उस दिन मुझे चिंता थी .
लाल काका ने पहले ही बताया था कि घर में एक ठुर्री तक भी नहीं है . और वह भूखे पेट खेत की तरफ गए हैं .शायद खेतों की हरियाली को देखकर भविष्य में कुछ मिलने की आशा से भूख की तीव्रता कुछ कम हो जाय.
दोपहर बाद जब वह लौटे तो तिलाठी वाले कमलू काका भी उनके साथ थे तथा दूर से ही उनका ठहाका सुनायी दे रहा था. लगा जैसे अपनी गरीबी एवं भूख को तेज ठहाके से छिपा रहे हों. किन्तु पास आने पर तो पूर्ववत लाल काका पान खाए लाल – लाल नज़र आ रहे थे . वही मुस्कान, वही तेज . बातों में वही पैनापन . हमने पूछा , “लाल काका सब ठीक तो है ?”
“कब खराब देखा है ?” और मंद हँसी .
कोई चिंता नहीं कि दोपहर–बाद में अतिथि कमलू काका के आने पर खाने का क्या इंतज़ाम होगा .फिर उन्होंने दादी की तरफ मुड़कर कहा, “खाने-वाने की व्यवस्था की कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि भरपेट चूड़ा – दही खाकर आए हैं .” सब कोई हक्का - वक्का . किन्तु राहत की सांस सबने ली थी अतिथि को भूखा न रह जाना पड़े इस भय के दूर हो जाने से.
कुरेदने पर लाल काका ने जो कहानी बतायी वह आज भी याद कर रुआंसे में भी गुदगुदा देती है .
जेठ की दुपहरिया में उनके होंठों पर फुफरी पड़ रही थी . भूख से पेट-पीठ दोनों एक हुआ जा रहा था . गमछी कंधे से हँटाकर पेट पर बाँध लिया था . प्यास के मारे मुँह तो सूखकर कागज़ हो गया था .
( हमें तो निराला की पंक्तियाँ याद आने लग जाती हैं ---
पेट पीठ मिलकर हैं एक -
चल रहा लकुटिया टेक -
मुट्ठी भर दाने को -
भूख मिटाने को - )
बाज़ार पहुँचने ही वाले थे कि तरह – तरह के विचार मन में आ रहे थे . जिससे उधार अभी तक नहीं लिया है उसके दुकान में जाना है. लेकिन ऐसा क्या कोई बचा है . लेकिन जो भी हो कुछ करना तो पड़ेगा. कदम किन्तु बरबस केडी ( किसुन देव ) के चाय-नाश्ते की दूकान की तरफ बढ़ता चला गया . दूर ही से कमलू भैया नज़र आ गए . पैर ठिठक गया केडी के दूकान के ही सामने. तिलाठी से धूप में कई कोस चलकर आ रहे होंगे. घर पर खाने का इंतज़ाम तो करना ही पड़ेगा. सोच कर तो जैसे लाल काका सूख गए . किन्तु फिर जैसे बांछे खिल गयीं. रेगिस्तान में जैसे जलस्रोत नज़र आ गया हो. बांहों पर कुर्ता समेटा .
कमलू भैया प्रणाम कहकर पैर छुआ .
उनका आशीर्वाद लेकर ," गांव से ही तो , सब कुशल हैं तो . कब चले थे ? कितनी गरमी है बाप रे . आप तो पसीना-पसीना हो गए हैं . थक गए होंगे . आइये इस दूकान में पानी-वानी पीते हैं , थोड़ा सुस्ताते हैं और फिर चलते हैं" . और बात करते-करते केडी की दूकान में घुस भी गए थे. केडी को इशारा मारा और झट से कदम बढ़ाकर अंदर की सीट पर पहले बैठ गये भविष्य की सोचकर कि जिससे बिना कमलू भैया के निकले बिना बाहर निकला न जा सके .
दुर्गति काल में शिष्टता का कोई ख़याल नहीं करता. शायद भविष्य की चिंता उन्होंने पहली बार की होगी , पेट की आग ने जो यह बेचैनी पैदा कर दी थी .
कमलू भैया भी बगल की कुर्सी पर आसन ग्रहण कर चुके थे.
केडी बनिया जो ठहरा , लाल काका के इशारे को पूरी तरह पढ़ चुका था.
झट से पानी का ग्लास टेबुल पर पटका. लाल काका ने कहा, " भैया चाय चलेगी ?" लेकिन तब तक केडी की आवाज़ आयी – " लाल काका बढ़िया ताज़ा दही है थोड़ा-थोड़ा टेस करेंगे ?"
“अरे पूछना क्या है , क्या कमलू भैया ?”
