडी हुई है क्योंकि धर्म के आधार पर देश को बांटा गया तो लोगों में यह भावना तो आजादी के समय से ही घर कर गयी कि मुसलमान यहाँ नहीं होना चाहिए था. फिर दंगे-फसाद से मुसलामानों में ऐसा भय व्याप्त हुआ कि वो अभी तक है और जब भी वो अपने लिए सुरक्षा का वादा किसी पार्टी वाले से पाता है उसे वोट दे देता है. इस तरह मुसलमानों के वोट कई-कई चुनाव में निर्णायक सिद्ध होने लगे और मुसलामानों के चहेते नेता जीतने लगे और उसकी चहेती पार्टियां भी अच्छी सीटें पाने लगीं. सत्ता से वो करीब होने लगे हालांकि वो अभी पिछड़े हुए हैं, जिनका कारण कुछ और है. मुसलमानों का लाम बंद होकर वोट करने के तौर-तरीकों ने हिन्दुओं को डराया और बीजेपी जैसी पार्टी ने इसको भुनाया और हिंदुत्व को भड़का कर हिन्दू वोटों का ध्रुवीकरण करवाने में सफलता प्राप्त की. बिहार और उत्तर प्रदेश तथा कई राज्यों में बीजेपी का यह प्रयोग काम आया हुआ है. सभी हिन्दू सिर्फ बीजेपी को ही वोट नहीं देते तथा लामबंद होकर एक साथ मुसलामानों के नेतृत्व के विरुद्ध सब के सब वोट नहीं देते हैं, किन्तु इस तरह वोट करने वाले हिन्दुओं के प्रतिशत में बड़ा उछाल आया हैं. ऐसे मतदाता जो जातिगत संकीर्णता से दूर रहना चाहते थे उनके लिए एक विकल्प हिंदुत्ववाद का बन गया था. इस तरह भारतीय जनता पार्टी पहली बार जोर शोर से  आडवाणी जी की रथ यात्रा तथा विवादित मस्जिद के गिराने के पहले तथा बाद में अयोध्या विवाद को भुनाने में सफल हुई. पढ़े-लिखे लोगों में अटल बिहारी वाजपेयी जी के विशाल व्यक्तित्व के प्रति भी आदर भाव था जिसे उनके लिए वोटों में तबदील होते देखा गया. अगड़ी जाति वाले जो निष्पक्ष राय रखते थे उन्होंने बीजेपी को खूब अपनाया. एक जनरल परसेप्शन है कि अभी भी बहुत संख्या में सुशिक्षित लोग बीजेपी के साथ हैं जो पहले कांग्रेस के साथ हुआ करते थे. आतंकवाद, देश की सुरक्षा के मामले, हिंदुत्व, भ्रष्टाचार एवं काले धन और विकास के मुद्दे पर निष्पक्ष राय वाले अधिसंख्य लोग बीजेपी के साथ हैं. इस बार तो राम मंदिर का भी शिलान्यास हुआ है, और जिस तरह मुस्लिम समुदाय के कुछ नेता और कुछ और तथाकथित सेकुलर पार्टियों के नेताओं ने सुप्रीम कोर्ट के निर्णय पर, बाबरी मस्जिद के पक्ष में तल्ख टिप्पणी की यह बहुत सारे हिन्दू वोटों को बीजेपी की तरफ ध्रुवीकृत करेगी एवं मुस्लिम वोट बिहार में आरजेडी या ओवैसी की तरफ ध्रुवीकृत होंगे. तीन तलाक के मुद्दे , शिया-सुन्नी के भेद एवं नागरिकता क़ानून आदि को ख्याल में रखकर कुछ मुस्लिम महिला, शिया मुस्लिम एवं कुछ बुद्धिजीवी मुस्लिम बीजेपी की तरफ भी खिसकते से बताये जाते हैं. छद्म धर्म निरपेक्षता की वजह से भी हिन्दू वोटों का बीजेपी की तरफ सरकाव माना जाता है.

 

जाति और धर्म के समीकरण का खेल ऐसा है कि पूरे भारत वर्ष में कोई भी पार्टी इस तथ्य से इनकार नहीं कर सकती और जब भी उम्मीदवारों का चयन होता है इन्हीं तथ्यों और जातिगत तथा धर्म आधारित जनसँख्या के आंकड़े को ध्यान में रखकर ही किया जाता है. जनरल परसेप्शन तो ऐसा है कि सिर्फ राष्ट्र हित के मुद्दे पर, विकास के मुद्दे तथा वैयक्तिक योग्यता के आधार पर हिंदुस्तान का कोई भी नेता किसी भी क्षेत्र से चुनाव में जीतने का माद्दा नहीं रखता, यहाँ तक कि वर्त्तमान में देश का सर्व श्रेष्ठ एवं करिश्माई नेता नरेंद्र मोदी भी नहीं.

