Monday, 19 October 2015

होली



होली तूँ कितनी भोली
लाल पीली हरी नीली

पत्नी हो या कि शाली
या हो कोई बाहरवाली
साधु हो या कि मवाली
जब फाग मधुर गावे 
सब एक नज़र आवे 
भेद-भाव की दीवार मिटे
बिखरते रिश्तों की दरार पटे 
कीचड़ सनी गली हो या हो पथ कंकरीली
हर जगह मौजूद  होली भाई होली 

उड़े जब अबीर और गुलाल
कर दे सब को रंगे हाल 
रंगों से तब  तन खाली 
दुर्विचार से  मन भारी 
रंग - धन की  जब वर्षा चली
फिर क्यों हो  कहीँ कोई कंगाली
चारों ओर होली की खुशियाली ।
होली की खुशियाली

अमर नाथ ठाकुर 21.03.2008 कोलकाता

अपनी घर वाली



पीला-पीला सरसों
पीली -पीली पकी गेहूँ की बाली
लाल-लाल फूलों वाले टेशू के पेड़ों की धारी
याद कराती सिंदूरी बिन्दिया वाली
शादी वाली नयी नवेली
पीली पीली चुनरी वाली
हल्दी रंगी हथेली वाली
लाल- लाल होंठों वाली
अपनी ही घर वाली ।

काले-काले बादलों की उमड़-घुमड़
कभी चमकती बिजली
कभी गरजती 
कभी कड़कती कभी बरसती 
याद दिलाती
कजरारी नयनों वाली
घुँघराले बालों वाली
पल  में अश्रु बहानेवाली 
कटु शब्द-वाण चलाने वाली
जैसे अपनी ही घर वाली ।

नव पल्लव नव मंजर-सी प्यारी
हरीतिमा की चादर वाली न्यारी
दूर -दूर खेतों तक फैली हरियाली
मंद बयार में भी झूमती इठलाती
पौधों की पतली-पतली चंचल डाली
याद दिलाती
झील किनारे नौका एक खड़ी-सी 
जहाँ मुक्त हस्त आमंत्रण बाँटती-सी 
थिरकती लहराती नीले आँचल वाली
एक युवती परी मुस्कराती - सी
जैसे फिर अपनी ही घर वाली ।


अमर नाथ ठाकुर 12.09.2015 कोलकाता ।

मैं हर पल जन्म नया लेता हूँ

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