“ हाँ-हाँ ” कमलू भैया ने भी कहा .
केडी ने लाल काका की अभिनय की हैसियत और कमलू काका की जेब का अनुमान लगा कर रिस्क ले लिया . आधा-आधा किलो चूड़ा एक-एक किलो दही एवं पाव-पाव भर चीनी का प्लेट तैयार किया और परोस दिया दोनों ब्राह्मणों के समक्ष प्रेम-पूर्ण हाथों से. जैसे एकादशी व्रतोपरांत व्रती एक-एक अप्रतिम खाद्य-वस्तु ब्राह्मण के समक्ष समर्पित कर देती है. केडी के इस व्यवहार से कमलू काका भाव-विभोर हो गए. वह लाल काका और केडी के मायावी जाल में बंध गए थे.
“हमने पूरा ख्याल रखा कि खाने का कौर कमलू भैया के बाद ही उठावेंगे . क्योंकि हमें डर था कि कहीं हम न अपना थाली पहले खतम कर दें. अंत में जब देखा कि भैया का खाना खतम हो रहा है तो पूरी तैयारी के साथ अंतिम कौर भैया के साथ ही उठाया" , लाल काका ने ऐसे ही कहा था .
"जैसे घंटे और मिनट की सूई एक साथ बारह बजे मिल जाती है. एक साथ कौर उठाया , एक साथ लोटा उठाया , एक साथ पानी पीया . एक साथ डकारा , फिर एक साथ खड़े हुए हाथ धोने के लिए . मेरे कदम पूरी तरह नियंत्रण में थे कि वो कमलू भैया से आगे न निकल जायं . कमलू भैया बातें जारी रखते हुए बढ़ते जा रहे थे बरामदे की तरफ . श्रेष्ठ-कनिष्ठ धर्म का पूरा ख्याल करते हुए , हम भी उनके साथ - साथ किन्तु पीछे-पीछे सारी क्रियाएँ करते रहे ." लाल काका ने यहाँ शिष्टता का पूरा ख्याल रखा था क्योंकि यहाँ शिष्टता उनकी जरूरत थी . उनका स्वार्थ था.
जैसे ही कमलू भैया ने हाथ धोया , उन्होंने भी जल्दीबाजी दिखाई कि जैसे उन्हें कमलू भैया से पहले काउंटर पर पहुँच जाना है. कमलू भैया ने कंधे से गमछी खींचा और हाथ का पानी पोंछना शुरू कर दिया .लाल काका ने भी नाट्य-मंचन में कोई कोताही नहीं बरती . हाथ धोते-धोते आवाज़ लगाई , “कितना हुआ केडी , हिसाब करना ?” उनके हाथ पोंछे जाने तक उन्होंने भी जी भर कर हाथ धोया . अब नाटक समाप्त होने ही वाला था , " मैं मंद-मंद मुस्कान के साथ पीछे हंटने ही वाला था कि अब कमलू भैया काउंटर पर पहुँच ही रहे होंगे. किन्तु ये क्या , भैया ने तो दंतखोदना से दाँत खोदना शुरू कर दिया . जैसे सब किये कराये पर पानी फिर गया हो . क्या अपना नाटक कहीं पकड़ा तो नहीं जाएगा . बेईज्ज़ती की संभावना से मैं तो फिर पसीना-पसीना हो गया . कहीं केडी मुझसे तो पैसा मांगना नहीं शुरू कर देगा , हे भगवान ! कहीं काउंटर पर हमें ही तो नहीं जाना पड़ जाएगा . भय-मिश्रित साहस से काउंटर पर चला तो गया और झूठ-मूठ का कुरते के जेब में दाहिना हाथ डाला . हाथ फटे जेब से निकल कर दूर नीचें ठेहुने तक पहुँच गया. ठन-ठन गोपाल . केडी ने देख और समझ लिया . कमलू भैया बाएं तरफ निश्चिन्त-भाव से ऊपर की ओर मेरे मन के घमासान से अनभिज्ञ फूस के घर में लगी बांस की बल्लियों को जैसे गिन रहे हों . मेरा पूरा भरोसा “खेवैया के राम देवैया” में था. बुद्धि काम कर गयी .
"केडी , भई, चाय बनाना जल्दी-जल्दी . इतना भी नहीं समझते कि चूड़ा-दही खाने के बाद चाय के लिए कहना नहीं पडता है . स्पेसल बनाना . क्या कमलू भैया ?”
उन्होंने हामी भरी .
फिर क्या था , चाय आयी .
