Thursday, 3 May 2012

सूखी टहनी

   

     -१-

वृक्ष की टहनी
झूमती , इठलाती
पवन - संग खेलती
पत्ते , फूल और फल के गुच्छे
संगी इनके
वसंत में आते
फिर जब भी ये विदा होते
विह्वल हृदय और सजल नेत्रों से
निर्निमेष नीहारती
किन्तु जीवंत आशा में
कि वसंत आएगा
पुनः यौवन लाएगा

       -२-

समय का दुश्चक्र आया
तेज हवा का झोंका लाया
टूट सब पत्ते गिरे
साथ सब फूल और फल गए
टहनी थी अब  विखंडित
पेड़ से लटकी हुई
बेबस बुढ़िया- सी
लाठी पटकती हुई
कोई संगी रहा न कोई सहारा
आशा रही न हिम्मत ज़रा



अमर नाथ ठाकुर . २०००, लखनऊ.

मेरे मन



तुम  क्या हो
पता नहीं -
तुम नहीं मिलते
अतः कुछ भाता नहीं -
राह भी देखूँ तो कोई आता नहीं
जाता-हंसता-रोता नहीं -

फिर भी एक परिहास सुनता हूँ
जो विजय-घोष नहीं
पराजय का अहसास नहीं

यह तो है
अंतर्निनाद का शंखनाद
जिसमें राग , भय , ईर्ष्या -द्वेष नहीं
मेरे मन !
चंचल , उद्विग्न , विपन्न-
फिर भी आसन्न मेरे संग -
निर्भय , निर्वसन , नंग , धड़ंग-
तुम्हारी चाल-चलन बिना वाहन -
सिर्फ खेलन-कूदन -

जाड़ा हो या गर्मी-बरसात
साथ-साथ
हर दिन-रात
तुम्हारा यह प्रण संग निभाने का
आजन्म -
सुख और दुःख में
हर्ष और विषाद में
सांझ-सवेरे
तुम्हारा यह तर्पण -

जो मुझे समझ में नहीं आता
यह सत्य मैं निगल नहीं पाता
मेरा-तुम्हारा यह नाता
न अता-न  पता
बड़ा अट-पटा

मेरा अंतर्निनाद !
मेरा अन्तर्द्वन्द्व !
मेरे अंतर्मन !
तुम वन्द्य
तुम्हें मेरा शत नमन !


अमर नाथ ठाकुर , मई-जून ,१९८९ , कलकत्ता .

वन्दना



मेरी व्यथा-कथा
मैं दीन -हीन
भूखा तुम्हारे आशीर्वचनों का -
चंचल मन
उद्विग्न
विपन्न
मैं सखा असंख्य दुर्व्यसनों का -

मैं टूटा दर्पण
बिना तन-मन का
तुम्हारी प्रतिमा उतार नहीं सकता -
मैं कृपण
उन्मादी
अपावन
तुम्हारी विलक्षणता को अपना नहीं सकता ?

जीजिविषा मानव-सेवा के लिए
उदार
सच्चरित्र
कर्मठ बनने की आकांक्षा -
हे देवि !
हे सहृदया !
हे दुर्गुणहारिणी !
साष्टांग वंदन करूँ
मुझे दो ये भिक्षा -


अमर नाथ ठाकुर , मई -जून , १९८७  , रूरकी . 

