Wednesday, 11 June 2014

एक दिन चला जाऊंगा : आत्मा की आवाज




खूब तुम मुझे गालियां दो
खूब तुम मुझे दुत्कारो
और खूब तुम मुझे उलाहने सुनाओ
मैं सब सुन लूँगा ।

लाख तुम मेरी निंदा करो
लाख तुम मेरी अवहेलना करो
और लाख तुम मेरा परित्याग करो
मैं विरक्त नहीं होऊँगा । 

लाख तुम मुझे चोर-ठग कहो 
लाख तुम मुझे लूटेरा समझो  
और लाख तुम मुझे व्यभिचारी बुलाओ 
मैं लक्ष्यहीन नहीं होऊँगा । 

खूब तुम मेरा गला दबाओ
खूब तुम मेरे ऊपर लात चलाओ
और खूब तुम मुझे मारो  
मैं सब स्वीकार करूंगा ।

खूब तुम मेरी कमीज़ फाड़ो
खूब तुम मेरे बाल नोंचो
और खूब तुम मेरे मुख पर कालिख पोतो
मैं और नज़दीक खड़ा हो जाऊंगा ।

खूब तुम मेरे ऊपर चीत्कार करो
खूब तुम मेरा  तिरस्कार करो
और खूब तुम मुझे अभिशप्त करो
मैं सब सहन कर लूँगा ।

खूब तुम मुझे अविश्वासी कहो
खूब तुम मुझे बेईमान कहो
और खूब तुम  मुझे पागल-शैतान कहो
मैं सब भूल जाऊंगा ।

खूब तुम मुझे भगोड़ा कहो
खूब तुम मुझे स्वार्थी कहो
और खूब तुम मुझे ढोंगी कहो
मैं ऐसा ही प्रतीत होऊंगा ।

खूब तुम मुझे आतंकी कहो
खूब तुम मुझे देशद्रोही कहो
और खूब तुम मुझे भ्रष्टाचारी कहो
मैं सब पचा जाऊंगा ।

खूब तुम मुझे आग लगाओ
खूब तुम मुझे पानी में डूबाओ
और खूब तुम मेरे ऊपर गँड़ासे चलाओ
मैं नहीं विमुख होऊंगा ।

खूब तुम मुझे गोलियों से भून डालो
खूब तुम मेरी बोटी-बोटी नोच डालो
मुझे खौलते झील में फेंक डालो
चाहे हिमालय की चोटी से गिरा डालो 
'मैं' अविच्छिन्न रहूँगा , ‘मैंनहीं मरूँगा । 

क्योंकि मैं ऐसा ही हूँ ।
मैं अजर-अमर अविनाशी हूँ ।
लोग मुझे नहीं समझ पाते हैं ।
ये गालियां , ये अपमान और ये मार
ये दुत्कार ,ये उलाहने और ये तिरस्कार
मुझे नहीं डिगाते
मुझे नहीं सताते
मुझे नहीं मालूम 'तुम' ऐसा करते हो
या  तुम्हारी आत्मा करती है  ?
जब मुझे यह पता हो जाएगा
तो उस दिन यह फैसले की घड़ी होगी
क्योंकि मेरी ड्यूटी उस दिन  
सुनने सहने खाने – पीने की पूरी हो जाएगी ।
मैं नूतन वस्त्र धारण करने चला जाऊंगा ।  
मैं एक दिन चला जाऊंगा सदा के लिए उस पार
जहाँ बसता है परमात्मा निराकार ।


अमर नाथ ठाकुर , 11 जून , 2014 , कोलकाता । 

Tuesday, 10 June 2014

भिखारी




आती-जाती बिजली से भी
भंग नहीं होता हुआ
घुप्प  अंधेरा
चोर , उचक्कों एवं जेब कतरों
का जहां हो  बसेरा
रात भर ऐसे प्लेटफॉर्म पर
रुपये , गहने एवं कपड़े की रक्षा में
वर्षों की कमाई की सुरक्षा में
असहाय निरुपाय जर्जर तन
बादलों की भांति बेचैन मन
उमड़-घुमड़ करता रहा  
नींद से लड़ता रहा
भय से आक्रांत
कंक्रीट के बेंच पर अशांत ।
इतने में कटी-फटी   धोती पहने
नंग-धड़ंग कंकाली कंधे से
पताके की तरह गमछी लहराए   
असंयमित मूँछों बिखरे बालों से सजे  
मटमैले फर्श के असीमित फैलाव के मज़े  
लेता वह टांगें पसार  लेट गया ।
मेरी तरफ ताकता
मंद-मंद मुस्कान उड़ेलता
सर्वस्व से था वह वंचित
व्यवस्था से जरूर रहा होगा कुपित ।
वह भिखारी
मेरी कुलीनता का मखौल उड़ाता
बेखौफ खर्राटे मारने लगा ।
सवेरे-सवेरे
सूरज के उगने से पहले
जग कर
मेरी बेवशी पर
टुकुर-टुकुर ताकते हुए
मुड़-मुड़ कर देखते हुए
हो गया विदा ,
अपने साथ लेकर
अपनी मुस्कान , अपनी निर्भयता
और अपनी नींद की संपदा ।
मैं घड़ी में समय का हिसाब लगाता रहा
अपनी गठरी को गिनते हुए
बटुए पर अपना भार बढ़ाते हुए
नींद से फिर लड़ते हुए
सूरज के उगने की इंतजारी में ।
किन्तु वह भिखारी मुझे उद्विग्न कर गया
सोचने के लिए मुझे विवश कर गया ...
सोता वही है जो बेखौफ रहता है ।
जीता वही है जो निर्लिप्त निर्विकार रहता है ।
हमारा जीना भी क्या जीना जो न तो सो पाता है
और न तो फटी जेब भर भी हँस पाता है ।


अमर नाथ ठाकुर , मई , 2014 , कोलकाता । 

क्या रह जाता है




जब माला से फूल बिखरने लगे
जब हार से मोती निकलने लगे
जब परिवार से सदस्य बिछुड़ने लगे
जब प्रेम-जीवन में गालियाँ चलने लगे
तो फिर क्या बच जाता है ?

विश्वास में शंका वास करने लगे
जब भक्ति में स्वार्थ दिखने लगे
जब प्रसाद में कंकड़ मिलने लगे
जब पके आम में कीड़े सहरने लगे
तो फिर क्या बच जाता है ?

जब स्कूल से बच्चे ही मुकरने लगे
जब संगीत के स्वर गायब होने लगे
जब गीत से लय जाने लगे
जब सितार के तार टूटने लगे
तो फिर क्या बच जाता है ?

जब किताब के पन्ने फटने लगे
जहाज के सम्मुख चट्टान मिलने लगे
जब खड्ड में सड़क विलीन होने लगे
पिंजड़ा खुल जाए और परिंदा उड़ने लगे
तो फिर क्या बच जाता है ?

जब आत्म-विश्वास ही डिगने लगे
घोड़ा दब जाए तोप से गोले दगने लगे
जब शरीर से प्राण –पखेरू उड़ने लगे
तो फिर क्या बच जाता है ?


अमर नाथ ठाकुर , 10 जून , 2014 , कोलकाता । 

मैं हर पल जन्म नया लेता हूँ

 मैं हर पल जन्म लेता हूँ हर पल कुछ नया पाता हूँ हर पल कुछ नया खोता हूँ हर क्षण मृत्यु को वरण होता हूँ  मृत्यु के पहले जन्म का तय होना  मृत्य...