आज बौकी की बड़ी फजीहत हो रही थी . लोग उसके ऊपर थू - थू कर रहे थे लेकिन वह चुप - चाप हाथ में लाठी लिए अपने भैया के घायल शरीर के पास खड़ा था . एक झोला छाप डाकटर उसके बड़े भाई शुकदेव के सिर में पट्टी बाँध रहा था. बीस - पच्चीस लोग आस - पास में खड़े झाँव - झाँव कर रहे थे . मैं बगल से गुजर रहा था . भीड़ देखकर रुक गया था . बौकी से जैसे ही नजर मिली वह कुछ लज्जित - सा किंकर्तव्यविमूढ़ - सा महसूस करने लगा . जब तक मैं लोगों से पूछूँ और कारण जानूँ कि ऐसा क्यों हुआ मैं स्वयं बौकी के इतिहास में झाँकने लगा .
मुझे कई वर्षों बाद पता चला था कि उसका असली नाम वासुदेव है . यदि इस नाम से उसके पड़ोसी को भी पूछें तो न पता चले . लोग उसे बौका नाम से ही जानते थे . बौका मतलब गूंगा . लेकिन वह बोलता था . नाम और उसकी शारीरिक विशेषता को आप मिलाकर सामान्यतया कोई समीकरण नहीं बना सकते . लेकिन बौका के मामले में ऐसा एक समय था . बौका की माँ ऐसा बताती थी . जन्म के ५-७ वर्षों बाद उसने बोलना प्रारम्भ किया था , लोगों ने जन्म के डेढ़ - दो साल बाद ही भगवान की माया समझ सोच लिया कि यह बालक अब नहीं बोलेगा और सबने इसे बौका नाम से पुकारना शुरू कर दिया था . लेकिन फिर भगवान् की कृपा रही कि नाम के प्रतिकूल इसने कालान्तर में बोलना शुरू कर दिया . लेकिन वह पूरे गड़रिया ( गाँव का असली नाम गुड़धरिया है ) में इसी बौका नाम से जाना जाता था . जब मुझे पता चला कि यह हमसे चार - पाँच साल उमर में बड़ा है तो फिर हम इसे आदर से बौकी बुलाने लगे , बौका शब्द आकारान्त होने से अपने में अनादर जो समेटे रहता है .
बौकी के तीन भाई और थे . यह दूसरे नम्बर का भाई था . अपनी माँ - बाप के साथ मिल - जुल कर सब एक साथ ही रहते थे . बौकी की जाति का उल्लेख करना जरुरी नहीं है . लेकिन ये सब करीब - करीब निर्भूमि ही होते हैं . 10-15 धुर या कट्ठा भर से भी कम जमीन में इनके परिवार का घर था और बाड़ी - झाड़ी भी उसी में . दूसरे की खेतों में मजदूरी करना , बँटाईदारी करना , हरवाही करके निर्वाह करना बस यही इनके रोजगार थे . आकांक्षाएं कम थीं इसलिए दुःख भी कम थे .
बौकी को जब हमने पहली बार देखा था , वह जवान था , बलिष्ठ था और बहुत ताकतवर हुआ करता था . हाथ से किसी को पकड़ लेता था तो क्या मजाल कि कोई उसकी गिरफ्त से छूट जाय ! सुना था कुश्ती में अपने से ड्योढ़े - दूने जवान को पटखनी दे देता था . लोग उसे मतिसुन्न और शुद्ध मन वाले समझते थे . वह मानव शरीर में गाय था , निहायत ही शरीफ और सीधा . लोग उसे आसानी से ठग लेते थे . लेकिन जो इसे जान रहे होते वो इनके साथ कोई बदतमीजी नहीं करते . कारण इसका सीधापन हो सकता हो जो उसे दयावान बनाता हो , अथवा लोग इसकी ताकत से भी घबराते थे , लेकिन कभी सुना नहीं कि किसी से यह उलझा हो या किसी को अपनी ताकत के बल कुछ बुरा - भला कहा हो . अपने काम से काम रखता था . वह किसी के काम में कोई दखलंदाजी न करता था . एक समय में यह एक ही काम करता था लेकिन भूत की तरह काम करता था .
