Sunday, 10 October 2021

सनातन एवं इस्लाम धर्म की पारस्परिक ग्राह्यता एवं सौहार्द्र

 


15-16 साल पूर्व की एक घटना ने इस्लाम के बारे में कुछ अन्यथा सोचने के लिये मेरे अन्तर्मन को झकझोर दिया। एक दिन मेरे एक  समकक्ष मुस्लिम महिला ऑफिसर मित्र  के ऑफिस में बहुत जोरों का हंगामा चल रहा था। उनका घेराव हो रखा था। घेराव करने वाले ऑफिस के ही सारे स्टाफ और ऑफिसर थे। मुझे जैसे ही पता चला  मैं  उस महिला अधिकारी के बचाव में तुरन्त ही चला गया। चूँकि हम दोनों के ऑफिस एक ही बिल्डिंग में थे और एडमिनिस्ट्रेटिव हेड  और उस ऑफिसर के महिला होने की वजह से मैं वहाँ उनके बचाव में चला गया था। जाने के बाद पता चला कि मामला ऑफिसियल कम धार्मिक ज्यादा था। जब इन महिला अधिकारी ने यहाँ के ऑफिस में ज्वाइन किया था, पहले ही दिन काली और रामकृष्ण वाले कैलेन्डर को उतरवाकर  कमरे से बाहर ले जाने को कह दिया था। बाजार से ऐसा कैलेंडर मंगवाया गया जिस पर किसी देवी- देवता का फोटो न हो, इन्होंने एक चटाई भी खरीदवायी थी जिस पर ऑफिस में ही वो नमाज पढ़ती थी, शुक्रवार यानी जुम्मे के दिन सेकंड हाफ में ही ऑफिस आती थी अथवा ढाई-तीन घंटों के लिए ऑफिस से चली जाती थी पास के किसी नामी मस्जिद में जुम्मे की नमाज़ के लिये। इस तरह स्वयं ये महिला ऑफिसर ऑफिस आने जाने में एवम् अपने धार्मिक कार्यों में भरपूर स्वतंत्रता बरतती थी, लेकिन अपने ऑफिस में लेट आने वाले स्टाफ को ये मेमो थमा देती थी, उनको रजिस्टर में अनुपस्थित भी मार्क कर देती थी। उनका यह आचरण स्टाफ लोगों को बड़ा ही भेद- भाव पूर्ण लगा। अतः स्टाफ लोगों ने इनके धार्मिक रंग पर चोट करने की सोची और उन लोगों ने भी योजना के तहत मंगलवार या सोमवार या शनिवार को पहले हाफ में ऑफिस आना बंद कर दिया। महिला अधिकारी के पूछने पर स्टाफ लोगों ने भी कहना शुरू कर दिया कि वो लोग भी पूजा करने मन्दिर गये हुए थे। इस तरह इस महिला अधिकारी से स्टाफ लोगों का विरोध बढ़ने लगा था और धीरे-धीरे इस तरह झगड़ा इतना उग्र रूप ले चुका था कि आज का दिन उनके प्रतिक्रियात्मक घेराव में परिणत हो चुका था। घेराव मानसिक रूप से ऑफिसर के प्रताड़ना का जबरदस्त जरिया होता है बंगाल में। खैर, किसी  तरह  बात बनी और बड़ी जद्दो-जहद के बाद घेराव छूटा। महिला अधिकारी ने अपने एकतरफा क्रिया-कलाप से पैदा किये असन्तोष को बाद के समय में कम करने की जरूर कोशिश की, लेकिन कुछ ही दिनों में उनका कोलकाता से ट्रान्सफर हो गया था ।


मैं सोचने लगा। सनातनी तो मूल रूप से सहिष्णु होते हैं, प्रतिक्रियावादी नहीं होते, सनातनी तो उदार, सरल, अनुग्राही और समझौतापरक होते हैं। मैं  सनातनी उन मुस्लिम महिला अधिकारी की  कट्टरता की प्रतिक्रया में कट्टर नहीं हो सकता था,  इसलिए सिवाय अफ़सोस और नफरत के मुझे कुछ नहीं हुआ, जो सिर्फ अपने तक में ही सीमित रहा। लेकिन क्या हर हिन्दू सनातनी ऐसा ही रहेगा। मुमकिन नहीं है। कुछ इन सब घटनाओं से प्रतिक्रियावादी हिन्दू तैयार हो जाएंगे। वर्षों बाद आज जब हम उन घटनाओं की विषद विवेचना कर रहे हैं तो कश्मीर से निकाले गये कश्मीरी पंडितों का ख्याल आता है जब कश्मीर हिन्दू शून्य हो जाता है। पता करता हूँ, सुबह में और पाँचों वक्त जोर-जोर से अजान की ध्वनि कानों से टकरा कर क्या संदेश देती है? तमिलनाडु के उस मुस्लिम बहुसंख्यक गाँव की बात याद आ जाती है कि जो सुप्रीम कोर्ट तक चली जाती है कि उस गाँव में हिन्दू मन्दिरों में वार्षिक पूजा न हो और वार्षिक रथ यात्रा भी हिन्दू इसलिए न निकालें कि यह मुस्लिम बहु संख्यक गाँव है और इसलिये भी कि इस्लाम में मूर्ति पूजा की सख्त मनाही है। केरल के एक जिले में जब मुस्लिम आबादी आधी से ज्यादे हो जाती है तो वहाँ मुस्लिमों द्वारा सिर्फ मुस्लिम जिलाधिकारी की माँग होने लगती है। बंगाल, उत्तरप्रदेश और केरल जैसे राज्यों में मुस्लिम बहुसंख्य क्षेत्रों में हिन्दुओं की पूजा अर्चना पर इस सेकुलर देश में भी मनाही हो जाती है। पाकिस्तान में हिन्दूओं की आबादी आजादी के समय के 23 %  के मुकाबले  2-3 % पर आ गयी होती है। बांग्लादेश में भी हिन्दू आबादी 1947 की आजादी के बाद से करीब तिहाई से भी कम पर आ गयी होती है। अफगानिस्तान हिन्दू आबादी शून्य हो गया होता है। अधिकाँश मुस्लिम देश में इस्लामी शरिया कानून लागू है। अधिकाँश मुस्लिम देशों में मन्दिरों में पूजा की मनाही है। अफगानिस्तान में बुद्ध के ऐतिहासिक मूर्ति को तोड़ दिया जाता है। पाकिस्तान, बांग्लादेश जैसे देशों में आये दिन मन्दिरों में तोड़ - फोड़ होते ही रहते हैं, मुसलमान मूर्ति भंजक बन जाते हैं, हिन्दुओं का जबरन धर्म परिवर्त्तन, उनकी बच्चियों से जबरन शादी की बातें वहाँ आम होती हैं, जिस पर वहाँ की सरकार की तरफ से भी कोई ख़ास कार्रवाई नहीं होती है। अफजल गुरु की फाँसी के बाद उसके जनाजे में अपने यहाँ हजारों की भीड़ जमा हो जाती है, ओसामा बिन लादेन के समर्थन में नारे लग जाते हैं, अफगानिस्तान की तालिबानी सरकार के समर्थन में  आवाजें गूँजने लगती हैं। कहीं गजवा-ए-हिन्द का पाठ, कहीं लव-जेहाद, कहीं जबरन या कहीं लालच देकर धर्म परिवर्त्तन, कहीं मॉब लिंचिंग, तो कहीं घर वापसी आदि की सामाजिक ताने-बाने को बिगाड़ने की बातें आम हो रही होती हैं ।


