Monday, 26 March 2012

रास्ते जीवन के



हमने तुम्हारा पीछा किया
और तुम भागते रहे -

हम जब भागे
तो तुम मुड़ते रहे -

तुम्हारे पेंच समझ में नहीं आए -

जब हम तेज होते गए
तो फिर चौराहे मिलते गए
और हम भटकते रहे --

अट्टालिकाएँ तुम में नज़रें गड़ाए
भग्नावशेष पीठ घुमाए
पेड़ मुस्कराते -से रहे -
फिर भी हम चलते रहे -

मील -पत्थरों से तुम सीमित हुए,
गड्ढों से तुम बाधित हुए,
और हम आशान्वित हुए (शायद लक्ष्य  समीपता का संकेत समझ कर)
जब तुम्हारी छाती को एक नदी चीर -सी गयी,
लेकिन हम तो डूब गए -----


अमर नाथ ठाकुर , मार्च , १९८९ .  

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