जब जिताय ने काम छोड़ दिया था तो मेरे पिता जी ने बौकी को हरवाही में बहाल किया और फिर हमारे घर की सारी खेती की जिम्मेवारी बौकी के ऊपर आ गयी थी . जैसा कि कह चुके हैं बौकी निहायत ही सीधा था इसलिए पूरा इमानदार था . लेकिन वह अपने मन से कुछ नहीं करता था , उसे तो जैसा एक बार कह दिया बस वही वो करता रहेगा . बैलों को सानी लगाकर खिलाना , पानी पिलाना , कमौनी , रोपनी के लिए जन बुलाना सब बौकी का काम था . भोरे- सकाले बौकी दस्तक देता और दो - अढ़ाई कट्ठा खेत चासकर समारकर आ जाता . अपनी क्षमता के मुताबिक़ नहीं बल्कि बैलों की क्षमता के मुताबिक़ खेत जुताई करता था . इसलिए उसके खेत जुताई का रकबा बराबर नहीं होता . बैल जैसे ही थकता वह हल पालो से खोलकर , फाल वाले हिस्से को पालो में बांधकर घर की तरफ रवाना हो जाता . नाश्ता वह करके ही जाता था . बसिया भात , नमक और हरी मिर्च उसका सर्व प्रिय नाश्ता होता था . उसे रोटी एकदम पसंद नहीं था चाहे गरम - गरम ही क्यों न मिले . बौकी के पास ही सुना था , वह भन्नाता रहता था , नौकरी - चाकरी जन - मजदूरी भी करेंगे और रोटी खाएँगे ? यदि भात खाने को न मिले तो नौकरी - चाकरी क्यों करना ! उसी समय जाना था कि रोटी खाना गरीबी वाली बात है , भात खाना ऊँचे दर्जे की बात होती थी . यह इस बात से भी सिद्ध होती थी कि मेरी भी माँ दोनों टाइम घर में भात ही बनाती थी . हमलोग भी दोनों टाइम भात ही खाना पसन्द करते थे . आज से ४0-४५ साल पहले स्वास्थ्य और शहरी चाल - ढाल के मुताबिक़ लोग रात में रोटी खाने लग लगे थे लेकिन रोटी के साथ जो एक सामाजिक मान्यता जुड़ी हुई थी वह इतनी आसानी से कैसे बिखरती . आधुनिकता में ढलकर सामान्य गृहस्थ लोग रात में रोटी अब खाने लगे थे . मजदूर तबके के भी गरीब लोग रात में रोटी तो खाते थे लेकिन वो गरीबी की वजह से इसे अपनी मज़बूरी समझते थे . गर्मी की छुट्टी में या दुर्गा पूजा में जब लम्बे अन्तराल पर गाँव आते थे तो माँ रात के भोजन में भी चावल ही बनाती थी यह कहते हुए कि बेटा इतने दिनों बाद गाँव आया है कैसे रोटी खिलाएंगे . पाहुन , अतिथि आ जाएँ तो रोटी बन ही नहीं सकती . इससे समझ सकते हैं बौकी कैसे हरवाही करते हुए रोटी खाता . उसे भात खिला दीजिये और अधिक भी काम करा लीजिये वह उत्साह से करता था , खुशी - खुशी करता था .
बौकी की एक और खासियत थी वह न बीड़ी पीता था और न खैनी खाता था . हाँ , उसे पान पसंद था और कहीं से मिल जाय तो वह इसे बड़े चाव से चबाकर अपना मुँह लाल किये रहता था . उस समय शायद ही ऐसा कोई जन मजदूर मिले जो दो चीजों खैनी और बीड़ी का सेवन न करता हो . खेतों में कमाई निकौनी के समय सारे गृहस्थ अपने जन मजदूरों को खुश रखने के लिए ये दो नशे की चीजें खैनी , बीड़ी जरुर ही खरीद कर देते थे .
बौकी का व्यवहार कभी - कभी बड़ा अजीब लगता था .एक दिन जेठ की दुपहरी में वह हल जोतकर आ रहा था ,आगे - आगे थके बैल , बैलों के गरदन पर पालो और पालो से बंधा लटका हुआ हरीश और हरीश से जुड़ा पालो के ऊपर से निकला हुआ सूरज की धूप में चमकता फार और पीछे स्वयं . और तड़ाक से उसने छाँव में बैठे हांफ रहे कुत्ते को एक जुआली मारा , कुत्ता किकीयाते हुए गुर्राते हुए भागा . बौकी के द्वारा निर्दोष कुत्ते को मारना मुझे उसके स्वभाव के एकदम प्रतिकूल लगा और मैं ने पूछ दिया , बौकी भाय ऐसा क्यों ..... बौकी झट से बोला , देखिये न ...बहे बरद और हकमे कुकुर ....इसीलिये कुत्ते को जुआली से मारा उसे बताने के लिए कि तुम आराम से बैठे हांफ रहे हो जबकि ये बेजुबान थका - हारा बैल चुपचाप चला जा रहा है बिना कोई दिखाबे के बिना पानी भी पीये . उसे उस दिन कुत्ते पर बहुत गुस्सा था . बौकी की समझदारी के स्तर पर मैं कुछ हँसी मिश्रित आश्चर्य में आ कुछ नहीं बोला . लेकिन अक्सर न्यायपूर्ण बातें वो करता रहता था और उसकी बातों में दया और करुणा भी हुआ करता था . लेकिन इस तरह की बौकी की बातों पर कोई गम्भीरतापूर्वक गौर नहीं करता था . मैं ने कई बार देखा हुआ था जब लोग 10 पैसे भी भिखारियों को देने से कतराते थे उस दौर में बौकी आठ आना भी उनको थमा देता था . एक हरवाहे से इस दान की लोग कल्पना भी नहीं कर सकते थे , क्योंकि वो तो दो - अढ़ाई रूपये दैनिक मजदूरी का दौर था .
