Tuesday, 1 October 2013

हिन्दी पखवाड़े के समापन समारोह पर प्रधान मुख्य लेखा नियंत्रक , पश्चिम बंगाल सर्किल के कार्यालय , कोलकाता में मुख्य-अतिथि के तौर पर दिनांक 30 सितंबर, 2013 को मैं आमंत्रित था । वहाँ मेरे दिये दिये गए भाषण के अंश :



भाषा अभिव्यक्ति का सबसे सशक्त माध्यम होती है । नृत्य की भाषा अलग होती है । लोग इशारों में भी बात करते हैं । लेकिन यदि भाषा के प्रयोग में कान का प्रयोग हो तो फिर अभिव्यक्तियों के सम्प्रेषण की गति असीमित रूप से बढ़ जाती है । कल्पना करें कि टेलीफोन , सिनेमा , टीवी इत्यादि की क्या उपयोगिता रह जाएगी यदि ध्वनिमय भाषा नहीं हो । हमारी विकास की गति अवरुद्ध हो जाएगी । ये दुनिया , ये ब्रह्मांड अर्थहीन हो जाएगी । ये शहरीकरण , ये वैश्वीकरण सब भाषा पर निर्भर हैं। अतः अपनी भाषा के उन्नयन और संवर्धन की बात हम करते हैं ।
भाषा की मधुरता किसी को मित्र बना ले , भाषा की कठोरता किसी को शत्रु बना ले ।
भाषा देश की अक्षुण्ण अखंडता  के लिए आवश्यक है ।
भाषा विकास  के लिए जरूरी है । इसलिए तो कहते हैं – एक देश , एक संविधान , एक झण्डा , एक भाषा ।
भाषा हमारे जीवन-मरण से जुड़ी हुई है । इससे विलगाव संभव नहीं है । भाषा हमारी अस्मिता से जुड़ी हुई है । तभी तो हम अपनी भाषा को बचा कर रखते हैं । देखिये अङ्ग्रेज़ी में एक कवि क्या कहता है :   
If you don’t breathe ,
There is no air .
If you don’t walk ,
There is no earth .
If you don’t speak ,
There is no earth .
यही कारण है की हम अपनी भाषा को बचा कर रखते हैं ।
भाषा में जीव जैसे कुछ गुण हैं । भाषा जन्मती है । भाषा मिटती है या यों कहें की मरती है । भाषा लुटती है । भाषा विलुप्त होती है । भाषा मृतप्राय हो जाती है ।
हिंगलिश बोलचाल की एक नई भाषा बन गई है – हिन्दी और अङ्ग्रेज़ी ( इंगलिश ) के संयोग से । मोबाइल पर वार्ता ( chatting ) के लिए एक नई संकेतात्मक भाषा बन गई है । जरूरत के हिसाब से भाषा बन जाती है ।  जरूरत के हिसाब से भाषा बनती-बिगड़ती है । कोई भाषा कमजोर नहीं होती । कोई भाषा गरीब नहीं होती । कोई भाषा स्वयं में सम्पन्न नहीं होती । भाषा को ऐसा हमलोग बनाते हैं । भाषा हमारी वजह से कमजोर बन जाती है । भाषा हमारी वजह से गरीब बन जाती है । भाषा को हम ही अपनी रचनाओं से सम्पन्न बनाते हैं । फिर, सम्पन्न भाषा असंपन्न भाषा को निगल भी  जाती है । सम्पन्न समुदाय की भाषा अन्य समुदाय पर थोप दी जाती है । कभी सरकारें भाषा थोपती हैं । पूर्वी साइबेरिया में ऐसी ही सरकारी नीति है कि लोग राष्ट्रीय अथवा क्षेत्रीय भाषा का ही प्रयोग करें । इससे वहाँ की प्रजातियों में बोली जाने वाली भाषाएँ विलुप्त – सी होती जा रही हैं ।  भाषा और कई  वजहों  से विलुप्त होने लगती है । शहरीकरण , वैश्वीकरण , लोगों का एक जगह से दूसरी जगह विस्थापन या पलायन  , सैनिक हस्तक्षेप , धार्मिक प्रचार-प्रसार के लिए लिये गए उपाय इत्यादि ऐसे कारण हैं जो भाषाओं को विलुप्त करने , भाषाओं के मरने अथवा भाषाओं के मृतपाय हो जाने के कारण बनते हैं ।
क्या आपने कभी सोचा है कि भाषाओं के इस क्षरण के क्या दुष्परिणाम हो सकते हैं । अधिकांश भाषाएँ लिखित रूप में नहीं हैं , ये डोकुमेंटेड नहीं हैं अतः इन भाषाओं में पोषित ज्ञान एवं संस्कृति का अथाह भंडार हम खो देंगे । हमारी ऐतिहासिक विरासत , हमारा दर्शन , हमारा जीवन-मुल्य जो इसमें समाहित है सब-के-सब हम एक झटके में खो देंगे । फिर मुल्य-रहित , संस्कृति-विहीन , विरासत- रहित जीवन जीने का क्या अर्थ रह जाएगा । हम अनुशासन हीन , असभ्य और अराजक समाज का हिस्सा बन जाएंगे ।
और चूंकि हमारा जीवन-मरण भाषा पर निर्भर है , इसलिए हम भाषा को कभी-कभी माँ का दर्जा भी  देते हैं । भाषा के साथ हमारा भावनात्मक लगाव हो जाता है । यह लगाव इतना ज्यादा हो जाता है कि हम अपनी भाषा के लिए लड़ने-झगड़ने लगते हैं । कभी-कभी तो भाषा के लिए खून-खराबा तक कर लेते हैं और कभी-कभी तो जान की बाज़ी तक लगा बैठते हैं जबकि यह दंगे का रूप ले लेती है । भाषा का अपमान अपना अपमान अपनी माँ का अपमान समझ बैठते हैं ।  देखिये विलुप्त होती मृतपाय-सी इवेंती (Eventi ) भाषा के एक कवि अलितेत नेमतुश्किन इस निम्नकथित कविता में क्या भाव व्यक्त कराते हैं :