बहु-संख्य-मुस्लिम समाज अल्प-संख्य इतर धार्मिक समुदाय को कभी नहीं स्वीकारता। इतिहास इसका गवाह है। ईरान, ईराक या अन्य सभी मुस्लिम देश इसके उदाहरण हैं। वर्त्तमान में अफगानिस्तान इसका उदाहरण हैं, पाकिस्तान, बांग्लादेश इसके उदाहरण बनते जा रहे हैं। कश्मीर से हिन्दू पण्डितों का निष्कासन इसका ताजा-ताजा ज्वलंत उदाहरण है। अतः कल्पना कीजिए 1947  में भारत का विभाजन नहीं हुआ होता तो अखंड भारत में 100 करोड़ हिन्दू के मुकाबले में करीब 65-70 करोड़ मुसलमान होते और ऐसी स्थिति में मार-काट, लूट-पाट, बलात्कार, धर्म-परिवर्त्तन, महिलाओं पर अत्याचार, महिलाओं का दिन-दहाड़े अपहरण आदि एक असह्य सीमा को पार कर गया होता (जैसा पाकिस्तान, बांग्लादेश में होता है, अफगानिस्तान में हुआ, कश्मीर में हुआ, उन आधारों पर कहना है), अधिकाँश भारत में शरिया कानून होता, पूरा देश बोको हराम, आइएसआइएस  एवं विभिन्न आतंकवादी मुस्लिम संगठनों की गिरफ्त में होता (आज दुनियाँ में 50 से ज्यादे खूँखार मुस्लिम आतंकवादी संगठन सक्रिय हैं)। आज भारत कई हिस्सों में नहीं बँटा होता तो 165-170 करोड़ आबादी वाला एक इस्लामिक राष्ट्र होता। सनातनी हिन्दू से सम्बन्धित किताबों में लिखी बातें लिखे तक ही सीमित रह गयी होती। धन्यवाद जिन्ना और नेहरु (यदि नेहरु भी 1947 के भारत विभाजन के लिए जिम्मेवार  साबित हो रहे हों) को जिसने भारत को 1947 में बांटा और उस समय सिर्फ 30-40 लाख के नरसंहार पर बात सीमित रह गयी, नहीं तो आज हमलोग (हिन्दू एवम मुस्लिम दोनों, ईसाई को भी जोड़ सकते हैं) कई-कई  करोड़ नरसंहार में कट रहे होते, और आज दुनियाँ अहिंसा, सहिष्णुता, मैत्री, भाईचारा जैसे सुसन्देश देने वाले सनातनियों के संग का सौभाग्य खो गये होते और वेद और उपनिषद, गीता और रामायण अमेरिकन और यूरोपियन विश्वविद्यालयों के  पाठ्यक्रम का सिर्फ हिस्सा होते, अयोध्या, मथुरा, काशी, कन्याकुमारी, पुरी, केदारनाथ, बद्रीनाथ, द्वारिका और दक्षिण के विलक्षण मंदिर सब इतिहास की बात होती, शायद उनके भग्नावशेष भी नहीं होते। इस क्रम में कुछ अच्छे-अच्छे इस्लामिक स्ट्रक्चर भी भग्नावशेष में बदल चुके होते। 


