Wednesday, 31 December 2014

नव वर्ष का स्वागतम



नव वर्ष का शुभागमन
नव वर्ष का वंदन ।

नव कलिका नवल किसलय
नव - नवल मंजर का आभरण
नव - नवल निर्मल शीत कण
नव - नवल कुसुमित उपवन ।
नव वर्ष का शुभागमन ।

नव संगीत नवीन भजन
नव - नवीन वंशी धुन
नव ऊर्जा से सिंचित  हर्षित मन ।
नव वर्ष का शुभागमन ।  

शोक न दुःख न गत वर्ष का क्रंदन
नूतन आशा नवल स्फूर्ति का संचारण
नवल धवल सहस्र सूर्य - किरण
नव - नवल संकल्प से नव वर्ष का पदार्पण ।
नव वर्ष का शुभागमन ।

सत करे अब असत का अपहरण
अमृत पुत्र तू क्यों करे मृत्यु को वरण
तमस का बहिर्गमन अब ज्योति का आगमन ।
नव वर्ष का शुभागमन ।

नवल परिकल्पना से झूम-झूम, बन तू नवीन मन
तंद्रा तू त्याग तन , हे विस्फारित अकुलित नयन !
ये आहट नव वर्ष का शुभागमन ।
सब मिल करें नव वर्ष का अभिनंदन
नव वर्ष का वंदन
नव वर्ष का स्वागतम  !

नव वर्ष की शुभकामनाएँ सब को !!!!!!!!!!!!

अमर नाथ ठाकुर , 31 दिसंबर , 2014 / 1 जनवरी , 2015 , कोलकाता । 

Saturday, 15 November 2014

बढ़ती उमर चढ़ती माया


ढलता सूरज बढ़ती छाया
बढ़ती उमर  चढ़ती माया
जीवन का ये कौन प्रहर आया
चिंता-निमग्न रुग्ण काया
सत्य-असत्य में तब भरमाया
सिर चढ़ा स्वार्थ का साया
कहाँ करुणा कहाँ गयी दया
यह है अपना वह है पराया
नीति-दुर्नीति में मन उलझाया   
अब तक क्या खोया क्या पाया
नहीं कभी हिसाब लगाया
बुद्धि भ्रष्ट हुई विवेक विलाया
जब भी मानव तूँ सठियाया ।
ढलता सूरज बढ़ती छाया
बढ़ती उमर चढ़ती माया ।

अमर नाथ ठाकुर , 13 नवंबर , 2014 , कोलकाता ।


पाखंड

माला खट-खट दिल बहलाया
मिथ्या भक्ति पर तू  हर्षाया
जब-तब खोटे आसूँ भी बरसाया
तीरथ-तीरथ भागा गंगा भी नहाया
गेरू/सफेद वस्त्र का चोला पहन लहराया
दाढ़ी बढ़ायी टीका-चन्दन  सजाया
ओठों पर राम बगल में छूरी चमकाया
आस्था लूट झोंपड़ी पर महल बनाया
बखान कितना क्या करूँ हे भाया
इन साधुओं ने कितने को बरगलाया ।
  
अमर नाथ ठाकुर , 13 नवंबर , 2014 , कोलकाता ।   



Wednesday, 12 November 2014

जीवन वाहन चलता जाता


      -1-

एम्बूलेंस भागती कभी अग्निशामक वाहन टनटनाती
बसों कारों वाहनों की कतार की कतार निकलती
लाल बत्ती पर रूकती कभी पड़ाव पर ठमकती
टकराती चूमती कभी ओवरटेक करती रगड़ खाती
कभी पलटती कभी उलटती कभी पिचकती
कभी घायल कर कभी रौंद कर भाग पड़ती
आगे निकलती कोई पीछे छूटती कोई साथ चलती
कोई धुआँ छोड़ती घड़घड़ाती कोई सरसराती
कोई सुरीली हॉर्न बजाती बिना रुके चलती जाती
कोई लक्ष्य पर पहूंचती कोई विपथ हो भटकती
पंप पर पेट्रोल-डीजल खाती कोई हवा पीती
कोई पंकचर होती किसी की हवा निकलती
कोई धुएँ टेस्ट में पास होती कोई फेल होती
किसी का चालान कटता कोई बेदाग निकलती
कोई गड्ढे में उछलती कोई कीचड़ में अटकती
कहीं ठेलकर कहीं ब्रेक वैन से गैरेज पहुँचती
फिर डेंटिंग-पेंटिंग ओवरहौलिंग कराती
नई बॉडी में चम चमा कर निकलती ।
और फिर ये गाडियाँ चलती जाती चलती ही जाती ।