If I forget my speech,
All the songs that my people sing ,
What use are my eyes and ears ?
What use is my mouth ?

If I forget the smell of the earth ,
And do not serve it well ,
What use are my hands ?
Why am I living in the world ?

How can I believe the foolish idea ,
That my language is weak and poor ,
If my mother’s last words
Were in Eventi ?

कवि महोदय अपनी भाषा इवेंती के बोलने वाले में शायद इने-गुने अंतिम सदस्यों में थे । इनकी वेदना और इनका लगाव इनकी इन शब्दों के द्वारा समझा जा सकता है ।

कहीं मुझे किसी भाषा वैज्ञानिक के माध्यम से पढ़ने को मिला कि पूरी दुनियाँ में करीब 7000 भाषाएँ बोली और समझी जाती हैं । इनमें से आधी से ज्यादा इसी शताब्दी में विलुप्त हो जाने की कगार पर हैं । औसतन हर दो सप्ताह में एक भाषा मर जाती है , या विलुप्त हो जाती है । पूरी दुनिया में पाँच ऐसे क्षेत्र हैं जहां भाषाएँ बड़ी तेज़ी से विलुप्त होती जा रही हैं – उत्तरी औस्ट्रेलिया , मध्य-दक्षिण अमेरिका , उत्तरी-अमेरिका का प्रशांत-सागरीय इलाका , पूर्वी साइबेरिया , एवं ओकलाहोमा तथा दक्षिण-पश्चिम अमेरिका का क्षेत्र । ये तथ्य नेशनल जीयोग्राफिक सोसाइटी एवं लिविंग टंग्स इंस्टीट्यूट फोर इनडेंजर्ड लैंगवेज़ के गहन फील्ड-शोध एवं असंख्य सांख्यिकीय विश्लेषणों पर आधारित है ।