कहते हैं कि आतंक का कोई धर्म नहीं होता, लेकिन जब करीब-करीब सभी आतंकी एक ही धर्म वाले पाए जाते हैं तो लगता है यह सिद्धान्त गलत है। गलती कहाँ है? दोष कहाँ है? मुसलामानों के धर्म की हम निंदा नहीं करते और करना भी नहीं चाहिए क्योंकि किसी सनातनी के लिए यह सर्वमान्य बात है, लेकिन हम इस्लाम को लेकर सन्दिग्ध क्यों होने लगते हैं ?  हमारे हिन्दू धर्म में ही कालांतर में ढेर सारी बुराइयाँ आ गयी थीं/है, लेकिन  हिन्दू धर्म में लगातार सुधार होते रहे हैं, अभी भी चल रहे हैं। लेकिन हमें लगता है हिन्दू धर्म की तर्ज पर इस्लाम में भी रिफार्म की आवश्यकता है। उनके कुरआन मजीद के ऐसे आयत जो सीधे-सीधे नफरत या हिंसा या किसी भेद-भाव का संदेश देते हैं,  के अर्थ को उदारवादी बनाना होगा। जन्नत, काफिर,मुशरिक आदि शब्दों के गलत सन्देश प्रसारित करने वाले अर्थ को सर्वग्राही बनाना होगा । मदरसे में कुरान मजीद की शिक्षा पद्धति में आमूल परिवर्त्तन करना होगा। क्योंकि वहाँ "अल्लाह भगवान से अलग है , गैर मुस्लिम काफिर है और काफिरों को मारने में कोई बुराई नहीं, मूर्ति पूजा से घृणा, जन्नत में हूर मिलती हैं आदि"  विकृतियों से भरी शिक्षा दी जाती है और मुस्लिम बच्चों में कट्टरता जागती है। अल्लाह हिन्दुओं के भगवान अथवा ईसाईयों के गॉड से अलग अर्थ नहीं  रखता, ऐसा आम मुस्लिमों तक को बताना पड़ेगा। सनातनी किसी की पूजा पद्धति से घृणा नहीं करता फिर मुस्लिम ऐसा क्यों करता। इस्लाम बुत परस्ती से मना करता है लेकिन यदि बुत परस्तों से या हिन्दुओं की इस प्रथा से नफरत करना भी सिखाता है तो ऐसे इस्लाम की समझ को बदलना पड़ेगा, क्योंकि ऐसे में हिन्दू और मुस्लिम कैसे साथ रह सकते  हैं ? इसमें इस्लामिक स्कालर महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं । सूफ़ियों के संदेश किस तरह सर्वग्राह्य हैं, क्यों नहीं इन्हें आगे आते रहने चाहिये ?


ईश्वर सबके प्रति दयावान होता है, यह भेद-भाव नहीं कर सकता, ईश्वर सभी धर्मों से ऊपर है, धर्म ईश्वर पाने के रास्ते  हैं, इसलिए ईश्वर या वो सुप्रीम अथॉरिटी के अपने धर्म के अनुसार अलग नाम हो सकते हैं, लेकिन सभी सुप्रीम अथॉरिटी समान हैं, एक हैं । यही सन्देश सभी धर्म क्यों नहीं दे सकते ?  सनातन धर्म के बड़े-बड़े साधु सन्त इस बात को डंके की चोट पर कहते हैं । रामकृष्ण परमहंस क्या कहते थे ..... उन्होंने तो बहुत से धर्मों का अनुशीलन किया था और तब कहा .....कि इस्लाम, ईसाई आदि धर्मों के अनुशीलन के उपरान्त हमें  वही अनुभूति हुई जो सनातन धर्म को पालन करने के उपरान्त हुई ..... क्या ऐसा ही सन्देश दूसरे धर्म के धर्म गुरु देते हैं ? यदि नहीं तो फिर ऐसा करने की आवश्यकता है। ला इलाहा इल्लल्लाह ...... का अर्थ है अल्लाह के सिवा और कोई भगवान नहीं, लेकिन यदि मुसलमान इसका अर्थ यह समझे कि सिर्फ अल्लाह होते हैं और भगवान-वगवान, गॉड कुछ नहीं तो इस धारणा को मिटाना होगा, बदलना होगा। यदि ईसाई जीसस को, मुसलमान मुहम्मद को मानते हैं तो उन्हें राम, कृष्ण के अवतार होने को नकारने की प्रेरणा कहाँ से मिलती है ? यदि ऐसी बात या इस तरह के विभेदकारी चिंतन की धारा उनमें है तो इसे त्यागना ही होगा .....हमारा अल्लाह उनके भगवान् से ऊपर है या बेहतर है..... इस धारणा को बदलना ही होगा । अराबिक में अल्लाह जो है वही संस्कृत में भगवान है, अंग्रेजी में गॉड है । श्री रामकृष्ण कितने साधारण ढंग से इस बात को बता देते थे .... अक्वा  कहो, वाटर कहो, जल या पानी कहो सब एक ही चीज है सबका वही स्वाद है और सबका काम प्यास बुझाना ही है । जब आपका सामना इनसे होता है तभी आप समझते हैं ये सब एक हैं। अलग भाषा से यह सिर्फ सुनने में अलग लगता है, वस्तुतः अलग है नहीं । जिस दिन अल्लाह से, गॉड से, भगवान से सामना हो जाय तो पता चले कि ये सब एक ही है। हर धर्म के विद्वान्, ज्ञाता, ठेकेदार ऐसी ही व्याख्या करते हैं ? यदि नहीं तो उसका तिरस्कार करना चाहिये, बहिष्कार करना चाहिये। यदि कहें कि इस्लाम घृणा नहीं सिखाता तो फिर हिन्दुओं की मूर्ति पूजा से मुसलमान घृणा क्यों करते हैं ? मुस्लिम मूर्ति पूजा में विश्वास नहीं करते इसलिए उन्हें मूर्ति पूजकों से क्या नफरत की आजादी मिल जाती है ? बिलकुल नहीं । सिर्फ धर्म के मानने के आधार पर ईश्वर कभी भेदभाव, घृणा या मारकाट नहीं सिखाते। यदि ऐसा है तो ऐसी परिभाषा को बदलना ही होगा ।


