Tuesday, 10 August 2021

टुनटुन काका

 इस बार गाँव जब गया बहुत कुछ बदला हुआ - सा पाया  . हमेशा की तरह सुबह चार बजे मैं जग गया . लेकिन कुछ अजीब - सा लगा . राम चरित मानस के दोहे, चौपाइयों  की गूँज सुनाई नहीं दी . सोए हुए में ही कानों में 'मंगल भवन अमंगल हारी , द्रवहु  सुदसरथ अजिर बिहारी ... राम सिया राम जय जय राम  ........ जैसे  कर्ण प्रिय दोहे चौपाइयाँ इत्यादि का जैसे अभाव - सा लगा . फिर भी जैसे अहसास - सा हुआ कि हम ये दोहे सुन पा रहे  हैं .यह वहम था . कुछ ही देर में दिन की चहल-पहल शरू हो गयी थी  और पता चला कि टुन टुन काका को गुजरे हुए कई महीने हो गये हैं . दुःख हुआ सोचकर कि अब टुनटुन काका के दर्शन कभी नहीं होंगे . भोरे - भोर मानस के दोहे और चौपाइयाँ का आस्वादन अब नहीं  मिलेगा . घर - घर की खबरों से अवगत कौन कराएंगे . ५0-५५  सालों की स्मृतियों का रेला नजरों के सामने से गुजरने लगा . 

पूरे गाँव की खबर रखते थे टुनटुनका . लोग उनको हँसी-मजाक  में बीबीसी कहते थे . सदरपुरिये , ब्रह्मपुरिये , मिश्रान , सोनरटोली , कायस्थ टोली , बाजार आदि हर जगह की सारी ख़बरों का उनके पास अपडेट होता था . यहाँ तक कि अगल - बगल के गाँव ठाढ़ा, गड़रिया, लछमिनियाँ, विसनपुर , चैनपुर आदि दस -बीस कोस तक के गाँवों तक की मुख्य - मुख्य ख़बरों का हिसाब - किताब उनके पास होता था  . मिश्रान में  तो सभी बड़े और कुलीन लोग थे और उनके यहाँ  की कोई खबर रिस -रिस कर भी नहीं आती थी क्योंकि मिश्रान और शेष गाँव के बीच एक काल्पनिक  किन्तु अभेद्य दीवार - सी होती थी जिससे उनके परिवार में घटित किसी घटना का कुछ पता ही नहीं चलता था . लेकिन टुनटुनका  इस दीवार के उस पार की बोरिया - तर की भी खबर ले आते थे और लोग उत्सुक हो  बड़े चाव से उसका स्वाद लेते थे . 