"एक बार फिर से हमें अपने को सुरक्षित ज़ोन में पहुंचाना था , सो हमने किया. वैसे ही जैसे दिन के अंतिम ओवर में खतरनाक बाउंसर से बचने के लिए नाईट वाचमैन बैट्समैन ने अपने को बचाने के लिए एक रन लेकर स्ट्राइकर एंड से नन-स्ट्राइकर एंड पर पहुंचा दिया हो. क्योंकि कोई रिस्क तो लेना नहीं था. इस बार पूरी मुस्तैदी से मैं कोई जल्दीबाजी नहीं कर चाय की चुस्की लिए जा रहा था. ठान रखा था कि कमलू भैया को ही चाय पहले खतम करानी है. ऐसा ही हुआ .कमलू भैया की चाय खतम हुई , कप जैसे ही उन्होंने मेज़ पर रखी और कुर्सी से उठे , मैंने भी गटागट बची-खुची चाय निगल डाली तथा झपट्टा मारकर भैया के समानांतर काउंटर पर पहुँच गया. अब पेमेंट की बारी थी न . कमलू भैया ने दस टकिया निकाल लिया था "
"भई केडी , भैया अतिथि हैं . मुझे पाप न पहुंचाना. भैया से पैसा न लेना." कोई चूक न हो जाए मैं ने केडी को आँखों के इशारे से सब कुछ समझाने की भी कोशिश कर ली. फिर भैया को भी बोला , "भैया हमारे गाँव में आकर आप पैसे न चुकाएं और अतिथि – असम्मान का पाप न लगावें. "
"मैंने अभिनय की सीमा में रहकर जेब में हाथ डाल दिया था .इस बार ये मेरा बायाँ हाथ था और जेब भी बाएं तरफ वाली. क्योंकि मैं कमलू भैया के बायें तरफ खडा था "
ठन –ठन गोपाल के लिए जेब की क्या जरूरत. महीनों ऐसा मौका न आया हो कि जेब की जरूरत पड़े.
"जो भी हो केडी समझ चुका था मेरे अंदाज़ को. वह मुस्करा पड़ा था".
कहीं जेब से निकला हाथ कमलू भैया की नज़र में न आ जाय और दरिद्रता उपहास न बन कर रह जाय , लाल काका ने घूम कर काउंटर से हँटकर एक ओर सुरक्षित क्षेत्र में अपने को पहुंचाया.
"मेरे दुराग्रह से कमलू भैया ठिठक न जायं और बोल न दें कि लो अच्छा कोई बात नहीं , तुम ही पैसे चुकाओ , अपने पर अब पूरा नियंत्रण रखा. केडी बुद्धिमान था . वह मेरा अभिनय पढ़ चुका था. उसने समझ लिया था कि मेरी बातों में पडकर पूरी जिंदगी मेरे से उधारी का पैसा वसूल नहीं पाएगा. अब मेरी चिंता केडी की चिंता हो गयी थी . मेरा भय केडी का भय था."
जैसा लाल काका ने बताया ---संपेरे के बीन पर घूमते नाग के फण की तरह लाल काका से कमलू भैया और कमलू भैया से लाल काका की तरफ बार-बार फिरता के डी का हाथ यकायक रुक गया था और झपट्टा मार कर उसने कमलू भैया के हाथ से दस टकिया लेकर अपने बक्से में रख लिया था कि कहीं लाल काका की एक्टिंग पर भरोसा कर कमलू भैया निकाला हुआ दस टकिया फिर अपने बटुए में वापस न रख लें.
साढ़े नौ रुपये का बिल काटकर बची अठन्नी से केडी ने खुद ही पान वाले से दो खिल्ली पान भी मंगवा दिया . यह पूरी तरह लाल काका को किसी और जिल्लत से बचाने के लिए केडी ने किया था .
पान खाए , प्रफुल्लित मन से एक विजेता की भाँति लाल काका अपने कमलू भैया को साथ लेकर घर की तरफ चल पड़े.
हालांकि लाल काका ने अपनी चाल से कमलू काका को ठगा था किन्तु जब उसी दिन लाल काका ने यह वाकया निर्मल-मन से मंद-मंद मुस्कान के साथ भरी चौकड़ी में ठहाकों के बीच सुना दिया तो स्वयं कमलू काका भी हँसे बिना नहीं रह सके.
किनको नहीं होगी लाल काका की गरीबी से करीबी.
वर्षों बाद आज जब अपनी गांव की जिंदगी को याद करते हैं तो लाल काका का यह चरित्र बरबस आँखों में आँसू के साथ गुदगुदाहट वाली एक मंद मुस्कान ले आती है और मन अनायास बोल पड़ता है--- लाल काका आप हमेशा जीते रहें –सौ-सौ साल तक !
अमरनाथ ठाकुर , दिसंबर २०१० .