सनातन धर्म का सन्देश  "वसुधैव कुटुम्बकम याने पूरी पृथ्वी ही परिवार है, सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामया, सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुखभागभवेत" में क्या कहीं कोई भेद-भाव का लेश मात्र भी कोई अर्थ छिपा हुआ है ? क्या ये उक्तियाँ कहती है कि सिर्फ सनातनी या हिन्दू ही सुखी हों, निरोगी  हों या सिर्फ उन्हीं का कल्याण हो,   बिलकुल नहीं . ... अहिंसा परमो धर्म: .... सत्यमेव जयते .... हर मंत्र के उपरान्त शान्ति, शान्ति, शांति : .... कहने की परम्परा सनातन धर्म को कितना महान बनाता है। दूसरे धर्म द्वारा भी इस तरह के सन्देश देने वाले वचन ग्रंथों से निकाल कर क्यों न प्रचारित किया  जाता ? सनातन धर्म के विभिन्न वेद  या उपनिषद जैसे ग्रंथों में इस तरह के वचन भरे पड़े हैं । जब सनातन धर्म की विशेषताओं को संग्रहीत करते हैं तो लगता है सनातन धर्म में कितना लचीलापन है, कितनी सहिष्णुता है, कितनी उदारता है, सबको अपने में समेट कर आत्मसात करने की कितनी क्षमता है। एक और सनातनी मंत्र को देखें...... ॐ सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु। सह वीर्यं करवावहै। तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै॥ ......उपनिषद के यह मंत्र अद्वितीय हैं। इस तरह के अर्थ और भाव वाले वचन शायद और किसी और धर्म के किसी ग्रन्थ में नहीं ।



सनातन धर्म में ही ईश्वर की अवधारणा के अनेक मत हैं ......  कोई राम को मानता है, कोई कृष्ण को, कोई शैव है, कोई शाक्त। कोई कबीर पंथी हो सकता है या नानक पंथी। कुछ ब्रह्म समाजी हो जाते हैं, कुछ आर्य समाजी। सनातनी एक साथ इनमें कई मतों को मान सकता है। लेकिन इनमें अब तो कम-से-कम लोग इन भिन्नताओं की वजह से नहीं लड़ते। सनातनी  अद्वैतवादी, द्वैतवादी या विशिष्टाद्वैतवादी में से कुछ भी हो सकता है। इसके लिये उनके ऊपर कोई भी बन्दिश नहीं है। सनातनी मूर्त्ति पूजक हो सकता है  या नहीं भी। वह मन्दिर पूजा के लिये जा सकता है या नहीं भी। वह  नाना प्रकार के पेड़ों, पक्षियों, जानवरों, नदियों, पहाड़ों की पूजा कर सकता है  या नहीं भी। वह  व्रत रख सकता है या नहीं भी। वह  मन्त्रों का जाप कर सकता है, नहीं भी। सनातनी  शाकाहारी हो सकता है  या माँसाहारी भी। वह  नाना प्रकार के जानवरों का माँस खा सकता है। वह नाना प्रकार की मछलियाँ भी खा सकता है। इस तरह की सोच वाले सनातनियों को समाज वाले  या सनातनी धर्म के ठेकेदार समाज या धर्म से निष्कासित या बहिष्कृत नहीं करते  या इस वजह से कभी कोई धमकी भी नहीं  देते।