टुनटुन काका  हमारे यहाँ रोज आते थे दो बार तीन बार . पीछे ही तो उनकी झोंपड़ी थी बमुश्किल सौ लग्गा भी नहीं होगा . जब भी इधर से गुजरते थे दस बीस तीस मिनट रुकते थे सिर्फ पान खाने तक . इतने में ही सारी विस्फोटक खबर बाँटकर चले जाते . मेरे बुढ़वा काका याने मेरे दादा जी उनसे कभी - कभी काफी नाराज हो जाते थे . वो कोई भी बात पूरे  विस्तार से सुनना चाहते थे और  टुनटुनका को इतना समय नहीं होता कि वो मेरे बुढ़वा काका के दर्जनों क्यों, कैसे और कहाँ का जबाव दें  . उन्हें तो पूरे गाँव को कवर करना होता था . इसलिए बुढ़वा काका अपनी नाखुशी उन्हें  नारद कहकर चुकाते थे और कहते थे टुनटुन तुम्हारे पैर में शनि का वास है तुम ज्यादे देर नहीं रुकोगे मुझे मालूम है . नारद मुनि भी दो घड़ी से ज्यादे कहाँ रुकते थे एक जगह और तीनों लोक सहित पूरे ब्रह्माण्ड का चक्कर लगाते थे . और  बुढ़वा काका की बात पर टुनटुन काका हँसते हुए पान अपने गलफर में ठूंसते हुए तलहत्ती पर जर्दा लेकर फाँकते हुए गायब हो जाते थे . शाम में लौटते समय फिर कुछ मिनट के लिए अपना पड़ाव रखते थे . जब तक उनको पान या खैनी मिलता तब तक पूरे गाँव की दिन भर की राजनीति से सबको अवगत करा देते . आस - पास के गाँवों की भी विशेष खबर से अवगत करा देते . ये सब खबरें अखबारों में नहीं मिल सकती . किनके बेटे की कथा - कुटमैती की बात चल रही है , कितना दहेज उनको चाहिये , किनकी बेटी का कथा तय हो गया है , होने वाला लड़का क्या करता है , किनके घर में आज लड़ाई हुई , सभी भाइयों में भिन्न - बखरा हो गया कि नहीं , हौद में किनकी जमीन बिक रही है , कौन खरीदना चाहता है , नहर में पानी आ गया कि नहीं , दुर्गा पूजा में प्रति परिवार कितना कर के चन्दा लगा है , दुर्गा पूजा में नाटक इस बार खेला जाएगा कि नहीं , डाकटर साहेब पूजा में इस बार गाँव आएँगे कि नहीं , दरबार में किस बात पर आज चर्चा चल रही थी , ठंढा बाबू की चौकड़ी ने बीडीओ को प्रमोसन देकर डीसीएलार बना दिया , चैनल के पानी को बाँधकर धस्सा लगाकर मछली पकड़ने का काम इस बार जल्दी क्यों बंद हो गया , थाने में नया दारोगा कब ज्वाइन करेगा और कौन - सी जाति का है , मुसहरी टोले में किसकी बेटी भाग गयी और किसके साथ भाग गयी , कोशी कॉलोनी में कौन नया ओवरसियर आया है , पुराने एसडीओ के ट्रांसफर के बाद कौन आया है , हेहया धार में और गेंडा धार में क्यों इतना पानी बढ़ गया है , इस बार कोशी के कौन से तटबंध के टूटने की सम्भावना है , किसके बेटे का उपनयन है , कैसा भोज करेगा , कौन मर गया , कौन बीमार है , कौन शराब पीकर किसको गाली दे रहा था , किसने अपने बेटे को घड़ी खरीद कर दी है , किसके यहाँ रेडियो खरीदा गया है , इस बार गाँव में सबसे ज्यादे पटुआ किसको हुआ , मडुआ किसके यहाँ सबसे ज्यादे हुआ , किसके बेटे को मास्टर रोल में नौकरी मिल गयी , किसके यहाँ रेले सायकिल खरीदी गयी है , दूध में सबसे ज्यादे पानी कौन मिलाकर बेचता है , सबसे ज्यादे सूद पर कर्जा कौन देता है इत्यादि इत्यादि . ऐसी कौन सी खबर नहीं होती जिसकी  जानकारी टुन टुन काका को न होती . बिलकुल सटीक खबर सिर्फ  काका जी ही देते थे . इसलिए तो वो ऑल  इण्डिया रेडियो नहीं बल्कि बीबीसी थे . जैसे ही वो सुबह दोपहर या शाम में आते कुर्सी पर बैठ जाते या खाली चौकी पर टांग लटका कर एक तकिया लेकर करवट लेट जाते और बुढ़वा काका की हर जिज्ञासा को शांत करने की कोशिश करते और खैनी या पान मिलने तक या न भी कुछ मिले तो भी कुछ मिनटों में पूरा बखान कर चल उड़ते . चाय तो वो पीते नहीं थे . खैनी की चुनौटी या पान के लिए पनबट्टी तो वो रखते नहीं थे . लेकिन जब चाहत होती तो फिर कहीं न कहीं किसी न किसी के यहाँ उन्हें मिल ही जाता क्योंकि उनका उठना - बैठना पूरे गाँव में जो था . यही उनकी दिन - चर्या होती थी . कभी उनको बीमार होते नहीं  सुना .

