Friday, 27 May 2016

दो खूँटियाँ


             --1--

मेरे कमरे की दीवार पर गड़ी है दो खूँटियाँ
बरबस ध्यान जाता है इन पर
उखाड़ फेंकने के ख्याल से इन पर पत्थर चलाया
फिर हथौड़ा चलाया
कुछ हिला पर उखड़ा नहीं
उखाड़ सकता हूँ पर प्लास्टर का एक हिस्सा निकल आएगा
और दीवार बदरंग दीखने लगेगा ।
चाहे कुर्सी पर बैठे हुए में
या बेड पर सोते समय हर-हमेशा यह ध्यान खींचता है
मेरे दिमाग की किरकिरी बन गयी ये दो खूँटियाँ ।
एक ख्याल आया --
एक में मैंने गणेश जी की प्रतिमा
और एक में घड़ी लटका दिया ।
एक के सामने सिर झुका कर खड़ा होता हूँ ,
और दूसरे के सामने सिर उठा कर देखता हूँ ।
इन दो खूँटियों ने मुझे बताया
सिर झुकाने से सिर उठाने के बीच का दर्शन ।

                          --2--

ऑफिस में भी समय की दो खूँटियाँ हैं
दश बजे पहुँचने के लिये और साढ़े पाँच तक रुकने के लिये ।
सभी कर्मचारी और अधिकारी गण इन दो खूँटियों से परेशान रहते हैं ।
अक्सर दश बजे के पास ऑफिस पहुँच जाता हूँ
उस समय करीब- करीब अकेला ही होता हूँ
कमरा खोलता हूँ , रोशनी के लिए बल्ब जलाता हूँ
ए सी ऑन करता हूँ
टेबुल पर से फाइलों को सरकाकर
लैप टॉप रखने का जगह बनाता हूँ ।
सफाई वाले का इंतज़ार किये बिना फाइलों में डूब जाता हूँ ।
घंटे भर बाद गहमा- गहमी शुरू हो जाती है
ऑफिस लोगों से भर जाता है
गप्पों और फोन कॉल की आवाज से एक खुशनुमा माहौल बनता है ।
ऑफिस टाइम खत्म होने के घंटा भर  पहले
 यह गहमा- गहमी खत्म - सी हो जाती है ।
साढ़े पाँच की खूंटी के पहले मैं अटका रहता हूँ
साढ़े पाँच बजे जब निकलता हूँ हॉल लगभग सुनसान - सा हो जाता है
इक्का-दुक्का कर्मचारी कोई अपना बैग बाँध रहा होता है
कोई अपने फाइल समेट रहा होता है ।
मैं ऑफिस की एक -सी स्थिति देखता हूँ
जैसा आते समय वैसा ही जाते समय ।
कर्मचारी गण इन खूँटियों के बीच ही रहते हैं--
पहली खूँटी के बाद आना और दूसरी खूँटी के पहले चला जाना ।
मैं भी इन खूँटियों को मानता हूँ --
पहली खूँटी पर आना और दूसरी पर जाना ।
ऑफिस का जीवन
इन दो खूँटियों के बीच का दर्शन ।


                      --3--

हर किसी के जीवन में दो खूँटियाँ होती हैं
हर किसी का जीवन इन्हीं दो खूँटियों के बीच उपलाता रहता है
एक खूँटी से दूसरी खूँटी तक ।
किसी को ये खूँटियाँ चुभती हैं
किसी को नहीं चुभती है ।
इन खूँटियों के पहले या
 इन खूँटियों के बाद का कोई मतलब नहीं होता ।
जन्म - मरण रूपी दो खूँटियाँ ।
जन्म के बाद से मरण के पहले तक ।
सुख और दुःख की दो खूँटियाँ
दिन और रात की दो खूँटियाँ
सूर्योदय और  सूर्यास्त की दो खूँटियाँ
धरती और आकाश की दो खूँटियाँ
होने और नहीं होने की खूँटियाँ ।
शुरू और अन्त की खूँटियाँ ।
सब कुछ इन्हीं दो खूँटियों के बीच समायी होती है ।
यही है इन दो खूँटियों का दर्शन ।


अमर नाथ ठाकुर , 26 मई , 2016 , कोलकाता ।








Monday, 23 May 2016

रोज होली है



कभी रोकर , कभी रुलाकर
कभी हँस कर , कभी हँसा कर
कभी तोड़ कर कभी जोड़ कर
रंग-बिरंगी बोल कर टरकाना


कभी रंग-बिरंगी बातें
कभी रंग - बिरंगी करामातें
फिर कभी रंग-बिरंगी कातिलाना फँसाना

कभी सच बोलकर
कभी झूठ बोलकर
कभी निभाना फिर कभी बरगलाना

कभी रंग-बिरंगी पोशाक में
कभी रंग-बिरंगी मुखाकृति में
कभी रंग-बिरंगी चाल चलना
फिर कभी दौड़ना फिर कभी रुक जाना

कभी साथ चलकर
कभी दूर-दूर हंट कर
कभी पुचकारना कभी दुत्कारना
कभी अपनाना फिर कभी छोड़ जाना

कभी रोग देना कभी दवा देना
कभी सजा देना कभी बिखरा देना
दिन होना फिर कभी रंग-बिरंगी रात हो जाना

कभी क्रमबद्ध कभी असम्बद्ध होना
कभी प्रतिबद्ध कभी पथ भ्रष्ट होना
कभी रंग का बदरंग होना
कभी बिना रंग का सब रंग होना

इस रंग-बिरंगी दुनियाँ में
लोगों की रंग-बिरंगी जिन्दगी
यहाँ तो रोज होली है
रंगों में सराबोर लोगों की बानगी ।


अमर नाथ ठाकुर , 14 मई , 2016 , कोलकाता ।

मैं हर पल जन्म नया लेता हूँ

 मैं हर पल जन्म लेता हूँ हर पल कुछ नया पाता हूँ हर पल कुछ नया खोता हूँ हर क्षण मृत्यु को वरण होता हूँ  मृत्यु के पहले जन्म का तय होना  मृत्य...