Tuesday, 2 November 2021

बिहार का चुनाव

 बिहार का चुनाव !


वर्षों का कांग्रेसी शासन।कांग्रेसी करते रहे और करते ही रह गये।पूरा न कर पाये।कुछ भी नहीं हुआ और बिहार कराहता रहा ।


कर्पूरी जी भी कुछ करना चाह रहे थे शायद समय ज्यादा न मिला।

एक दशक से ज्यादा उसी समय जातीय संघर्ष का दौर चला - बैकवर्ड-फॉरवर्ड की लड़ाई।जनजागरण जरूर हुआ होगा किन्तु बिहार की शिक्षा व्यवस्था चरमरा गयी। क़ानून-व्यवस्था का गिरता स्तर और बढ़ता भ्रष्टाचार बिहार का पर्याय हो गया।


फिर लालू का युग आया। इन्होंने ने तो जैसे ठान रखा था, कुछ नहीं करना है। और इन्होंने कुछ नहीं किया। बिहार रसातल में चला गया। यही दौर था जब गाली और बिहारी एक दूसरे के समानार्थी होने लग गये। लालू के फूहड़ सस्ते मजाकिये अंदाज ने स्तर और गिरा दिया। अपहरण एक फलता-फूलता व्यवसाय बन गया। 


फिर नीतीश का उदय होता है जब कि जनता ने काफी उम्मीदें पाली हुई थीं। कुछ काम बना। जनता ने साँसें लेनी शुरू कर दी थीं। क़ानून-व्यवस्था की हालत सुधरी ,अपहरण कम होने लगे । भ्रष्टाचार भी कम हुआ । सड़क और बिजली के क्षेत्र में भी काम होने  लगे। आंगनबाड़ी,शिक्षामित्र  आदि अनेक तरह की बहालियाँ हुईं। कुछ लाख शिक्षकों की भी बहाली हुई। गुणवत्ता में ये सब खरे नहीं थे । फिर भी इतने रोज़गार पाकर बिहार की जनता में नयी आशा का संचार हुआ। लोग जाति आधारित झगड़े फसाद को भूलने लग गये। किन्तु इन सबका सारा श्रेय नीतीश को ही नहीं दिया जा सकता है, उनके पीछे भारतीय जनता पार्टी का सशक्त समर्थन और सहयोग भी था ।


 किन्तु शिक्षा एवं स्वास्थ्य के क्षेत्र में तो जो भी हुआ उसे ऊँट के मुँह में जीरा समान कार्य ही कहा जा सकता है। 

जो हो बिहारियों की घर वापसी शुरू नहीं हुई और न ही बिहारियों का पलायन रुका। लगता है अभी प्रवासी बिहारी कुछ और देखकर आश्वस्त हो लेना चाहते थे। लेकिन बिहार के नसीब में अच्छे दिन नहीं लिखे थे। नीतीश और भाजपा  झगड़ पड़े। बिहार की जनता के हित में ये लड़ाई रोक सकते थे। लड़ाई किन्तु रुकी नहीं। बिहार का दुर्भाग्य जो था ।


 किसकी गलती थी गहराई में अभी नहीं जाना, किन्तु नीतीश का अहंकार जरूर परिलक्षित हुआ।


बिहार के विकास की पटरी उखड़ गयी थी । बिहार तेजी से नीचे की तरफ जाने लगा। नीतीश अपने धुर विरोधी कांग्रेसी और लालू के नजदीक आकर अपनी सरकार के स्थायित्व के लिये ज्यादा मेहनत करने लग गये। बिहार के विकास का एजेंडा गौण हो गया। राजनीतिक बयानबाजी तेज हो गयी।


नीतीश की गिरती लोकप्रियता का परिणाम यह हुआ कि अगले चुनाव में नीतीश पूरी तरह धराशायी हो चुके थे। नरेंद्र मोदी का भगवा झंडा आसमान में लहरा रहा था। नीतीश ने जनता की  नब्ज़ नहीं पहचानी । उसका अहंकारी मन पराजय को नहीं स्वीकार कर सका।


मांझी को मुख्यमंत्रीत्व सौंप कर एक अनूठा एवं आदर्श उदाहरण पेश करना चाहते थे, लेकिन उनके मन का मैल ऊपर आ गया। वह लालू और सोनिया स्टाइल में मांझी को हांकना चाहते थे। मांझी राबड़ी और मनमोहन से आगे निकले।फिर नीतीश ने अपना असली रंग दिखा ही दिया । नीतीश सत्ता पर फिर से कब्ज़ा कर बैठे। सत्ता का अतीव लालच नज़र आया जनता को नीतीश की कारगुज़ारियों में। 


नीतीश के द्वारा लालू का समर्थन लेना सबसे बड़ा पहलू बनता है नीतीश के कमज़ोर राजनीतिक चारित्रिक व्यक्तित्व का। जनता  लालू के जंगल राज को अभी पूरी तरह भूली  भी नहीं थी।जनता के अध पके घाव को नीतीश ने फिर से खरोंच लगा दिया था। स्राव होने लगा।


चुनाव के इस अंतिम चरण में जनता क्या यह समझती है ----


1. कांग्रेसियों के समय में  15 पैसे सरकारी पैसे जनता तक रिस - रिस कर आते थे । 

2. लालू के समय में जनता तक पैसे रिसने बंद हो गए थे।

3. नीतीश के समय में 25-30 पैसे तक जनता तक रिस कर आने लगे थे । 


तो जनता उसको क्यों न मौका दे जो पूरा का पूरा सौ पैसे जनता तक रिस कर आने देने का वादा करे। वैसे भरोसा क्या है ? जो किन्तु फेल हो गये उस पर फिर क्यों का भरोसा।


जनता को यह समझना होगा कि


1. कांग्रेस काम करती रही , करती ही रह गयी और कर ही नहीं सकी।इसलिए कुछ हुआ ही नहीं।

2. लालू ने करना ही नहीं चाहा और इसलिए कुछ नहीं हुआ।

3. नीतीश करना चाह रहे थे लेकिन कर ही नहीं सके।


इसलिए मौका उसे मिले जो अब नया हो , करना चाहता हो। और कोई च्वाइस भी तो नहीं है। बार - बार किसी आज़माए हुए को फिर क्यों आज़माऍं।


जय बिहार !

जय हिन्द !

अमर नाथ ठाकुर, 2 नवम्बर, 2015, कोलकाता ।

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