जब कभी हम मोटी किताबों के पीछे अपना माथा खपाए चौकी पर बैठे रहते थे तो वो कभी - कभी हमारे पास आकर चौकी के किनारे नीचे बैठ जाता था और अनायास प्रश्न कर बैठता था जो बड़ी गूढ़ भरी बातें होती थीं उस समय हम गीता , रामायण और वेद की बातों से काफी कम वाकिफ थे और उसके प्रश्नों की सही व्याख्या नहीं कर पाते थे . हम कहते बौकी भाय, हमको तो सड़क , मकान , नहर आदि के बारे में पूछो तो बतावें . वो पूछता कि किताब में देखकर यह बताइये कि अच्छे और बुरे काम का फल कब मिलता है ? स्वर्ग सही में होता है ? रामचन्द्र जी जब भगवान थे तो जैसे ही रावण सीता जी को जबरदस्ती उठा कर ले गया तो उनको तुरन्त क्यों न पता लगा और जब पता लगा तो तुरन्त ही क्यों न मार दिया ? इत्यादि इत्यादि . मैं बौकी की इस तरह की बातों को मजाकपूर्ण हँसी हँसकर टाल जाता था .
बौकी भाय समय कितना हुआ पूछता नहीं था , समय बता कर पूछता था . कहता , देखिये तो दस बज गया है और कमाल , पौने दस या सवा दस के आसपास बज रहा होता . दिन में सूरज की ढाल , रात में चन्द्रमा , तीन तरिया या सत भईयाँ (सप्त ऋषि ) तारे समूह को देख कर सटीक समय का अनुमान लगा लेता और तभी तो वह गिरहथ के कहे अनुसार समय पर आता . कभी लेट नहीं करता .
गाँव में या आस - पास जब भी आल्हा - रुदल ( उदल को गाँव में लोग रुदल ही कहते हैं ) का नाट्य - मंचन होता बौकी जरुर देखने जाता . इसी तरह छक्कड़ बाजी नाच ( एक प्रकार का गानों और मजाक , चुटकुलों का एक लड़का और लड़की के वेश में दूसरे लड़के के द्वारा मंचित क्या जाने वाला ग्रामीण नाच ) या कई दिनों तक चलने वाला रामलीला भी बौकी का अन्य सामान्य लोगों के जैसा ही बड़ा प्रिय हुआ करता था और जरुर इन मनोरंजन कार्यक्रमों में अपनी उपस्थिति दर्ज कराता था . आल्हा - रुदल का गीत वह गाता या गुनगुनाता नहीं था क्योंकि वह गाने में प्रवीण नहीं था , लेकिन आल्हा - रुदल की बहादुरी की एवं न्याय प्रियता की वह चर्चा जरुर करता था . वह कुछ भी पढ़ा - लिखा नहीं था , निरा मूर्ख था , लेकिन उसकी सोच अनेक पारखी और पंडित जनों से भी बहुत आगे की थी . वह बड़ी गूढ़ बातें करता था जिसे लोग एक मूर्ख की - सी बात कह फूहड़तापूर्ण हँसी में टाल जाते थे .