सनातनी अपनी इच्छा से  मन्दिर जा सकता है, मज़ार, मस्ज़िद, गुरुद्वारे में या चर्च में जाकर ईश्वर की वन्दना कर सकता  है। उसे माथे पर रुमाल बाँधने या जाली दार टोपी लगाने में ज़रा भी हिचक नहीं होती। वह  धोती या लूँगी या पतलून बेहिचक धारण कर लेता है। इन धार्मिक स्थलों में, इन अजीबोगरीब पोशाकों में उसे  ईश्वर के प्रति निष्ठा या श्रद्धा दर्शाने में कोई संकोच नहीं होता। उसका सनातन धर्म कभी इसमें बाधक नहीं होता। उसे सिख, जैन, बौद्ध, मुस्लिम, पारसी, यहूदी या ईसाई धर्मावलंबियों से कोई परहेज़ नहीं। इन सबों से सनातनी परम्परा ने कभी घृणा या द्वेष नहीं सिखाया। सनातनी  रामकृष्ण को, साईं बाबा को समान दृष्टि से पूजता है। वह  चर्च में जाकर क्राइस्ट के सामने सर नवा कर आ जाता है, वह  किसी सूफी की मजार पर अपनी  इच्छा पूर्ति के लिये चादर चढ़ा चला जाता है। सनातनी  परम्परा, धर्म, संस्कृति ऐसा करने को प्रेरित करते हैं। सनातनी अपने व्यवहार से दूसरे के धर्म ग्रंथों को न पढ़ते हुए भी एक आदर्श प्रतिस्थापित करता है। इस तरह के  सदआचरण  आम भटके हुए मुस्लिमों या ईसाईयों में देखने को नहीं मिलते। सनातनियों की किसी कड़े धार्मिक क्रिया-कलापों से दूर रहने के स्वभाव को या ऐसी कोई पाबन्दी नहीं होने को ईसाई या इस्लाम मानने वाले अपने धर्म की संकीर्ण व्याख्या या अपने धर्म के उद्धरणों से इस स्थिति को प्रतिकूल दृष्टि से देखते हैं। इस तरह देखा गया है कि अपने धर्म ग्रंथों की व्याख्या का सहारा लेकर नफ़रत या घृणा या दूरत्व का संकेत ईसाईयों या मुस्लिमों से मिलता है  न कि हिन्दुओं सनातनियों से। आम धारणा है कि इस्लाम में लचीलापन का एकदम अभाव है। इस्लाम में प्रवेश का प्रावधान तो है, किन्तु यहाँ से निकलना असम्भव है। इस्लाम में  कट्टरता चरम पर है। इस्लाम से निकलने की इच्छा करने वाले मौत के घाट उतार दिए जाते हैं। यहाँ ईश-निन्दा बहुत बड़ा अपराध है, जबकि सनातनी अपने ईश्वर प्रतीकों पर एक से एक चुटकुले तक बोल लेते हैं।  इस्लामी शरिया कानून चौराहे पर पत्थर से, कोड़े से मारने की सजा देता है, हाथ काटने की सजा का अभी भी प्रावधान है, जो अमानवीयता की पराकाष्ठा है। महिलायें दोयम दर्जे का व्यवहार पाती हैं। देश के संविधान से ऊपर अपने कुरानिक या शरिया कानून को रखने की बात करते हैं। सबसे बड़ी समस्या है कि वहाँ कोई विरोध के स्वर नहीं उठते। इसमें वहाँ के विशिष्ट पढ़े -लिखे और वहाँ के उदारवादी विद्वान् भी कोई विरोधी प्रतिक्रिया नहीं देते या दे सकते। ऐसे लोगों पर तुरन्त ही फतवा जारी कर दिया जाता है। वसीम रिजवी या आरिफ मुहम्मद खान जैसे मुखर व्यक्तित्व वालों का यही हाल है। इस्लाम में आन्तरिक लोकतंत्र नहीं है। कुरआन की आयतें पत्थर की लकीर है। इससे इतर ये नहीं सोचते। तर्क वितर्क के लिए कोई स्थान नहीं यहाँ। अल्लाह के वचन जिब्रील के द्वारा पैगम्बर मुहम्मद साहब को सुनाया गया जिसे किसी और ने लिपि बद्ध किया। यहाँ सवाल उठता है कि इसे लिपि बद्ध किये जाते समय क्या कोई मिलावट नहीं हुई ? कुरआन मजीद में २६ ऐसी आयतें  हैं जिस पर सवाल उठता है कि ये भेदभाव और हिंसा को बढ़ावा देता है, इसलिए ये  आयत कुरआन के नहीं हो सकते क्योंकि ईश्वर या अल्लाह हिंसा या भेद भाव का आदेश  साधारण स्थितियों में क्यों देगा। सर्व साधारण मुसलमान कुरान मजीद की आयतों का सर्व साधारण अर्थ लेते हैं और भेदभाव और हिंसा की बातों को कुरान सम्मत बता देते हैं। अधिकाँश मुस्लिम देशों में हिंसा व्याप्त है और हिंसा करनेवाले ये आतंकवादी इन हिंसा को कुरआन सम्मत बता न्यायोचित ठहराते हैं। हिंसा का महिमा मंडन सिर्फ इस्लाम में ही देखने को मिलता है। मुस्लिम देशों में या अपने देश में मदरसों में शायद यही तथाकथित शिक्षा दी जाती है, जैसा सुनने को मिलता है, जो बच्चों को कट्टर बना देती है।



सनातनी या हिन्दू धर्म घृणा या हिंसा का कभी महिमा-मण्डन नहीं करता। आपने सुना है लोग अपने बच्चे का नाम रावण, कंस या दुर्योधन, सुरसा, शूर्पणखा रखते हैं ? जाति-प्रथा या स्त्रियों के सम्बन्ध में आपत्ति जनक बातों के उल्लेख वाले धार्मिक ग्रंथों के हिस्सों को सनातनी हिन्दूओं ने तहे दिल से नकारा है, तिरस्कृत किया है। ज्यादेतर आपत्ति जनक बातें तो धार्मिक ग्रंथों के गलत अनुवाद अथवा गलत भावार्थ से आयी हैं। कहीं कहीं धर्म ग्रंथों में मिलावट के भी सबूत मिले हैं जो विभेदकारी संदेश देते हैं। यदि यह कहीं पायी भी गयी हैं तो  इन शास्त्रीय खण्डों की खुले आम निन्दा होती है। ऐसी निन्दा या आलोचना पर कभी कोई रोक या धमकी की उद्घोषणा नहीं होती है। हमारी सीमित जानकारी में  सनातन धर्म में जिहाद, फतवा या काफ़िर या तलाक़ जैसे शब्दों का समतुल्य शब्द नहीं। यदि ऐसा हो तो उसे नकारने या त्यागने में भी कोई भी प्रतिरोध नहीं। जो सबका है वह सनातन धर्म है। जो सबको स्वीकारता है वह सनातन धर्म है। जो आज़ादी देता है, जहाँ बंधन नहीं, भेद-भाव नहीं, घृणा या द्वेष नहीं जो सिर्फ प्रेम, विश्वास और जन कल्याण  का पाठ फैलाता है वह सनातन धर्म है। सनातनी यह कहना पसंद करते हैं कि जहाँ प्रेम और करुणा, विश्वास, आज़ादी, श्रद्धा और निष्ठा, सहिष्णुता इत्यादि का वास हो वहीं सनातन धर्म है ।