स्वार्थमोर कॉलेज के असिस्टेंट प्रोफेसर श्री के डेविड हैरीसन बताते हैं आधी से ज्यादा भाषाएँ लिखित रूप में प्रकट नहीं की जा सकती हैं इसलिए इस पर खतरे की घंटी है । आगे बताते हैं – औस्ट्रेलिया में 231 भाषाएँ वहाँ की आदिम प्रजातियाँ बोलती हैं और जो विलुप्त होने की कगार पर हैं । उनके ये मनोरंजक तथ्य देखिये । मागातिके एवं यावुरु भाषाओं के बोलने वाले सिर्फ तीन-तीन लोग बच गए हैं । अमुरदाग भाषा को बोलने वाला तो सिर्फ एक व्यक्ति जीवित है । क्या पता , ये शोध पुराना है , हो सकता है मेरे इस  भाषाण के समय तक ये तीनों भाषाएँ काल कवलित हो गई हों ।

प्रोफेसर आगे बताते हैं – आनदेस पहाड़ियों एवं आमेजन बेसिन में 113 भाषाएँ बोली जाती थीं जो स्पेनिश और पोर्चुगीज़ भाषाओं के द्वारा निगली चली जाती जा रही हैं ।  अमेरिका के उत्तर-पश्चिम पठार इलाके में अङ्ग्रेज़ी के डोमिनेंस की वजह से वहाँ की 54 आदिम भाषाओं पर खतरा मंडरा गया है । कुछ वर्षों पहले तक वहाँ सिलेट्ज़ दी-नी  भाषा बोलने वाला एकमात्र व्यक्ति जीवित था । अमेरिका के ही ओकलाहोमा , टेक्साज और न्यू – मेक्सिको क्षेत्र में 40 मूल भाषाएँ अब मृतपाय हो गई हैं । ईस्टर्न साइबेरिया में सरकार की नीति की वजह से अपनी बोलियों को छोड़कर जनजातियाँ  राष्ट्रीय अथवा क्षेत्रीय भाषाओं के प्रयोग के लिए बाध्य हैं ।

एक प्रसिद्ध पुस्तक Humanity – An Introduction to Cultural Anthropology के अनुसार पूरी दुनिया में 3000-9000 भाषाएँ हैं और अगली शताब्दी में इनमें से सिर्फ 10 % ही अपने को बचा पाएँगी ।

अलास्का नेटिव लैंगवेज़ सेंटर के डाइरेक्टर माइकेल क्रौस्स के अनुसार पूरी दुनिया में 6000 भाषाएँ 2050 ईसवी तक विलुप्त हो जाएंगी या मर रही होंगी । और भविष्य में सिर्फ दर्जन भर भाषाएँ ही रह पाएँगी ।

युनेस्को की 2003 की रिपोर्ट भी मिलती-जुलती बातों का खुलासा करती है । कहती है दुनिया में 6000 भाषाएँ हैं । इनमें से आधी जो अलिखित और अनडौक्यूमेंटेड हैं , इसी शताब्दी के अंत तक विलुप्त हो जाएंगी । यह रिपोर्ट बताती है कि दुनिया की 97 % आबादी सिर्फ 4 % भाषाएँ बोलती हैं । इसका यह भी मतलब है कि 96 % भाषाएँ सिर्फ 3 % लोगों द्वारा बोली जाती हैं । 21 वीं शताब्दी में विलुप्त होने वाली भाषाएँ वैश्विक भाषाओं द्वारा प्रतिस्थापित हो जाएंगी ।

युनेस्को की 2009 की रिपोर्ट कुछ और भी डरावनी बातें प्रकाश में लाती हैं । 6000 भाषाओं में 2500 भाषाएँ खतरे की श्रेणी में हैं , जो कभी भी विलुप्त हो सकती हैं , 200 भाषाएँ विलुप्त हो चुकी हैं , 178 भाषाएँ 10 से 50 लोगों द्वारा ही बोली जाती हैं , 199 भाषाएँ 10 या 10 से कम लोगों द्वारा बोली जाती है ।