क्या खुश मिजाज थे टुनटुन काका . पांच - सात  कट्ठे  से ज्यादे जमीन नहीं थी उनके हिस्से में जिसकी पैदावार उनके पारिवार के गुजर - बसर के लिए पर्याप्त नहीं था फिर भी उनके चेहरे पर कोई शिकन नहीं . अपनी गरीबी को वो बोल - बोल कर बाँटते नहीं  थे . एक कीर्त्तन मंडली के सदस्य बन गये थे और पूरे गाँव में जहां भी मानस पाठ हो ,  अष्टयाम कीर्त्तन हो उसमें टुनटुन काका जरुर मिलेंगे . जो दान दक्षिणा उनको मिलता था उसमें उनके परिवार का गुजारा - बसारा हो जाता होगा , हम ऐसा सोचते थे .  अब वो माथे पर एक टीका भी लगाने लग गये थे . शायद वो अब सबेरे - सबेरे स्नान पूजा भी कर लेने लगे थे . बदन पर एक गंजी और ठेहुने से थोड़ा ही नीचे तक की अति साधारण जालीदार धोती उनका  पहनावा होती थी . जोर से ठहाके  लगाकर हंसना और शुद्ध हृदय से सारी बातें प्रकट कर देना उनकी विशेषता थी . इसलिए अधिकाँश लोग उनको नापसंद नहीं करते थे . इसका यह  भी मतलब नहीं कि लोग उन्हें खूब पसंद करते थे . कुछ लोग उनसे सावधानी बरतते थे और अपने परिवार की बात  या अन्तरंग बातें उनके सामने प्रकट नहीं करते थे , इस डर से कि ये बीबीसी के छद्म नाम से जो जाने जाते थे . कुछ लोग उन्हें नारद मुनि नाम ( बुढ़वा काका तो पहले से ही उन्हें नारद सम्बोधन दे चुके थे) से सम्बोधित कर  उनका उपहास  भी कर देते  थे , लेकिन वो लोग काका जी से उम्र में बहुत  बड़े होते थे  या समवयस्क होते थे इसलिए उनकी ऐसी बातों का काका जी जरा भी बुरा  नहीं मानते थे और एक मुस्की  से इस बात को पचा जाते थे . शादी , उपनयन , श्राद्ध आदि अवसरों में दूसरे गाँवों में अपने  सम्बन्धियों को निमंत्रित करने के लिए किसी को भेजना हो या पास के शहर से कोई सामान मंगवाना हो या गाँव के  बाजार से भी कोई सामान आकस्मिकता में मंगवाना हो तो काका जी से ज्यादे विश्वसनीय और कौन हो सकता था और उनकी उपलब्धता की भी गारंटी होती थी . २००९ में मेरे पिताजी का देहांत  हुआ . अग्नि - संस्कार के बाद गंगा में उनके  अस्थि प्रवाह के लिए जब कोई नहीं तैयार हो रहा था तो टुनटुन काका को यह जिम्मेवारी दी गयी थी और आश्चर्य यह कि  जनवरी की  उस कंपकंपाती ठंढ में कितनी सहजता से उन्होंने सिमरिया जाकर अस्थि प्रवाह करने की  जिम्मेवारी स्वीकार कर ली थी . अगस्त २००८ में कोशी मैया ने बिहार के सुपौल , सहरसा , मधेपुरा के भूगोल को बदल दिया था . कोशी जो १५-२० किलोमीटर पश्चिम से तटबंधों के बीच बहती थी अब बिना तटबंध मेरे गाँव के पूरब से बहने लगी थी . सारी सडकें क्षत -विक्षत हो गयी थी . गाँव से बाहर निकलने के लिए नाव का सहारा लेना पड़ता था . लेकिन जब काका जी ने यह जिम्मेवारी ली तो फिर पूरी श्रद्धा पूर्वक कठिनाइयों को झेलते हुए इस कार्य  का निष्पादन भी किया . 