      -2-

यह जीवन वाहन भी ऐसे ही चलता जाता
भटकता टकराता रगड़ खाता गिरता उठता पड़ता
कभी धूल फाँकता कभी कीचड़ में सनता
पसीने में लथ-पथ कभी ठंढ में कंपकंपाता
बिखरे बालों में कभी सुलझे कपालों में झलकता ।
मंदिर के सहारे मस्जिद के किनारे कभी गिरिजाघर के द्वारे
ये जीवन वाहन चलता जाता ये जीवन वाहन चलता जाता ।
किसी का साथ मिलता कोई बिछुड़ता
कोई धोखा देता कोई जार-जार रूलाता
कोई फँसाता कोई झिड़कता कोई हँसाता ।
कभी मधुर संगीत की ध्वनि आती कभी होता कोलाहल
अमृत सदृश शीतल पावन जल कभी मिलता कड़वा हालाहल
कहीं झंकाड़  झोंपड़ी मिलती कभी आलीशान महल ।
कभी झकझोरती आंधी कभी मूसलाधार बरसात मिलती
कभी सपाट मैदानी रास्ता कभी रास्ते पर झाड़ मिलती
टिमटिमाते  सितारों का सहारा कभी सूरज की गर्मी  विलखाती
कभी कड़कती बिजली राह दिखाती कभी चाँदनी भी भटकाती  
कभी कांटे कभी रंग-बिरंगी मद भरी फूलों की क्यारी मिलती
कभी निर्जल बलुआही रेगिस्तान कभी मैदानी हरियाली मिलती ।
कभी कटाक्ष गालियाँ मिलती कभी प्रसंशा का मधुर पान
कभी एक का साथ मिलता कभी विरुद्ध सारा जहान ।
      फिर भी ये जीवन वाहन चलता जाता चलता जाता ।
      फिर भी ये जीवन वाहन चलता जाता चलता जाता ।
मरहम पट्टी लगती कभी किडनी हृदय फेफड़ा बदलता
अस्पताली गैरेज से नूतन तन धारण कर जब भी निकलता
ये जीवन वाहन चलता जाता , ये जीवन वाहन चलता जाता ।  


अमर नाथ ठाकुर , 9 नवंबर , 2014 , कोलकाता । 




Sunday, 2 November 2014

ऊंचे लोग और नीचे लोग


इमारत के ऊपर इमारत
उसके ऊपर भी इमारत
और उसके भी ऊपर इमारत
ये होती है बहुमंज़िली इमारत ।
और कलकत्ते में होती हैं ऐसी अनेक बहुमंज़िली इमारतें
एक ही जगह , कतार की कतार
कई कतार , दर्जनों कतार ।
और उनमें रहने वाले लोग
धनवान लोग होते हैं ।
जवान भी होते हैं , बूढ़े भी होते हैं
लेकिन वो ऊपर नहीं ताकते
क्योंकि चाँद , तारे और सूरज परमात्मिक होते हैं । 
वो सिर्फ नीचे ताकते हैं । 
नीचे के लोग उन्हें बौने नज़र आते हैं 

और वो उन्हें देख कर हँसते हैं ।


क्यों , ऊपर वाले लोग निम्न विचार वाले होते हैं ?  