अतः सिर्फ सनातन हिन्दू धर्म ही सार्वभौमिकता की कसौटी पर खरा उतरता दीखता है। सनातन हिन्दू धर्म में दुनियाँ की अन्य सारी धार्मिक मान्यताओं को आत्मसात करने की क्षमता रखता है । इसका कारण है कि बौद्ध, जैन, ईसाई, इस्लाम आदि सनातन हिन्दू धर्म से ही कालान्तर में निकले हुए हैं। सन्ततियाँ अलग हो सकती हैं किन्तु माँ  - बाप उसे हमेशा स्वीकार लेते हैं। देवी दुर्गा की एक प्रसिद्ध प्रार्थना का एक अंश कि 'कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति'  उल्लेख किये  बिना नहीं रह सकते । 


इसलिए सिर्फ पूजा पद्धति बदलने से क्या हमें बदल जाने चाहिये  या हमारे मानव-मूल्य बदल जाने चाहिये ? नहीं, बिलकुल नहीं। इसलिए किसी सनातनी के घर में किसी मजार के या मक्का मदीना या यरूशलेम के फोटो वाले कैलेन्डर लगा दें उनको कोई दिक्कत नहीं होती। लेकिन इस्लाम या ईसाई धर्म को मानने वाले को दिक्कत हो जाती है। सनातनी के एक ही घर में कोई मूर्ति पूजक होता है कोई आर्य समाजी होता है कोई फर्क नहीं पड़ता। आप मूर्ति पूजक नहीं हो सकते लेकिन मूर्ति से नफरत वाले क्यों हो सकते हैं ? आप अजान सुन सकते हैं तो आरती, भजन या रामायण की पंक्तियाँ क्यों नहीं सुन सकते। यदि कोई हिन्दू ईद मिलन समारोह मना सकता है, इफ्तार की पार्टी रख सकता है, ताजिये के जुलुस में शामिल हो सकता है तो कोई मुस्लिम दीवाली के पटाखे क्यों नहीं उड़ा सकता, होली का रंग या गुलाल अपने ऊपर क्यों न पड़ने दे सकता ? यदि कोई मुस्लिम मूर्ति पूजक नहीं तो भंजक क्यों हो ? धार्मिक रीति रिवाजों के लिए किसी को कोई घृणा या गुस्सा क्यों हो ? किसी का भगवान यदि इस प्रकार के घृणा या क्रोध सिखाता है तो क्या वो भगवान् हो सकता है ? बिलकुल नहीं ।


सनातनी यदि गाय को पूजते हैं तो मुस्लिम या ईसाई उसे सम्मान करे । हिन्दुओं को भी सूअरों को मुसलामानों के धार्मिक भावना के हिसाब से उनके इलाके से दूर रखना चाहिये। निरामिष खाने के मामले में हमलोग भी एक दूसरे की  धार्मिक भावना का  आदर करें। एक दूसरे के धार्मिक ग्रंथों को पढ़ें, एक दूसरे के संतों को सुनें। संतों को भी चाहिये कि जो  सन्देश  हम अपने समुदाय में बाँट रहे हैं कहीं वो दूसरे समुदाय के लिए घृणा या हिंसा का वाहक तो नहीं। यही सबसे बड़ा तरीका होगा जिससे कि हमारे धार्मिक ग्रन्थ संदेह के घेरे में नहीं आएँगे और हमारे सभी पक्षों के सन्त भी श्रद्धा से सुने जाएँगे । यहाँ एक बात उल्लेख किये बिना चर्चा अधूरी रह जाएगी। सनातन धर्म के जैसा लचीलापन और सर्व ग्राह्यता क्या इस्लाम में है ? यदि हमारे जैसे गैर मुस्लिमों के मन में ऐसी शंका है तो मुस्लिम ऐसे लचीले और सर्व ग्राह्य उदाहरण क्यों नहीं प्रस्तुत करते ? उल्टे हलाल खाने के मामले में गैर सनातनियों के ऊपर इस्लामी हलाल खाना होटलों में, हवाई जहाज़ों आदि जगहों पर परोसने को विवश किया जाता है । आजकल तो थूके हुए खाने  मुस्लिम होटलों में या मुस्लिम रसोइयों के द्वारा परोसे जाने का मामला खूब प्रचारित हो रहा है। एक तरफ तो यह हदीथ द्वारा मुस्लिमों का पवित्र हलाल भोजन इस प्रक्रिया को करके पूरा होता है, दूसरी तरफ हिन्दू इसे सख्ती से अस्वीकारते हैं। यदि इन सब मामलों में कोई सामंजस्य नहीं बनता तो क्या हिन्दुओं के और मुस्लिमों के होटल और फलों- सब्जियों के दुकान एकदम अलग हो जाएँगे। ये हमारी अर्थ व्यवस्था को ही नहीं हानि पहुँचाएगा बल्कि धार्मिक समभाव और समरसता के ऊपर भी बहुत बड़ा धक्का होगा। इन सब वजहों से समाज बंटता जा रहा है, जो दुःखद है।


मेरे कहने का यह अभिप्राय न लिया जाय कि सारे मुसलमान या ईसाई भेद-भाव पैदा करने वाले होते हैं । मुझे याद है मेरे एक मुस्लिम दोस्त ने मुझे उस समय कुरआन मजीद दी थी जब गैर मुस्लिमों के लिए कुछ दशक पहले कुरआन किसी दुकान में खरीदना एक असम्भव-सा काम होता था। उस दोस्त ने मुझे एक विशेष दुकान का कबाब  खाने  से रोक दिया था यह कहकर कि वो दुकान भरोसे का नहीं था और मैं बीफ नहीं खाने वाला सनातनी जो ठहरा । आज भी इस्लाम या हिन्दू धर्म पर हम दोनों खुलकर बात करते हैं और सन्देशों का खुलकर आदान-प्रदान करते हैं। कुछ मुस्लिम मित्र तो मुझे अक्सर दुर्गा, सरस्वती, शिव या गणेश आदि  देवी- देवताओं वाले फोटो के साथ सुप्रभात नमस्कार भेजते हैं ।