काका जी  बुरे लोगों में कभी नहीं गिने जाते थे लेकिन साथ ही उनको एक विचारशील व्यक्ति के रूप में भी कोई ख़ास तवज्जो नहीं दी जाती थी .  लेकिन इन सब से अविच्छिन्न  टुनटुन काका ज़रा भी असहज नहीं होते थे . बेगारी  का काम करने में उन्हें कोई संकोच नहीं होता था . उनके मन में उपकार की भावना होती होगी या कभी कुसमय में किसी प्राप्ति के लालच से ऐसा करने में कोई कभी आनाकानी नहीं करते होंगे . इतने जमीनी आदमी थे कि अपनी प्रतिष्ठा या अपने आत्म - सम्मान की उन्होंने कभी चिन्ता ही नहीं की . मन मौजी थे .जब से मानस मण्डली में शामिल हुए थे खुश रहने लगे थे .शायद परिवार के खर्चे के लिए अब ज्यादे जद्दो - जहद नहीं करनी होती थी . किसी भी तरह की अभिलाषा महत्त्वाकांक्षा से दूर आज कल ऐसा प्राणी शायद ही आपको देखने को मिले . 

सतत अभ्यास से मानस की अनेक चौपाइयाँ , दोहे  काका जी को कंठाग्र थे  . मानस के प्रसंगों से अपनी बात को बल देकर अब वो लोगों  के बीच रखने लगे थे . जब तब उच्च स्वर में  मानस के दोहे चौपाइयाँ उनके मुख से  निकलते रहते थे. सुबह चार बजे  जब उठकर मानस गान करने  लगते तो उस समय के शान्त वातावरण में दूर - दूर तक उनकी आवाज जाती , बहुत लोग इसे  पसंद करते थे , कुछ लोग इसे अपनी नींद में खलल समझते  और उनके बारे में पीठ पीछे बुरा - भला कह  जाते . मैं तो ब्रह्म - मुहूर्त्त में उठने वाला आदमी सुबह - सुबह मानस  की सुमधुर  और भावपूर्ण चौपाइयाँ सुनकर प्रफुल्लित हो जाता . कॉलेज की पढ़ाई और बाद में नौकरी में आने के बाद साल में एक या दो बार गाँव आता था . और जब भी आता था रात में पहुंचता था क्योंकि ट्रेन और बस का समय ही ऐसा होता था एवं भोरे - भोर ब्रह्म - मुहूर्त्त की  शान्त स्निग्ध वेला में मंगल भवन सुमंगल हारी .......जैसे मानस की चौपाइयों से नींद टूटती तो अनायास ही आनंद से  मेरा जी भर उठता था . 

 टुनटुनका पढ़े - लिखे ज्यादे थे नहीं , शायद पांच-सात क्लास तक गाँव के स्कूल में पढ़े होंगे . लेकिन सामान्य ज्ञान की समझ में  एक ग्रामीण की हैसियत से अद्वितीय तो नहीं किन्तु किसी से कम नहीं थे . बचपन में हमने उनको एक बलिष्ठ नौजवान के रूप में देखा था .मध्यम कद - काठी के थे . सफेद - सफेद  गुंथे हुए चमकते दांत उनकी पहचान होती थी . बाद में जब वो पान खाने लगे थे तो दांतों के बीच में खड़ी - खड़ी भूरी -काली  धारियां बन गयी थी . शरीर उनका  छरहरा था और कमाल की फुर्ती थी उनमें . दुखी हमने बहुत  कम मौकों पर उनको देखा . रोजगार के लिए काम वो कोई करते नहीं थे , लेकिन घर परिवार का गुजारा उनका चल जाता था .  विजया दशमी के दिन , दीवाली की रात में या क्लास में प्रथम आने पर अथवा कॉलेज से छुट्टी में आने पर अथवा नौकरी से गाँव में कोई शादी - ब्याह , उपनयन  में जब भी गाँव आते थे तो उनको पैर छू कर प्रणाम करता था और टुनटुनका हमें दिल खोल कर आशीर्वाद देते थे . उनको पैर छू कर प्रणाम करने में इसलिए खूब आनंद का आस्वाद मिलता था . उनसे कुशल - मंगल पूछने के उपरान्त फिर गाँव की सारी ताजी घटनाओं से वाकिफ हो जाते थे . अपने स्कूल के समय के दोस्तों के बारे में भी सभी खबर ले लेते थे . उस समय तो मोबाइल होते नहीं थे , फिक्स्ड फोन सबको नहीं होते थे , चिट्ठी - पत्री सबसे होती नहीं थी ऐसे में टुनटुन कक्का    का महत्त्व समझा जा सकता था . वो पुरे गाँव की ख़बरों का इनसाइक्लोपीडिया होते थे . 

