Saturday, 23 February 2013

क्षणिक सोचें



क्षण कराहते,
क्षण – क्षण कराहते,
क्षण – क्षण की इंतजारी में,
जीवन भर की यारी में.

होती क्षण भर की भी समझदारी
तो क्यों होती क्षण – क्षण की बेकरारी ,
और फिर क्षण –क्षण न पड़ती बेड़ी .
क्षण न घायल होते,
यदि क्षण भर भी कायल होते .

क्षण भर का संयम ,
क्षण भर का चिंतन ,
दूर करे
क्षण – क्षण का      ताप,
क्षण – क्षण का विलाप ,

क्यों फिर क्षण – क्षण से ऊब हो,
क्यों क्षण – क्षण का भी युग हो .

क्षण –क्षण बदलती  तस्वीर .
क्षण-क्षण बदलता चरित्र .
तस्वीर का चरित्र कौन पढ़ पाता .
चरित्र का तस्वीर कौन खींच पाता .
ये क्षण अनमोल है .
ये क्षण-क्षण का बोल है .


अमर नाथ ठाकुर , १ फरवरी , २०१३ , कोलकाता .

माँ तूं जस – की – तस नहीं हो : एक पश्चात्ताप


     -१-

माँ की आँखें तब देख पाती थीं,
वह चावल से कंकड़ बीन लेती थी
चूड़ा से धान और भूसा अलग कर लेती थी
चीनी में तैरती चींटियों को अलग कर देती थी
सरसों और राई भी अलग-अलग कर लेती थी
वह मुझसे आँखें चार कर लेती थी
फिर मेरी खुशी मेरी पलकों से पढ़ती थी
मेरा विलाप और मेरी हैरानी के आंसू गिन लेती थी
होंठों की रेखा से मेरी प्यास और भूख सूंघ लेती थी
माँ की तीक्ष्ण-नज़र मुझे बींध जाती थी 
और मेरे चोर हृदय की  धड़कन भी पढ़ जाती थी

    -२-

अब मैं जवान हो गया हूँ
और मेरी माँ बूढ़ी हो गयी है
उसकी आँखों में मोतिया हो गया है
वह साफ नहीं देख पाती है
कहती है चेहरा धुंधला नज़र आता है
जलता बल्ब एक शोला नज़र आता है
अब वह हमसे आँखें चार नहीं कर पाती
ओठों की लकीरें नहीं गिन पाती
फिर भी वह वात्सल्य की तीक्ष्ण – नज़र चलाती है
और मेरे मन का हर चोर पकड़ लेती है
मेरे पद-चाप से मेरे प्रेम और दूराव को नाप लेती है
मेरे स्वर के भारीपन से मेरी उदासी को समझ लेती है
बहू के रूखेपन एवं तिरस्कार को महसूस कर लेती है
उसकी उपेक्षा भरी भौंहों की सिकुड़न को  
उसकी हर क्रियाओं से भाँप लेती है
गिरने से अथवा गिराकर प्याली टूटने के भेद को पढ़ लेती है
गिलास में दूध की ठंढी से क्रोध की ज्वाला नाप लेती है
थाली में रोटी की आवाज से नफरत की धुंध को थाह लेती है
चाय की मिठास से घर के सौहार्द्रपूर्ण वातावरण को पढ़ लेती है
लेकिन मेरी अभी जवान आँखें होती है 
जो माँ की नम आँखों को भी अनदेखा कर जाती है
मैं कितना बेबस , संकुचित और कृतघ्न हो गया हूँ
पत्नी की प्रेम-वासना में  कितना निमग्न हो गया हूँ
मैं शायद जानबूझ कर चेतना-शून्य हो जाता हूँ
माँ की मोतिया की झिल्ली के ऊपर सारा दोष मढ़ देता हूँ
और कह देता हूँ – माँ अरी  
तूं तो जस-की-तस कहाँ रही .

अमर नाथ ठाकुर , २ फरवरी ,२०१३ , कोलकाता .

संस्कार की कमजोरी


गगन घिरा हो मेघों से
तो घरों में हम छिपते ,
आंधी हो या तेज किरण
नहीं सीना पीठ हम तानते .
                क्यों ऐसा चलन है
                यही अब प्रचलन है.
सीमा में हम भौंकते
सीमा पार हम गिड़गिड़ाते
विपदा में हम पिघलते
खुशियों में हम दहाड़ते.
                 क्यों ऐसी रीति है
                 यही अब नीति है.
फाइलें       जब रूकती हैं
गिन-गिन नोट हम दिखाते ,
इमान कटाते , सत्य छिपाते
भ्रष्टाचार     हम  पनपाते .
                  ऐसी    क्या     मज़बूरी है
                  बहके संस्कार की कमजोरी है.

अमर नाथ ठाकुर , ७ फरवरी ,२०१३, कोलकाता .

अब की होली कौन खेले


लुटेरों की चांदी हुई  जाती
फूलती-खिलती  सीना-जोरी ,
सत का अब न  मोल रहा
विवश   हुई    ईमानदारी .

भ्रष्ट    कदम   सरपट भागे
रिश्वत बनी उन्नतशील सवारी ,
चौपट   ही  जब  राजा हुआ
अंधेर    हुई   सगर  नगरी .

कुत्सितों  के   संग  सजे ,
दुरात्कारियों   के रंग रंगे ,
फिर आतंक का भंग घुले ,
तो मन में क्या उमंग जगे .

उफान पर हो  जब गंगा-जमुना
जान  पर  खेल  कौन   हेले ,
आँगन में क्रंदन कर रही ललना
तो   अबकी  होली  कौन खेले .

अमर नाथ ठाकुर , १८ फरवरी , २०१३, कोलकता .

मैं हर पल जन्म नया लेता हूँ

 मैं हर पल जन्म लेता हूँ हर पल कुछ नया पाता हूँ हर पल कुछ नया खोता हूँ हर क्षण मृत्यु को वरण होता हूँ  मृत्यु के पहले जन्म का तय होना  मृत्य...