सनातनियों में अधिकाँश सहिष्णु हैं, गलत के विरुद्ध आवाज उठाते हैं, लिखते हैं, लेकिन क्या इस्लाम मानने वालों में ऐसा है ? नहीं। वहाँ उल्टी बातें हैं । इस्लाम में गलत के विरुद्ध आवाज नहीं निकलती, वो लिख नहीं सकते। डरते हैं सर कलम कर दिए जाने से, फतवे से। अधिकाँश सनातनी सर्व समावेशी हैं, सहिष्णु हैं, दूसरे के धर्म को सम्मान देते हैं, उनकी पूजा पद्धति का सम्मान करते हैं, अल्लाह, ईश्वर, गॉड को एक मानते हैं, महिलाओं को सम्मान देते हैं, समान अधिकार देते हैं । लेकिन  इसके ठीक उलट इस्लाम में ऐसा  नहीं, अधिकाँश उलट अवधारणाओं वाले हैं। सनातनी देश हित के मामले में संविधान को उच्चता देते हैं, लेकिन इस्लाम मानने वाले शरिया को उच्चता प्रदान करते हैं, अरब देशों की परम्पराओं को अपना आदर्श मानने लगते हैं, भारत की प्राचीन सभ्यता और संस्कृति को निकृष्ट दृष्टि से देखते हैं। 100 करोड़ से ज्यादे सनातनी अपनी हजारों लाखों वर्षों की सभ्यता और संस्कृति  का अपमान कैसे स्वीकार कर सकते हैं। इस्लाम में अधिसंख्य आबादी कठ मुल्लाओं की गिरफ्त में है, जो कुरान-शरीफ की व्याख्या में दूसरे धर्म के लोगों का ख्याल ही नहीं करते, मदरसों के द्वारा कुरआन की असंतुलित शिक्षा देते हैं, जबकि सनातनियों की धार्मिक किताबों में दूसरे धर्म के सिद्धान्तों के इतर कोई विद्वेष पूर्ण बात ही नहीं लिखी हुई है तथा यहाँ पंडित, संत या विद्वान् इस तरह का कोई अर्थ या भाव भी प्रचारित नहीं करते । 


सुकर्णो विदाई के समय नेहरु से पवित्र गंगा जल की मांग करते हैं और कहते हैं उन्होंने अपनी पूजा पद्धति बदली है अपने पूर्वजों को नहीं छोड़ा है। वाजपेयी जी भी इण्डोनेशियाई लोगों की इसी भावना का अपने भाषण में उल्लेख करते हैं जब उनके इण्डोनेशियाई समकक्ष वाजपेयी जी को इंडोनेशिया की रामलीला के मंचन के समय यही बात दुहराते हैं। इण्डोनेशियाई मुस्लिमों के अपने हिन्दू पूर्वजों के प्रति श्रद्धा हमें भारतीय सनातनियों को ओत-प्रोत कर देते हैं। इण्डोनेशियाई एयरलाइंस का नाम गरुड़ होना, वहाँ के रुपये पर गणेश की छवि होना इस्लामी  इंडोनेशिया हमें बहुत कुछ सिखाता है।  क्या हमारे यहाँ के मुस्लिम के लिए ये आचरण आदर्श बन सकते हैं ? 


हमारा मानना है कि सनातनी या हिन्दू धर्म के मानने वाले जहाँ भी दूसरे धर्म वालों पर हिंसा या अत्याचार में पाए गये हैं वह उनकी प्रतिक्रियात्मक कार्रवाई होती है जो गन्दी राजनीति से प्रेरित और विद्वेषपूर्ण और असामाजिक तत्वों के द्वारा की गयी होती  है, यह इस्लामी कट्टरवाद की प्रतिक्रया में एक नयी अवधारणा की तरह पैदा हो रही है, और परिणाम स्वरूप कहीं-कहीं लिंचिंग की घटनाएँ भी प्रकाश में आयी हैं, जिसकी हिन्दुओं के द्वारा घोर निन्दा की जानी चाहिये और की भी जाती है। सनातनी धर्म ग्रंथों या संतों का इसमें हाथ नहीं होता है । हाँ, कुछ फर्जी भगवा धारी इसके अपवाद हो सकते हैं, लेकिन ऐसे लोगों की संख्या बहुत-बहुत ही कम है। यहाँ अपने मित्र के साथ मेरठ में घटी सच्ची घटना का जिक्र किये बिना नहीं रह सकता । मेरा एक मुस्लिम सहयोगी किन्तु मित्र कई सप्ताह तक हिन्दू बाहुल्य इलाके में भाड़े का घर नहीं ढूंढ़ पाया क्योंकि इसके मुस्लिम होने से इन्हें कोई अपना भाड़ेदार बनाना ही नहीं चाहता था। अपने बच्चे की अच्छे स्कूल में पढ़ाई के लिए इसे पास के आवासीय इलाके में घर तो चाहिये ही था और ये पास का इलाका हिन्दू इलाका था, जहाँ लोग मुस्लिमों को घर नहीं देते थे। कमोवेश पूरे भारत वर्ष में ऐसी ही स्थिति है। हिन्दू मुस्लिम इलाके में नहीं रहेंगे और मुस्लिम हिन्दू इलाके में नहीं रहेंगे और यदि ये दूसरे के इलाके में रहना भी चाहेंगे तो लोग उन्हें घर देंगे नहीं।

