-१-
वृक्ष की टहनी
झूमती , इठलाती
पवन - संग खेलती
पत्ते , फूल और फल के गुच्छे
संगी इनके
वसंत में आते
फिर जब भी ये विदा होते
विह्वल हृदय और सजल नेत्रों से
निर्निमेष नीहारती
किन्तु जीवंत आशा में
कि वसंत आएगा
पुनः यौवन लाएगा
-२-
समय का दुश्चक्र आया
तेज हवा का झोंका लाया
टूट सब पत्ते गिरे
साथ सब फूल और फल गए
टहनी थी अब विखंडित
पेड़ से लटकी हुई
बेबस बुढ़िया- सी
लाठी पटकती हुई
कोई संगी रहा न कोई सहारा
आशा रही न हिम्मत ज़रा
अमर नाथ ठाकुर . २०००, लखनऊ.