Sunday, 20 July 2014

निगम बोध घाट से




रे मन !  तू क्यों है शोकाकुल ?
क्या है पछतावा , क्यों है व्याकुल ?

जो कि आज यह  चला गया
कल वह भी चला जाएगा ।
कौन अपना  है  , कौन पराया है
यह दुनियाँ सच एक माया है
सच यह भी  , कहीं धूप कहीं छाया है ।

कल सिर्फ रिश्तों की परिकल्पना रह जाएगी
बीते पलों की हसीन यादें रह जाएंगी
यहअब नहीं मिलेंगे,
उलाहने भी नहीं पचाएंगे  
इनकी मुरादें फिर भी रह जाएंगी ।

आज वह हैं स्थिर अचेतन ,
समर्पित कर शरीर पुरातन । 
क्यों था इतना आनन-फानन ?
युवा तन भी हो जाता अकिंचन ।

हमारा बोझिल कंधा किन्तु चल रहा है
इस श्मशान में ये किसका झण्डा लहरा रहा है ?

हमेशा राम नाम सत होता है
एक दिन सबका यही गत होता है
काष्ठ – शय्या पर जब शरीरमत्त सोता है
फिर अग्नि की लपट और वैराग्य का लत होता है ।

तू जल - जल कर  मुस्कुरा रहा
मैं  तिल – तिल कर   भरमा रहा ।

जीवन – मरण की अबुझ पहेली
आज हमने निगम बोध घाट पर हल कर ली ।




अमर नाथ ठाकुर , 12 जुलाई , 2014 , निगम बोध घाट , नई दिल्ली ।      

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