 हिन्दुओं के प्रतिक्रियावाद मुस्लिमों के कट्टरवाद के विरोध में तेज़ी से पनप रहे हैं। कारण कुछ उदाहरण से समझना होगा। मुस्लिम लड़के हिन्दू लड़की से शादी करें तो हिन्दू लड़की अधिकांश मामले में मुस्लिम बनने के लिए विवश कर दी जाती है। कई-कई बार तो मुस्लिम लड़की हिन्दू लड़के को भी मुस्लिम बना देती है शादी के लिए। बहुत सारे मामले आ रहे हैं जबकि मुस्लिम लड़की हिन्दू लड़के से शादी के लिए उनके परिवार वालों के विरोध में रुक जाती है या हिन्दू लड़के हिंसा का शिकार होते हैं। हिन्दू लड़कियों के परिवार वाले अपनी बेटियों का मुस्लिम धर्म स्वीकारने की बात को भी ज्यादे आसानी से स्वीकार कर लेते हैं। हिन्दू ज्यादे हिंसा पर उतारू नहीं होते। लेकिन समय बीतने पर मुस्लिमों के हिंसा की प्रतिक्रिया में हिन्दू भी प्रतिक्रियावादी होते जा रहे हैं। मुस्लिम हिन्दू मन्दिर या सिखों के गुरुद्वारे में नमाज पढ़ते पाए गए हैं, हिंदुओं तथा सिखों से उनमें उन्हें सद्भावपूर्ण सहायता भी मिलती रही है। इसके विपरीत मुस्लिम मस्जिद में  हिन्दू भजन कीर्तन के लिए कभी भी तैयार नहीं होते । ईद, बकरीद में हिन्दू मुस्लिमों के सेवइयां, कुर्बानी के बकरे के मांस को स्वीकार लेते हैं, लेकिन इसके विपरीत हिंदुओं के भगवान के पूजा प्रसाद मुस्लिमों को स्वीकार्य नहीं होते, गुरुद्वारे में मुस्लिम लंगर में नहीं खाते। हिन्दू हलाल मांस खाते पाए गए हैं जबकि हिंदुओं के घर मुस्लिम झटका माँस नहीं स्वीकारते। मुस्लिमों का दीन उन्हें ऐसा करने से रोकता है, यह उनका तर्क होता है। मुस्लिमों की कट्टरता से हिंदुओं की सहिष्णु, समझौतापरक, अनुग्राही, सरल और उदारवादी सोच धक्का खाती है और विरोध का स्वतः स्फूर्त स्वर फूट पड़ता है। मुस्लिमों के द्वारा सड़कों पर, स्टेशन, प्लेटफार्म, पार्कों पर नमाज पढ़ना सर्व साधारण हिन्दू को परेशान करता है, हिन्दू भी प्रतिक्रिया में सड़कों और पार्कों पर भजन कीर्त्तन करने लगे हैं, जो पहले ये कभी भी करते नहीं देखे गये। सबेरे-सबेरे अजान की ध्वनि जो कर्ण प्रिय लगती थी अब कटु लगने लगी है और हिन्दुओं का विरोध स्वर कई शहरों में उठने लगा है।


 तुष्टीकरण की राजनीति ने वोट पॉलिटिक्स को बढ़ावा देकर भारतीय समाज को बहुत ही घायल किया है। सेकुलरिज्म की विकृत परिभाषा से भी समाज को काफी हानि पहुँचती है। हम सब भारतीयों का एक ही डीएनए है याने हमारे पूर्वज एक ही थे, इस बात में बहुत ही दम  मालूम पड़ता है। यह  सभी  समुदायों में एकता के लिए बहुत ही अकाट्य  तर्क है। इसको यदि सभी समझने लग जाएँ तो फिर झगड़ा बहुत ही कम हो जाय क्योंकि कोई फिर क्यों अपने पूर्वजों को गाली दे। कुछ मुस्लिम तो सिर्फ तीन चार पाँच पीढ़ी पहले ही मुस्लिम में कन्वर्ट हुए हैं, क्या वो अपने दादा- परदादा या नाना-परनाना या दादी-परदादी या नानी- परनानी को गाली देंगे ?  बिलकुल नहीं। इस तर्क से फिर वो आततायी औरंगजेब या बाबर या खिलजी या लूटेरे तैमुर इत्यादि का कभी भी महिमा-मंडन नहीं करेंगे जिन्होंने भारतीय सनातन समाज को बेहद प्रताड़ित किया। यह नफरत की दीवार को कम करेगी। इतिहास लिखने वालों ने भी बहुत बड़ा नट  खेल किया है, विकृत इतिहास को परोसकर भारतीय समाज का बहुत बड़ा अपकार किया है। ये वामपंथियों की या अंग्रेजी मानसिकता वालों की कारगुजारी हो सकती है। इतिहास को ठीक करने का काम इसलिए सावधानी से करना होगा क्योंकि आज तक जो इस्लामिक इतिहास पढ़ते आ रहे थे उसे बदलना, लोगों की स्मृति से हँटाकर कुछ दूसरा परोसना लोगों की स्वीकृति की सीमा की परीक्षा होगी, जो एक महती दुष्कर काम होगा और भारतीयों की सोच को बदलने में कई दशक लग जाएँगे ।

 हमें ऐसे परिवर्त्तन का इन्तजार रहेगा ।


अमर नाथ ठाकुर ,१० अक्तूबर ,२०२१, कोलकाता ।

मैं हर पल जन्म नया लेता हूँ

 मैं हर पल जन्म लेता हूँ हर पल कुछ नया पाता हूँ हर पल कुछ नया खोता हूँ हर क्षण मृत्यु को वरण होता हूँ  मृत्यु के पहले जन्म का तय होना  मृत्य...