नीचे  झोंपड़ियाँ होती हैं
झोंपड़ियाँ और सिर्फ झोंपड़ियाँ
कतार की कतार , दर्जनों कतार ।
और कलकत्ते में ऐसी अनेक झोंपड़ बस्तियाँ होती हैं ।
इन झोंपड़ बस्तियों में अनेक लोग रहते हैं
जवान , बूढ़े और बच्चे ।
ये सब हमेशा ऊपर ही ताकते हैं
या बराबर में ताकते हैं

ये नीचे नहीं ताक सकते 
क्योंकि नीचे धरती होती है अपारदर्शी ।

ये आसमान में देखते हैं 
चाँद , तारे और सूरज को । 
अनायास पा लेते हैं नैसर्गिक आभा ।
और क्यों, क्या ये इसलिए ऊंचे विचार वाले हो जाते  हैं ? 
ये देखते हैं ऊपर बहुमंज़िली इमारत के लोगों को ।
वो भी इन्हें बौने दीखते हैं ।
लेकिन ये जानते हैं कि ये बौने लोग
ऊंचे पहुँचे लोग होते हैं ।
इनके मन में कोई दुविधा नहीं होती
क्योंकि इन्हें पता है कि विशाल जहाज़ भी आसमान में उड़ते हुए
पिद्दी – सा मालूम पड़ता है ।

और ऐसे ही शुरू हो जाता है ऊंच – नीच का भेद
बड़े लोग और छोटे लोग का भेद
धनवान और गरीब का भेद
उच्च विचार और निम्न विचार का भेद ।

अमर नाथ ठाकुर , 1 नवंबर , 2014 , कोलकाता ।


Thursday, 30 October 2014

प्रकृति का मनमोहक नज़ारा


          दूर हिमालय  की चोटी  रजत  धवल बर्फीली
          नीचे दूर–दूर तक पसरी भारतवर्ष की हरियाली
कहीं झर–झर  झर–झर  झरता  झरना
कहीं कल-कल करता नदी जल सुहाना ।
              वृक्ष  शाखाओं  पर पक्षी  वृंद  का  कलरव
              झील तट का वातावरण शांत स्निग्ध नीरव । 
तालाबों में तैरते मगर , मछलियाँ , उपलाते कमल
क्रीडा करते  हंस, बत्तख , बगुला और सारस दल ।     
              मंद–मंद कोमल वायु का शीतल स्पंदन
              रंग-बिरंगे पुष्प-लताओं से सज़ा उपवन ।
सागर तट पर ध्वनि हाहाकार
दौड़ती कूदती फाँदती लहरें दैत्याकार
ऊपर नीला आकाश , पूर्ण चंद्र निराकार
और टिमटिमाते तारों का असंख्य परिवार
कभी कड़कती बिजली , चमचमाती दिशाएँ
उफनते सागर में दूर दिखती तैरती नावें ।
         क्षितिज पर छिपता दिन , क्षितिज से ही झाँकता सवेरा
         बाघ ,  कुत्ता ,  हाथी ,  मानव  सबका यहाँ  बसेरा ।
प्रकृति का नज़ारा , मनमोहक , मनभावन कितना प्यारा !!!