लेकिन आज जो बात घटित हुई थी वह बौकी की नजर में क्या थी आप ही समझें . पड़ोसी मनसी लाल की बकरी ने बौकी के बाड़ी में बैगन , कोबी , मिर्च के पौधों को खा कर ठूँठ कर दिया था . महीने भर की शुकदेव की मेहनत बेकार हो गयी थी , गुस्से में शुकदेव ने बकरी पर लाठी को झटहा बनाकर फेंका . बकरी की टांग टूट गयी और मेमियाते हुए बकरी भागी . मनसी लाल बकरी की मेमियाहट को सुनकर बाहर आ गया था. बकरी बार - बार आकर सब्जी के पौधों को खाकर नष्ट कर जाती थी . शुकदेव कई बार उलाहना देकर थक गया था . इस बार इसने गुस्से में बकरी को सबक सिखा दिया था . लेकिन इससे ज्यादे गुस्सा तो मनसी लाल को था . उसने शुकदेव को टोका और बात बढ़ती चली गयी . गाली - गलौज तक होने लगी . मनसी लाल ने आवाज दी उसके सभी भाई लाठी लेकर आ गये . शुकदेव के भी सभी भाई लाठी में मौजूद थे . शुकदेव का ही छोटा भाई बौकी याने वासुदेव था . यह भी लाठी लेकर वहां ही मौजूद था . बौकी को देखकर मनसी लाल और उसके भाई सहम गये थे क्योंकि वो बौकी के बलिष्ठ शरीर और उसकी ताकत से परिचित थे . लेकिन ये लड़ाई तो इज्जत की आन पड़ी थी , सो बिना ज्यादे सोचे उन लोगों ने शुकदेव की खूब पिटाई की , सिर फोड़ दिया था और लोहू से उसका वदन लथपथ हो गया . वो नीचे गिर गया था और बाप-बाप करके कराह रहा था . लेकिन लड़ाई इतनी बढ़ने के बाद भी बौकी ने एक भी लाठी नहीं चलाई . और उसके चेहरे पर भी कोई सिकन तक नहीं आयी . वह वहां खड़ा रहा मूक बनकर नाम के अनुरूप बौका बनकर और अपने बड़े भाई को और अन्य भाइयों को पिटता देखता रहा . शुकदेव को नीचे गिरते देखकर और खून से लथपथ देखकर और यह कि बौकी अब न अब लाठी चलाना शुरू का दे मनसी लाल और उसके भाई तुरन्त भाग गये . शुकदेव की तरफ से आवाज देने वाले लोग , ललकारने वाले लोग बौकी को जोश भरते रहे लेकिन ये क्या बौकी की लाठी नहीं उठी . यह निर्विकार वहाँ खड़ा रहा . लोगों ने इसे डरपोक कहा , कुछ ने मूर्ख कहा , कुछ ने वेवकूफ कहा , कुछ ने इसे कमीना कहा , कुछ ने इसे बेकार का आदमी और घटिया तक कहा , कुछ ने इसे गालियाँ भी दी और एक ने तो इसके मुँह पर थूक भी दिया . किसी ने कहा अपना यह शरीर किस दिन के लिए रखे हो , किस दिन के काम के लिए , क्या अपने परिवार के लोगों के प्राण लेने के लिए या श्राद्ध करने के लिए . इसी समय जब मैं आया तो मैं ने देखा बौकी के मुँह पर थूक अब भी पड़ा हुआ है और बिना पोंछे वह अभी भी अविच्छिन्न निर्विकार शान्त खड़ा है और कुछ नहीं बोल रहा है . मैं ने भी सोचा , पूछूँ कि क्या बौकी भाय आप डर गये थे ? आप एक बार लाठी भांजना भी शुरू कर देते क्या मजाल वो आगे बढ़ पाते , कम से कम आपके भैया की पिटाई तो नहीं होती . आपकी ताकत को देखकर ही वो लड़ाई नहीं करते . मुझे देखकर बौकी थोड़ा सहम गया था , बोला अमर भाय, "मुझे डर नहीं लगा था , बहुत कोशिश की असल में मुझे गुस्सा ही नहीं आया . गलती तो बकरी की थी , मनसी लाल की गलती नहीं थी इसलिए ." सच, आत्म - संयम की यह पराकाष्ठा थी . संवेदनाओं पर इतना बड़ा आत्म - नियंत्रण . क्रोध , दुःख , विषाद से इतना दूर होना तो बड़े - बड़े साधुओं से भी नहीं सुना . लोग इतने धर्म -ग्रन्थ पढ़ते हैं लेकिन उस पर मंथन कौन करता है ? यह तो बौकी ही कर सकता है जो बौकी कि निरा मूर्ख है , जिसे वर्णमाला का अ , आ ... क , ख .....भी नहीं मालूम . आज मुझे पता चला था कि वह नाम से ही बौका नहीं था वस्तुतः अपने कर्म से भी था कि क्रोध, दुःख और विषाद की वाणी उसके कंठ , हृदय और मस्तिष्क को कभी छू तक नहीं गयी और न निकल पायी . उसका असली नाम वासुदेव भी तो था .
बौकी भाय को गुजरे बीस से ज्यादे वर्ष हो चुके हैं . इस तरह के निर्विकार लोग ज्यादा नहीं जीते .
अमर नाथ ठाकुर , १९ अगस्त , २०२१ , कोलकाता .