व्यंग पूर्ण और हंसाने वाली बातों से भी हमलोगों का खूब मनोरंजन करते थे . तम्बाकू या खैनी के बारे में आज से पचास  साल पहले कही गयी बातें  तो अभी भी हमें गुदगुदाती है . जैसे खैनी को वो  बीबीसी कहते थे याने बुद्धि वर्धक चूर्ण इससे खैनी की उच्चता कुलीनता  और दिव्यता को दर्शाते थे और खैनी के महात्म्य को व्यक्त करने के लिए तो दो तीन दोहे तक सुना जाते थे .... कृष्ण चले बैकुण्ठ को राधा ने  पकड़ी बाँह , कहा यहाँ तमाकू खा  ले वहां तमाकू नाहि . इसे  आगे और बढ़ाते हुए वो पढ़ते .... .लाम-लाम पात है ठोर में समात है , कुल में कपूत जो खैनी नहीं खात है . हमलोग यह सुनकर तो  उस समय बावले  हो जाते थे . यदि हम बच्चे लोग उन्हें पढ़ते दीख जाते थे तो यह कहने से कभी नहीं चुकते थे..... जो भी पढ़तं सो भी मरतं जो नहीं पढ़तं सो भी मरतं तो दांत कटाकट काहे करतं ..यह सुनकर हमलोग उनको इसे फिर से दुहराने को कहते और बड़े चाव से वो इसे दुहराते . और याद है उसी समय हमने इसे याद कर लिया था और काकाजी को देखकर हम लोग भी इसे यदा - कदा दुहराते . हम जानते हैं यह फकड़े सुनाकर उनका हमलोगों को पढ़ने से हतोत्साहित करने का कतई मतलब नहीं होता था . जरा सोचिये हँसी - मजाक , व्यंग , चुटकुला आदि न हो जीवन में तो ये जीवन कितना नीरस हो जाय . वो चार्वाक के दर्शन के प्रसंशक थे . जब भी उनकी आर्थिक स्थिति की चर्चा होती उनकी जिह्वा पर ही यह श्लोक होता ... यावत् जीवेत सुखं जीवेत , ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत् . यह सुनाकर अपनी गरीबी का कचोट कहाँ छुपा जाते आप ढूँढ़ नहीं सकते  . आठ भाइयों में सबसे बड़े थे लेकिन शादी के कुछ ही वर्षों बाद ये अन्य भाइयों से तथा अपने पिताजी से अलग रहने लगे थे . इससे इनकी आर्थिक स्थिति का अन्दाजा ऐसे ही लगाया जा सकता है . 

मिथिला में डाक के वचन खूब प्रचलन में हैं , काका जी बहुत सारे डाक वचन कंठाग्र रखते थे और समय पर उसे तुरंत सुनाते भी थे . कुछ तो हमलोग भी याद कर गये थे .......काक द्वार मे आवे जाय , कहथि डाक जे पाहून पाय .....सोमे शुक्रे बुधे उखा , छारह  पंडित लेखा जोखा ....पूरब छींका मृत्यु हकार , अग्नि कोण मे दुखद भार ....नाटा  बरद, बहुरिया जोय, नहि घर बसै न खेती होई .... ई जुनि बूझब डाक निर्बुद्धि , नाशहि काल विनाशे बुद्धि .....इत्यादि इत्यादि . 