Sunday, 29 April 2012

एक प्रत्यक्ष - भोगी की साल २००८ की बानगी

       

      १

शायद यही हो महाप्रलय
अनंत वियोगों का विलय
न कोई खुशी
न कोई कलह
विरह ही विरह

        २

फसल डूबा
सड़कें डूबी
पुल और नहर हुआ क्षत-विक्षत
ग्राम-ग्राम सब
 जन-जानवर  विहीन हुआ
भूगोल बदला शत प्रतिशत
कैसी तूं कोशी मैया
क्यों पसारा तू ने ये मृत्यु -शय्या

        ३

द्रुत गति से पानी आया
जैसे घोड़े पर सवार
ह ह ह ह ह ह ह
पांच हाथ ऊंचे दीवार की भांति
दैत्याकार
इधर-से
उधर-से
उत्तर से
पश्चिम से भी
न कल्पित कभी
अचंभित सभी
धार इधर मुडती है
उधर चढ़ती है
इधर मचलती है
उधर कूदती है
 यहाँ उफनती है
यहाँ सहमती है
यह मरोड़
यह तोड़
चकरी की भाँति घूमता वृत्ताकार
वहाँ सर्पाकार
यहाँ निराकार
भाई , ये कौन सा प्रकार
ये पानी तो उन्मादी है
बेलगाम है
पाजी है
भाई जाग
जाग
और भाग


        ४
         
उधर से छागर , इधर से स्वान
गाय-बैल बिल्ली      अनजान
सांप-छुछंदर मानव सब एक समान
सब डूब उपला रहे
समूल-पेड़ पत्ते सब बहे जा रहे

          ५

अबला का उजड़ा सुहाग
शिशु का बिछुड़ा भाग
किसी बाप का पाग

        ६

वह कहाँ
वह बहा
ये लुटिया
ये खटिया
ये पटिया
वह काठ का बक्सा
वह तख्ता
ये टिनही थाली
ये लोटा
ये झोली
ये बाबा का सोटा
उनका कुर्ता
माँ की पोटली
माँ की साड़ी
जिंदगी भर की सारी कमाई
सब  'जमा' गया
सब समा गया
सब भरमा गया
काका का घर चरमरा गया
काकी का कोठा भरभरा गया
बुढ़िया दादी का संदूक बह गया
अलगनी से झूलता दादा का इकलौता अध भींगा कुर्ता  किंतु रह गया
चहारदीवारी लड़खड़ा गया
कल्पित भविष्य चरमरा गया
प्रलय सब बिखरा गया

        ७


ये संकटों का संकट
पानी पहूंचा अब आकंठ
जल-तल से घर की ऊँचाई
रह गयी तिहाई
रही न कहीं खाई
छोर रहित झील
मीलों-मील
कोई इस घर पर
कोई उस घर पर
कोई पेड़ पर
कोई नहर के छहर पर

        ८

हम यहाँ
पत्नी वहाँ
बालक कहाँ

         ९


अब न कोई पुकार
न कोई हाहाकार
न इस पार
न उस पार
नहीं अब कोई आर-पार
न कोई कोलाहल
न कोई चीत्कार
यही है प्रलय साकार


        १०  



भविष्य जैसे भूत हो
बाप जैसे पूत हो
बुद्धि भ्रमित
बूढ़ा-बच्चा सब एक समान
कहाँ अब कोई अरमान
लहूलुहान वर्त्तमान
एक सूर्य ऊपर
सौ-सौ सूर्य जल में तरंगित
बिखेरता सिर्फ कुटिल मुस्कान


        ११

जीवन एक प्रक्रिया
मृत्यु एक लक्ष्य
जन-जन जाने यह दर्शन
प्रलय सब पलट दे
मृत्यु को प्रक्रिया कर दे
और लक्ष्य बना दे जीवन

पलकों में जिसकी गणना हो
यह जीवन अब क्षणिक है
मृत्यु अब नहीं संकुचित
पलकों से आगे घंटों - दिनों में पहुंचा गणित है



अमर नाथ  ठाकुर , २९ अप्रैल ,२०१२ , कोलकाता.










मैं हर पल जन्म नया लेता हूँ

 मैं हर पल जन्म लेता हूँ हर पल कुछ नया पाता हूँ हर पल कुछ नया खोता हूँ हर क्षण मृत्यु को वरण होता हूँ  मृत्यु के पहले जन्म का तय होना  मृत्य...