Monday, 26 March 2012

आत्म -तुष्टि



आसमान में अदृश्य होता -सा धुंआ
झील में विलीन होते -से  वर्षा -बूँद
भीड़ के कोलाहल में असुना -सी शिशु की चीत्कार --

ख़ाक होती -सी कल्पनाएँ
बिखर- बिखर जाती  -सी आशाएँ
"हाय बचाओ " की अनसुनी -सी पुकार --

सिमटकर रहने की -सी विवशता
रुग्णता की लक्ष्यहीन -सी परिधि
पुनः सीढ़ियों पर डगमगाते -से पग बारम्बार --



ऐसे में भी जीवनाकृति का खींच पाता प्रारूप ---
और देख लेता भविष्य की कँपकँपाती खोह में थोड़ी -सी धूप---


अमर  नाथ ठाकुर ,  १९८९ .

रास्ते जीवन के



हमने तुम्हारा पीछा किया
और तुम भागते रहे -

हम जब भागे
तो तुम मुड़ते रहे -

तुम्हारे पेंच समझ में नहीं आए -

जब हम तेज होते गए
तो फिर चौराहे मिलते गए
और हम भटकते रहे --

अट्टालिकाएँ तुम में नज़रें गड़ाए
भग्नावशेष पीठ घुमाए
पेड़ मुस्कराते -से रहे -
फिर भी हम चलते रहे -

मील -पत्थरों से तुम सीमित हुए,
गड्ढों से तुम बाधित हुए,
और हम आशान्वित हुए (शायद लक्ष्य  समीपता का संकेत समझ कर)
जब तुम्हारी छाती को एक नदी चीर -सी गयी,
लेकिन हम तो डूब गए -----


अमर नाथ ठाकुर , मार्च , १९८९ .  

मैं हर पल जन्म नया लेता हूँ

 मैं हर पल जन्म लेता हूँ हर पल कुछ नया पाता हूँ हर पल कुछ नया खोता हूँ हर क्षण मृत्यु को वरण होता हूँ  मृत्यु के पहले जन्म का तय होना  मृत्य...