मेरी मँझली बहन का देहांत हो गया था तो अगस्त २०१९ में गाँव गया था . ब्रह्म मुहूर्त्त की वेला में उनका  दूर से ही मानस गान सुना . बहुत शांति मिली किन्तु उनकी वाणी में वो ओज नहीं सुनाई दिया , भोर में मेरा नाम सुनते ही टुनटुनका मेरे यहाँ आ गये थे मैं ने पैर छूकर उनको प्रणाम किया वही पुराने हिसाब से खूब सारा आशीर्वाद दिया . लेकिन  उनका रुग्ण शरीर  कुछ और ही कहानी कह रहा था . वो चीनी  की बीमारी से जूझ रहे थे और मुझे लग गया था अब वो ज्यादे दिन के मेहमान नहीं हैं . इतना  दुबला तो मैं ने उनको कभी नहीं देखा था . अब वो फुर्त्ती भी उनमें नहीं थी. गाल पिचका हुआ था . मुँह में एक भी दांत नहीं . आवाज में जैसे निराशा के भाव थे. लेकिन जब बाल - बच्चे के बारे में पूछा  तो बड़े ही आश्वस्त होकर कहा दोनों बेटियों की शादी हो चुकी है , दोनों ससुराल में सुखी है. लड़के की भी शादी हो चुकी है. लड़का दिल्ली - पंजाब करता है किन्तु सुखी है. यह इस बात से भी पता चला कि उनका लड़का  पक्का घर बनवा रहा था. मुझे राहत की सांस मिली . मैं समझ रहा था उनकी हमारी ये मुलाक़ात शायद अंतिम ही हो . और हुआ भी ऐसा ही. मैं कोलकाता आया था और कुछ महीने के बाद ही वो प्रयाण कर चुके थे. पता नहीं चल पाया था मुझे . 

आज जब इस कोरोना काल में  टुनटुनका  की वाणी में मानस की चौपाइयों से मेरा साक्षात्कार नहीं हुआ है और अब कभी हो भी नहीं सकता , तो भी जैसे लग रहा है कोई मेरे कानों में गुन  गुना रहा है .......... होइहि सोई जो राम रचि राखा . को करि तर्क बढ़ावै साखा ........ ७५-७६ साल तो जी चुके थे  और कितना जीते ! पूरी जिन्दगी तो उन्होंने गरीबी को पटखनी दी  और अन्त में जो मैं देख रहा हूँ  वो  बीस - पच्चीस साल पहले की बात है .... जनवरी की कंपकंपाती ठंढ  है , कुहेस लगा हुआ है , सबेरे के वख्त उनके यहाँ कुछ मेहमान आ गये हैं , उनके घर में अनाज का अभाव है , काकाजी  श्री कृष्ण के बाल रूप के फ्रेम किये हुए फोटो को चादर के अन्दर छुपा कर सामने सड़क पर खड़े हैं और इशारे से मुझे बुला रहे हैं , मेरे जाते ही कह रहे हैं यह फोटो फ्रेम तुम सौ रूपये में ले लो , पूरी बातें सुनकर मैं रुआँसा हो जाता हूँ और मैं अनायास ही बोल उठता हूँ टुनटुनका यह मैं नहीं ले सकता ( और उनका चेहरा गिर गया था कि अब क्या करें ) आप श्री राम के साथ श्री कृष्ण की भक्ति के लिए अपने पास इन्हें रखिये और मैं ने तीन या चार सौ ( ठीक से याद नहीं) रूपये काका जी की मुट्ठी में देकर , जो वो मुफ्त में कतई नहीं लेना चाहते थे ,  उनकी मुट्ठी को दबा दिया . मैं दालान में  वापस आ गया हूँ और अनमने ढंग से काकाजी भी अपने घर चले जा रहे हैं . मैं देख रहा हूँ जैसे वो सही में चले जा रहे हों  हमेशा के लिए मानस की चौपाइयाँ गुनगुनाते हुए और मैं श्री कृष्ण से दूर यहाँ छूट गया हूँ  उनके ढेर सारे आशीर्वाद का बोझ लिए हुए  .


अमर नाथ ठाकुर , 10 अगस्त , २०२१, कोलकाता  .


 

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