रे मन ! तू क्यों है शोकाकुल ?
क्या है पछतावा , क्यों है व्याकुल ?
जो कि आज ‘यह’ चला गया
कल ‘वह’ भी चला जाएगा ।
कौन अपना है , कौन पराया है
यह दुनियाँ सच एक माया है
सच यह भी , कहीं धूप कहीं छाया है ।
कल सिर्फ रिश्तों की परिकल्पना
रह जाएगी
बीते पलों की हसीन यादें रह जाएंगी
‘यह’ अब नहीं मिलेंगे,
उलाहने भी नहीं पचाएंगे
इनकी मुरादें फिर भी रह जाएंगी
।
आज वह हैं स्थिर अचेतन ,
समर्पित कर शरीर पुरातन ।
क्यों था इतना आनन-फानन ?
युवा तन भी हो जाता अकिंचन ।
हमारा बोझिल कंधा किन्तु चल रहा
है
इस श्मशान में ये किसका झण्डा
लहरा रहा है ?
हमेशा राम नाम सत होता है
एक दिन सबका यही गत होता है
काष्ठ – शय्या पर जब ‘शरीर’ मत्त सोता है
फिर अग्नि की लपट और वैराग्य का
लत होता है ।
‘ तू ’ जल - जल कर मुस्कुरा
रहा
मैं तिल – तिल कर भरमा रहा
।
जीवन – मरण की अबुझ पहेली
आज हमने निगम बोध घाट पर हल कर
ली ।
अमर नाथ ठाकुर , 12 जुलाई , 2014 , निगम बोध घाट
, नई दिल्ली
।