Saturday, 15 November 2014

बढ़ती उमर चढ़ती माया


ढलता सूरज बढ़ती छाया
बढ़ती उमर  चढ़ती माया
जीवन का ये कौन प्रहर आया
चिंता-निमग्न रुग्ण काया
सत्य-असत्य में तब भरमाया
सिर चढ़ा स्वार्थ का साया
कहाँ करुणा कहाँ गयी दया
यह है अपना वह है पराया
नीति-दुर्नीति में मन उलझाया   
अब तक क्या खोया क्या पाया
नहीं कभी हिसाब लगाया
बुद्धि भ्रष्ट हुई विवेक विलाया
जब भी मानव तूँ सठियाया ।
ढलता सूरज बढ़ती छाया
बढ़ती उमर चढ़ती माया ।

अमर नाथ ठाकुर , 13 नवंबर , 2014 , कोलकाता ।


पाखंड

माला खट-खट दिल बहलाया
मिथ्या भक्ति पर तू  हर्षाया
जब-तब खोटे आसूँ भी बरसाया
तीरथ-तीरथ भागा गंगा भी नहाया
गेरू/सफेद वस्त्र का चोला पहन लहराया
दाढ़ी बढ़ायी टीका-चन्दन  सजाया
ओठों पर राम बगल में छूरी चमकाया
आस्था लूट झोंपड़ी पर महल बनाया
बखान कितना क्या करूँ हे भाया
इन साधुओं ने कितने को बरगलाया ।
  
अमर नाथ ठाकुर , 13 नवंबर , 2014 , कोलकाता ।   



Wednesday, 12 November 2014

जीवन वाहन चलता जाता


      -1-

एम्बूलेंस भागती कभी अग्निशामक वाहन टनटनाती
बसों कारों वाहनों की कतार की कतार निकलती
लाल बत्ती पर रूकती कभी पड़ाव पर ठमकती
टकराती चूमती कभी ओवरटेक करती रगड़ खाती
कभी पलटती कभी उलटती कभी पिचकती
कभी घायल कर कभी रौंद कर भाग पड़ती
आगे निकलती कोई पीछे छूटती कोई साथ चलती
कोई धुआँ छोड़ती घड़घड़ाती कोई सरसराती
कोई सुरीली हॉर्न बजाती बिना रुके चलती जाती
कोई लक्ष्य पर पहूंचती कोई विपथ हो भटकती
पंप पर पेट्रोल-डीजल खाती कोई हवा पीती
कोई पंकचर होती किसी की हवा निकलती
कोई धुएँ टेस्ट में पास होती कोई फेल होती
किसी का चालान कटता कोई बेदाग निकलती
कोई गड्ढे में उछलती कोई कीचड़ में अटकती
कहीं ठेलकर कहीं ब्रेक वैन से गैरेज पहुँचती
फिर डेंटिंग-पेंटिंग ओवरहौलिंग कराती
नई बॉडी में चम चमा कर निकलती ।
और फिर ये गाडियाँ चलती जाती चलती ही जाती ।

      -2-

यह जीवन वाहन भी ऐसे ही चलता जाता
भटकता टकराता रगड़ खाता गिरता उठता पड़ता
कभी धूल फाँकता कभी कीचड़ में सनता
पसीने में लथ-पथ कभी ठंढ में कंपकंपाता
बिखरे बालों में कभी सुलझे कपालों में झलकता ।
मंदिर के सहारे मस्जिद के किनारे कभी गिरिजाघर के द्वारे
ये जीवन वाहन चलता जाता ये जीवन वाहन चलता जाता ।
किसी का साथ मिलता कोई बिछुड़ता
कोई धोखा देता कोई जार-जार रूलाता
कोई फँसाता कोई झिड़कता कोई हँसाता ।
कभी मधुर संगीत की ध्वनि आती कभी होता कोलाहल
अमृत सदृश शीतल पावन जल कभी मिलता कड़वा हालाहल
कहीं झंकाड़  झोंपड़ी मिलती कभी आलीशान महल ।
कभी झकझोरती आंधी कभी मूसलाधार बरसात मिलती
कभी सपाट मैदानी रास्ता कभी रास्ते पर झाड़ मिलती
टिमटिमाते  सितारों का सहारा कभी सूरज की गर्मी  विलखाती
कभी कड़कती बिजली राह दिखाती कभी चाँदनी भी भटकाती  
कभी कांटे कभी रंग-बिरंगी मद भरी फूलों की क्यारी मिलती
कभी निर्जल बलुआही रेगिस्तान कभी मैदानी हरियाली मिलती ।
कभी कटाक्ष गालियाँ मिलती कभी प्रसंशा का मधुर पान
कभी एक का साथ मिलता कभी विरुद्ध सारा जहान ।
      फिर भी ये जीवन वाहन चलता जाता चलता जाता ।
      फिर भी ये जीवन वाहन चलता जाता चलता जाता ।
मरहम पट्टी लगती कभी किडनी हृदय फेफड़ा बदलता
अस्पताली गैरेज से नूतन तन धारण कर जब भी निकलता
ये जीवन वाहन चलता जाता , ये जीवन वाहन चलता जाता ।  


अमर नाथ ठाकुर , 9 नवंबर , 2014 , कोलकाता । 




मैं हर पल जन्म नया लेता हूँ

 मैं हर पल जन्म लेता हूँ हर पल कुछ नया पाता हूँ हर पल कुछ नया खोता हूँ हर क्षण मृत्यु को वरण होता हूँ  मृत्यु के पहले जन्म का तय होना  मृत्य...