Saturday, 14 April 2012

दुखों का सुख क्यों न मिले

लंगड़े  की  सरपट  चाल  की   कामना
अंधे  की   दिव्य -ज्योति  की  साधना
गूंगे   की    अट्टहास   की       कल्पना
कनफुसकी पर बहरे का शुरू हो जाना

ये सब तुम करे , हे कृष्ण लले---


निर्धनों के धन में
भिखारियों के मन में
किन्तु मंदिरों के बाहर कण-कण में

तुम गगन के  ऊपर , गगन के भी तले--

दुखियों के क्रंदन  में
अपाहिजों के चरण  में
शबरी के जूठन में
घायलों के रक्त-रंजित घावन  में

हे हरे  !  तुम वहाँ   पले, तो फिर कैसे मिले --
क्षितिज का पीछा हम करें,  क्षितिज के पार तुम चले --

कष्टों का भी आनंद और दुखों का भी सुख
अतः क्यों न मिले , जहां तुम खिले -----------


अमर नाथ  ठाकुर , १४ अप्रैल , कोलकाता .



मैं हर पल जन्म नया लेता हूँ

 मैं हर पल जन्म लेता हूँ हर पल कुछ नया पाता हूँ हर पल कुछ नया खोता हूँ हर क्षण मृत्यु को वरण होता हूँ  मृत्यु के पहले जन्म का तय होना  मृत्य...