अमर नाथ ठाकुर , 30, अक्तूबर , 2014 , कोलकाता ।  

Wednesday, 22 October 2014

दीपावली में जब दीये हज़ार जलेंगे



दीपावली में जब दीये जलेंगे
कीड़े सब मरेंगे
पुण्य खूब फलेंगे  
पाप सब कटेंगे ।
             काले बादल छटेंगे
             सूर्य रश्मियाँ बिखेरेगा
             बसंत बहार छाने लगेंगे  
             उपवन फूलों से सजेंगे ।
समय पर ऑफिस खुलेंगे
जल्दी सब काम निपटेंगे
बिना मूल्य मुँह–मांगा काम करेंगे 
मुस्कुरा कर कर्मचारी प्रणाम करेंगे 
सेवा उपरांत धन्यवाद से मान करेंगे ।
प्रजा    मुग्ध  रह  जाएगी
दीपावली में जब दीये जलेंगे ।
            न लूट आतंक की कोई खबर होगी
            न कोई हत्या और बलात्कार होगा , 
            बातचीत से हर समस्या हल होगी
            हड़ताल से न कोई सरोकार होगा ।
अस्पतालों में दवाइयाँ मिलेंगी
डॉक्टर ड्यूटी पर मिलेंगे , 
नालों की सफाई हुई रहेगी
कचड़े अब नहीं महकेंगे ।
दीपावली में जब दीये जलेंगे ।
               दुकानें अभावों से दूर रहेंगी 
               मिलावट की नहीं होगी कोई खबर ,
               दाम के दाम में चीज़ें मिलेंगी
               सभी टैक्स चुकाएंगे बराबर ।
जन – वितरण प्रणाली
दुरुस्त हो रहेंगी , जनाब ।
पूरा वजन मिलेगा वहाँ
अनाजों का होगा सही हिसाब ।
गैस – पेट्रोल सब सस्ते हो जाएंगे ,
जमाखोरों के हाल खस्ते हो जाएंगे ।
दीपावली में  जब दीये जलेंगे ।  
                सांसद निधि में सांसद कमीशन नहीं लेंगे
                ठेकेदार–इंजीनियर की साँठ–गांठ टूटेगी
                विकास के काम पूरे और पक्के होंगे
                भ्रष्ट अधिकारियों की कड़ी झट  टूटेगी ।
थानों में अब दलाल नहीं बैठेंगे ,
ट्रांसपोर्ट ऑफिस में हलाल नहीं करेंगे ,
मंदिर–मस्जिद के आगे कंगाल नहीं मिलेंगे । 
दीपावली में जब दीये हज़ार जलेंगे ।
                 न्यायालय में केसों का निपटारा होगा ,
                 वकील–जजों का नहीं अब बंटवारा होगा ,
                 न्याय की न अब बिक्री होगी , 
                 दीपावली में जब  दीये जलेंगे ।
प्रशासन अब निरपेक्ष रहेंगे , 
ऊंच–नीच , जाति-पांति के भेद मिटेंगे , 
सांप्रदायिकता पर पटाक्षेप पड़ेंगे ,
दीपावली में जब दीये जलेंगे ।
                 लोक शाही सशक्त होगी
                 नौकर शाही विरक्त होगी
                 शीघ्र अच्छे दिन बहुरेंगे ,
                 दीपावली में जब दीये जलेंगे ।
बच्चों के हाथ अब कटोरे नहीं दीखेंगे ,
बाल-श्रम से मुक्त लड़की-लड़के स्कूल चलेंगे , 
अज्ञान कटेंगे , अंधकार मिटेंगे
दीपावली के जब दीये हज़ार जलेंगे ।

दीपावली की शुभकामनाएँ इन्हीं आशाओं के साथ !

अमर नाथ ठाकुर , 22 अक्तूबर , 2014 , कोलकाता । 

Tuesday, 21 October 2014

गाँव की सोंधी याद



-    1 -        
साँय –साँय बहती पछिया  हवा
लोट-पोट करते धान के लहलहाते पौधे
खन-खन खन-खन करती धान की पीली-पीली बालियाँ
घड़-घड़ घड़-घड़  घडघड़ाते ऊंचे-ऊंचे झूमते
रगड़ खाते हरे-हरे  बांस
झन-झन झन-झन करते
फट-फट फटाते थर्राते पीपल के असंख्य पत्ते
झर-झर झर्राते ताड़ नारियल खजूर  के हत्थे ।
मौन खड़ा वहाँ एक ठूंठ आम का विशाल वृक्ष
फल – पत्र विहीन जैसे शोक – संतप्त  
तिस पर बैठे  झांव-झांव करते  दर्जनों कौवे
जैसे असहाय बुढ़वा कक्का
और लड़ते – झगड़ते  परिवार के सारे लोग ।
दूर से दिखते शिरीष , शीशम , सेमल
सिपाही की भांति तैनात सावधान ।  
घर के पिछवाड़े के केले के पेड़ 

कंप-कंपाते , लहराते  उसके फटे अध - टूटे पत्तल
जैसे बुढ़िया दादी का अर्द्ध – नग्न वदन पर कमर तक लहराता

