कोरोना ने हमारे सामाजिक जीवन मूल्यों को तोड़ - मरोड़ कर रख दिया है. सोशल मीडिया ने पॉजिटिव एवं नेगेटिव दोनों प्रकारों से इसमें साथ दिया है. कोरोना के बारे में सही और गलत में भेद करने वाली रेखा गायब-सी होने से पब्लिक अत्यन्त ही दुविधा में रही और पब्लिक को अपने विवेक से इसे समझना पड़ा. दूरदर्शन के अलावा कुछ ही समाचार चैनल ने इसमें भारी और सकारात्मक भूमिका निभाई. इन चैनलों से सारी सही-सही जानकारियाँ सोशल मीडिया की सहायता से समाज के हर समुदाय में हर कोने में प्रसारित होता रहा और लोगों ने तदनुसार सावधानी बरती और हजारों-लाखों जानें बचीं. फेसबुक, व्हाट्सअप्प , यूट्यूब आदि पर अफवाहों का बाजार भी काफी गर्म होता रहा इससे लोगों में भय का भी माहौल रहा. खबरें यह भी चली कि सरकारें फार्मा इंडस्ट्री के दबाव में होती है और जनता को दवाइयां बेचीं जा रही है, टीके लगवाये जा रहे हैं. टीकों में गाय और सूअर का खून होना या लोगों को नपुंसक बना देने की अफवाह भी खूब गर्म रही. कुछ खास समुदाय के पढ़े-लिखे लोगों तक ने भी बहुत दिनों तक इन टीकों से अपनों को अलग रखा. हद तो तब हो गयी जब भारतीय टीकों को बीजेपी का टीका तक कह दिया गया और ऐसा प्रचार करने वाली राजनीतिक पार्टियों ने टीकाकरण के अभियान को भी धीमा करने में कोई कोताही नहीं बरती. आज राहत की बात यह है कि 160 करोड़ टीके की डोज पूरे भारत वर्ष में डाली जा चुकी हैं और जोश-खरोस के साथ पूरे देश में जारी है.
कोरोना ने हमारी सामाजिक एवं मानवीय सम्बन्धों के ताने-बाने को झकझोर कर रख दिया. एक-से-एक रसूख वाले को भी अपनी औकात का पता चल गया. पैसा और पद कोई काम नहीं आया. अस्पतालों में जगह नहीं, सेवा-सुश्रुषा के लिये अपने संबंधी या प्रिय जन तक नहीं पास जा सकते थे. भय का ऐसा माहौल था कि अधिकाँश डॉक्टर या नर्स मरीजों के वार्ड में जाते तक नहीं थे. वे इन वार्डों के दरवाजे के पास से झाँक कर आवाज लगा कर चले जाते थे. कोरोना के मरीज दवा-पानी के अभाव में , ऑक्सीजन के अभाव में दम तोड़ रहे थे. मृत मरीज शरीर का भी खौफ कम कहाँ था क्योंकि ऐसा ही निर्देश था कि सामाजिक दूरी बनाए रखनी है जिन्दा या मृत के भेद-भाव के बिना. क्या समाजवाद था ! ऐसे में इन मृत शरीरों के अन्तिम संस्कार का हक भी जाता रहा. बेटे अपने माता-पिता एवम अन्य अति नजदीक के संबंधी जनों के संस्कार से दूर रखे गए । जान पर खेल कर इन समाचारों के चित्र और विडियो इकठ्ठा कर प्रसारित करने वाले पत्रकारों ने जो परिदृश्य प्रस्तुत किया वह हृदय विदारक था.
क्रिकेट के स्कोर बोर्ड की तरह मृत , बीमार , कुल बीमार आदि की संख्या का राज्य वार ब्यौरा सुबह, दोपहर, शाम गूंजते रहते थे. फर्क बहुत था क्रिकेट तीन घन्टे या एक दिन या पांच दिनों का होता है लेकिन कोरोना का खेल जारी था. क्रिकेट में दोनों टीमें बारी-बारी से बैटिंग और बोलिंग करते हैं लेकिन यहाँ .....रनों की तरह सिर्फ विकेट जा रहे थे , खिलाड़ी ग्यारह नहीं लाखों करोड़ों थे और कोरोना गुगली, स्पिन, योर्कर ,बाउंसर से सबको धराशायी करता जा रहा था. हार का दर्द कुछ समय का होता है किन्तु यहाँ तो हर क्षण , हर दिन हार ही हार की खबर और उससे भी आगे और खौफनाक हार की खौफनाक आशंका में अनवरत इन्तजार. इन्तजार अपनी बैटिंग और आउट होने का.
इटली, स्पेन, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, अमेरिका आदि देश जो विकसित माने जा रहे थे सबके-सब इस महामारी के सामने घुटने के बल आकर जूझ रहे थे. महामारी पूरी दुनियाँ में फैल चुकी थी और हर देश की अर्थ व्यवस्था धराशायी होती जा रही थी. फैक्ट्रियों में उत्पादन, यातायात, स्कूल-कौलेज, पर्यटन आदि बुरी तरह प्रभावित हो गये. रोजगार जा रहे थे. भारत जैसे देश भी इससे अछूते कहाँ थे. अनेक तरह की आशंकाओं में लोग जी रहे थे. कोरोना भी रुका हुआ कहाँ था कुछ - कुछ महीनों के बाद ये भी अपने रूप बदलते जा रहे थे और बचने के नये-नये तरीकों पर प्रश्न चिह्न लगते चले जा रहे थे.
लोग सौ साल पहले स्पेन में फैले प्लेग से इसकी तुलना कर रहे थे. उस समय व्यापार, पर्यटन और खेलकूद एवं यातायात के उन्नत साधनों का इतना विस्तार नहीं था, नहीं तो यह और भी विकराल होता और पूरी दुनिया चपेट में आने से बच गयी होगी.उस समय तो मेडिकल क्षेत्र में भी इतनी प्रगति नहीं हुई थी. अभी मेडिकल क्षेत्र में यदि हम आगे हैं तो महामारी के फैलाने वाले कारक भी कई गुना विकसित हो गये हैं. अतः भयावहता का स्केल उस सौ साल पहले के मुकाबले किसी मायने में भी कम या ज्यादे होगा निश्चित रूप से कह नहीं सकते.
जो भी हो कोरोना ने हमारी अर्थ व्यवस्था को क्षत-विक्षत तो किया ही है, हमारे मानवीय सम्बन्धों और मूल्यों को भी तात्कालिक रूप से बदल दिया है.
जनवरी , 2022, कोलकाता ।