Sunday, 13 May 2018

जैसी बहे बयार पीठ तब तैसी कीजै


जैसी बहे बयार पीठ तब तैसी कीजै

मैं कूड़े के ढेर के पास खड़ा हूँ
सड़ांध आती है
यहाँ से खिसक जाने का मन करता है
यहाँ पहले भी जब आता था
बदबूदार हवा का झोंका आता था
और तुरत ही यहाँ से खिसक जाता था
अब खिसक कर एक कोने में आ गया हूँ
लेकिन यहाँ भी  भिनभिनाती मक्खियाँ आती हैं
कभी कन्धे पर बैठती है
कभी नाक पर बैठती है
और हर क्षण परेशान करती है
इसलिये फिर खिसक जाता हूँ
किन्तु इधर भी कूड़े का एक ढेर होता है
और वही सड़ांध , वही कीड़े , वही मक्खियाँ
और वही बदबूदार हवा
यहाँ भी साँस लेना मुश्किल है
खड़ा होना दूभर है ।
कहाँ-कहाँ खिसक कर जाऊँगा
कब तक खिसकता रहूँगा ।
इसलिये अब हमने एक तरीका सोचा है
अब हमने समझौता कर लिया है परिस्थिति से ।
अब मैं हमेशा कूड़े के बोझ लिए ही चलता हूँ
इसलिये कहीं भी खड़ा हो लेता हूँ
कहीं भी दोस्तों के साथ बात करने लगता हूँ
कहीं भी खड़े-खड़े चाय पी लेता हूँ
कोई भी परेशानी नहीं होती है
क्योंकि अब मेरी सोच कूड़े जैसी हो गयी है
बदबूदार सोच
सड़ांध सोच
अब मेरे जेहन में है, रग-रग में है ।
जैसी बहे बयार पीठ तब तैसी कीजै।

मुझे अब कोई परेशानी नहीं है ।

अमर नाथ ठाकुर , 28 अगस्त ,  2016  ,  मेरठ ।





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