 

अब कुछ जातिगत और धर्म आधारित वोटों के प्रतिशत पर नज़र डालें. पिछली जनगणना के समय बिहार में हिन्दुओं की आबादी 82.69% एवं मुस्लिमों की आबादी 16.87% थी. इस बार के चुनाव में 3.45  करोड़ महिला एवं 3.8 करोड़ पुरुष मतदाता मिलाकर कुल 7.25  करोड़ मतदाता हैं. यदि इसे हिन्दू और मुस्लिम मतदाताओं में बाँटें तो 6.0 करोड़ हिन्दू और 1.25 करोड़ मुस्लिम मतदाता हैं , बांकी धर्मावलम्बी लगभग नगण्य हैं और धर्म के नाम पर वोट बंटने पर भी एक-आध चुनाव क्षेत्र को छोड़ कर शायद ही कोई प्रभाव दिखा पाएंगे. हिन्दुओं में विभिन्न जाति के मतदाताओं का अनुमानित प्रतिशत इस प्रकार होगा :

 

यादव : 15 % ; ब्राह्मण : 6 % ; भूमिहार ब्राह्मण : 5 % ; राजपूत : 5.5 % ; कायस्थ : 1.5 % ; कुशवाहा : 6.5  % ; बनिया : 6 % ; तेली : 3 % ; कुर्मी : 4 % ; दलित : 16 %( दुसाध : 4%, मुसहर : 3 %; चमार : 5%) .( जाति नाम से आंकड़े लिखने का हमें खेद है ).

 

  मुस्लिम कुल मतदाताओं का करीब 17 % है.

 

बिहार के सम्बन्ध में यदि यह मान लिया जाय कि एनडीए की बीजेपी, जेडीयूए नीतीश कुमार के नेतृत्व में, लोजपा राम विलास पासवान के नेतृत्व में एवं हम जीतन राम मांझी की पार्टी मिलकर लडती है तो ये पार्टियाँ करीब 40-50 % वोटों का प्रतिनिधित्व करेगी. महागठबंधन जिसमें आरजेडी , कांग्रेस, एवं उपेन्द्र कुशवाहा की पार्टी शामिल होगी और साथ में चुनाव लडेगी तो इसका प्रतिनिधित्व करीब 28-32% वोटों के लिए होगा , मुसलमानों का कुछ प्रतिशत वोट ओवैसी भी बांटेंगे. आज की खबर के मुताबिक़ यदि राम विलास पासवान के बेटे चिराग पासवान एनडीए से अलग चुनाव लड़ते हैं और यदि महागठबंधन में शामिल नहीं होते हैं , जिसकी संभावना अत्यंत ही सीमित है , तो भी इस जाति एवं धर्म आधारित चुनाव में नीतीश कुमार के नेतृत्व में एनडीए सत्ता पर काबिज होएगी. बीजेपी अकेले चुनाव लड़ने का साहस नहीं कर सकती क्योंकि मुस्लिम वोटों के एक मुस्त वोट में भाग लेने की संभावना रहती है , ऐसे में अधिकाँश यादव वोटों पर कब्जा जमाने वाली आरजेडी के साथ  MY समीकरण के  सहयोगी मुस्लिम मतदाता लामबंद हो सकते हैं क्योंकि वे बीजेपी को सत्ता से किसी कीमत पर दूर रखना चाहेंगे. कुछ प्रतिशत वोट कांग्रेस का भी तो महागठबंधन को मिलेगा ही. ऐसे में मुकाबला कांटे का भी होगा. इस तरह की परिस्थिति में तब नीतीश कुमार के भी पाले बदलने की संभावना हो सकती है. 

 

एक और महत्त्वपूर्ण बात यह है कि कोरोना की वजय से बहुत सारे बिहारी मजदूर इस बार चुनाव में बिहार में उपस्थित रहेंगे ,यदि ये कोरोना में भी वोट देने निकल सके तो परिणाम पर बहुत बड़ा प्रभाव डालेगा क्योंकि सामान्यतया बिहार में मतदान का प्रतिशत कम होता है. एक बात और जो कि बहुत ही महत्त्वपूर्ण है पिछले लगभग तीन दशकों से बिहार जैसा निष्पक्ष मतदान बहुत कम राज्यों में होता है. छोटे तबके के लोग खुलकर निर्भीक होकर मतदान में भाग लेते हैं. किसी जाति या किसी  समुदाय विशेष  के लोगों को वोट देने से रोकने की कोई घटना बिहार में शायद ही सुनने को मिलती है. बंगाल में जहां जाति आधारित वोट नहीं होते लोग निर्भीकता से वोट डाल नहीं सकते, यहाँ यदि पता हो कि कोई समूह विशेष किसी पार्टी विशेष को वोट देंगे तो अन्य मजबूत समूह उसे वोट देने से रोकते भी हैं और इससे यहाँ चुनाव में हिंसा बहुत होती है.

 

अंत में बात समाप्त करते हुए यह कहना चाहेंगे कि यदि चीन के साथ सीमा पर कोई असामान्य नहीं घटित होता है , यदि घटित होता है तो संदेह नहीं एनडीए देशभक्ति एवं राष्ट्रीयता के नाम पर बाज़ी मार ले जाएगी, बिहार पूरी तरह जाति एवं धर्म आधारित चुनावी नमूना पेश करेगा क्योंकि देश के सर्वश्रेष्ठ एवं एकमात्र करिश्माई नेता नरेंद्र मोदी को कोरोना की वजह से बिहारी जनता के बीच में जाकर चुनावी भाषण का मौक़ा नहीं मिलेगा.

 

अमर नाथ ठाकुर , पनाश, महीशबथान, साल्ट लेक कोलकाता -700102 thakuran@rediffmail.com ; thakuran.blogspot.com

 

 

 

 

मैं हर पल जन्म नया लेता हूँ

 मैं हर पल जन्म लेता हूँ हर पल कुछ नया पाता हूँ हर पल कुछ नया खोता हूँ हर क्षण मृत्यु को वरण होता हूँ  मृत्यु के पहले जन्म का तय होना  मृत्य...