एक दूसरा अध्ययन बताता है कि दुनिया की आधी से ज्यादा भाषाएँ बोलने वाले 10 हज़ार या उससे भी कम लोग हैं । दुनिया की एक चौथाई भाषाएँ हज़ार से भी कम लोग बोलते हैं ।
1998 का एक लेख यह पहले ही बता चुका है कि मंदारिन चाइनीज़ , अङ्ग्रेज़ी , हिन्दी , स्पेनिश , रसियन तथा अराबिक वैश्विक भाषाओं की श्रेणी में आते हैं । इनके बोलने वाले क्रमशः 103 करोड़ , 50 करोड़ , 48 करोड़ , 41 करोड़ , 28 करोड़ तथा 24 करोड़ लोग दुनिया में थे । ये संख्या अब काफी बढ़ गई होंगी क्योंकि आज की तिथि में जनसंख्या भी बढ़ गई है और इन भाषाओं ने कई – कई भाषाओं को अपने में लील भी लिया होगा । इन अध्ययनों में सबसे चौंकाने वाली तथा मन को सुकून पहुंचाने वाली एक बात बताते हुए हमारा मन अत्यंत ही आनंदित हो रहा है कि अगली शताब्दी में जब दर्जन भर से भी कम भाषाएँ रह जाएंगी तो उसमें अपनी हिन्दी भी अक्षुण्ण बनी रहेगी । यह भारत की उन तमाम अन्य भाषाओं के लिए खतरे का  तथा उदासी का  पैगाम है । उस समय तक रसियन एवं अराबिक जैसी समृद्ध भाषाओं पर भी विलुप्तता का खतरा मँडराता रहेगा ।

आइये अपने भारत के संबंध में भी कुछ मनोरंजक तथ्यों से वाकिफ हो लें । अंग्रेजों के समय में जार्ज ग्रियर्सन महोदय ने 1894 से 1928 के मध्य भारतीय भाषाओं पर विशद शोध किया था । किन्तु उन्होंने सिर्फ 364 भारतीय भाषाओं के अस्तित्व में होने की बात कही थी । उनका काम प्रसंशनीय होते हुए भी वास्तविकता से काफी दूर था । 1961 की जनगणना 1652 भाषाओं की जानकारी देता है । 1991 की जनगणना 1576 भाषाओं तक सीमित हो जाती है । 2001 की जनगणना कुछ विशेष बातें प्रकाश में लाता है । 30 भाषाएँ दश लाख से ज्यादे लोग बोलते हैं । 60 भाषाएँ एक लाख से ज्यादे लोग बोलते हैं । 122 भाषाएँ दश हज़ार से ज्यादे लोग बोलते हैं । इनमें से हिन्दी बोलने वाले 41 % लोग थे ।

हाल ही में इसी सितंबर , 2013 में पीपल्स लिङ्ग्विस्टिक सर्वे औफ़ इंडिया ने पूर्व कथित सी ही कुछ बातें बताई हैं । गणेश डेवी जिनके पर्यवेक्षण में यह सर्वेक्षण कार्य  चल रहा था और जिनके 3000 कार्य - कर्ताओं ने करीब चार सालों तक अथक परिश्रम करके महत्त्वपूर्ण तथ्य उजागर किए हैं , बताते हैं 780 भाषाएँ हैं , 100 से कुछ और ज्यादे हो सकती हैं । इस तरह कुल 900 भाषाएँ  हो सकती हैं । सिर्फ उत्तर-पूर्व में ही 250 भाषाएँ हैं । उनका कहना है , पिछले 50 वर्षों में 220 भारतीय भाषाएँ विलुप्त हो चुकी हैं , अन्य 150 अगले 50 वर्षों में विलुप्त हो जाएंगी ।

इन रिपोर्टों तथा तथ्यों को देख कर आइये आज हम शपथ लें कि हिन्दी के उन्नयन एवं संवर्धन के लिए काम करेंगे । एक और तथ्य कि छोटी भाषाएँ बड़ी भाषा की सहयोगिनी बनकर अनंत काल तक जीवित रह सकती हैं , हममें एक आशा का संचार करता है कि तमाम अन्य भारतीय भाषाएँ हिन्दी की सहयोगिनी बनकर हिन्दी को समृद्ध करेगी तथा हिन्दी के साथ अनंत काल तक जीवित रहेंगी । हमारा  देश भारत इस एकमात्र हिन्दी की वजह से अपनी एकता एवं अखंडता को बचाए रखेगा और भविष्य में पूरी दुनिया को नेतृत्व प्रदान करेगा ।

जय हिन्दी ! जय भारत !

अमर नाथ ठाकुर , 30 सितंबर , 2013..

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