बचपन के दिन थे
जब समझ थोड़ी थी
ज्ञान की पहुँच सीमित थी
तो साफ पता था
कि आप अपने थे
यह भी अपने थे
वह भी अपने थे
दुनियाँ में बहुतेरे अपने थे ।
आदर्श वाक्य था वसुधैव कुटुम्बकम ।
वर्षों बाद युवावस्था के दिन में
बहुत कुछ ज्ञान अर्जित कर चुके
तो जानने लग गए थे कि
आप भी अपने नहीं
यह भी अपने नहीं
वह तो पड़ोसी थे
जो अपने हो नहीं सकते
।
आज उमर की इस दहलीज़ पर
जब जानने को कुछ भी नहीं रह गया है
तो जानते हैं कि
स्वयं को भी नहीं जानते ।
मन क्या सोचता है
वाणी क्या निकलती है
कर्मेन्द्रियाँ क्या कर जाती हैं ।
यह ज्ञान है या अविश्वास !
अमर नाथ ठाकुर , 14 जनवरी , 2015 (20.07.2013)
, कोलकाता ।