 आँचल ।

सामने खड़ा वर्षों पुराना कटहल का पेड़

जड़ से फुनगी तक मोछियों ( फल ) से लदा

जैसे अध लेटी बुढ़िया दादी के अंग-प्रत्यंग पर बैठे 

किस्सा - कहानी सुनने को जिद्दी बच्चे । 
आम और अमरूद के बगान ,
कंटीले बबूल  और खैर के पेड़ों से घिरे खेत 
इमली , पपीते , महुआ , बेर और अनार  
मक्का , ज्वार और कभी- कभी कुसियार
कभी हरी – हरी नुकीली गेहूं की गठीली बालियाँ
कभी पीले – पीले फैले चादर जैसे मनोहारी सरसों ।

-    2 -
कभी जाड़ा भला लगता
बोरी बिछाकर धूप में पीठ की सिंकाई करते बच्चे - संग 
कौड़ी , गोली , घुच्ची और गिल्ली – डंडे का खेल होता   
कभी ठंढ हाड़ को ठर्रा देता
कट कटाते दाँत , शीतलहरी वाले भोर
जब आग के उलाव सहारा बनते ।  
तब गर्मी की याद सताती 

याद करते चुक्का और कबड्डी , 

पीटो और लुका-छिपी के उधम मचाने वाले खेल  
गर्मी में  तर – बतर पसीने से हाल - बेहाल 

ऊमस से चिट - चिट करता वदन 
राहत के लिये हाथ वाले पंखे झलते
कक्का और दादी के हाथ में ये पंखे
सबेरे के बतास जैसी शीतलता देते
हम उनके कंधे पर अपनी टुड्डी रख शीतलता में हिस्सेदारी लेते । 

तब फिर वसंत की याद आती
आम के मंज़र से ढंके आम के हरे – हरे पत्ते
उचक –उचक कर दीवार के पार झाँकते से जैसे बच्चे  
तब कोयल की कूक भी क्या निराली होती ।
कभी वर्षा मन भावन होती
उमड़ – घुमड़ करते मेघ
बीच से ताक - झांक करते सूर्य देवता  
अंत हीन आकाश में गोल - गोल चक्कर काटते गिद्ध और चील का नज़ारा
झर – झर झरते मूसलाधार वर्षा जल
फूस के छत से रिसते वर्षा जल बूंद    
मेढकों के  टर्र – टर्र वाले संगीत
और वारिश की धार में कागज के नाव तैराना ।

          - 3 –
मसकहरी में उकड़ूँ लेटे कक्का
कक्का  का खांसी में लगातार खों – खों – खों करना
फिर कक्का  की धौंकनी की तरह चलती श्वांस की आवाज़ ।
और फिर बुढ़वा कक्का का एक दिन जाड़े की सुबह में प्रयाण
कोलाहल पूर्ण क्रंदन
बिलकुल सामने पोखर किनारे उनका अग्नि – संस्कार  
फिर उनका श्राद्ध
और फिर उसके बाद सुनसान नीरव दालान
एक पश्चात्ताप भरी चुप्पी
मन को कचोटता उनका अस्वस्थता में दुख भरा जीवन
और फिर वर्षों बाद एक दिन बुढ़िया दादी का भी चला जाना
फिर वही कोलाहल पूर्ण क्रंदन  
फिर उनका भी अग्नि संस्कार और श्राद्ध
फिर वही नीरव चुप्पी
फिर वही कचोटता पश्चात्ताप ।
अब सिर्फ कक्का और बुढ़िया दादी की यादें शेष रह गई हैं ।
हम याद करते हैं उनको हमेशा - हमेशा
और बहा देते दो बूंद उष्ण आँसू के ।
हमारी उनको अश्रु पूर्ण श्रद्धांजलि ।

अमर नाथ ठाकुर , 20 अक्तूबर , 2014 , कोलकाता ।   

Friday, 17 October 2014

जीवन एक लहरियादार रेखा


       -1-
क्यों मायूस है कोई
क्यों कोई रोता  ?
क्यों भयभीत है कोई
क्यों कोई काँपता ?
क्यों थकता है कोई
क्यों कोई  हाँफता ?
क्यों प्रफुल्लित है कोई
क्यों कोई ठहाके लगाता ?
क्यों बेचैन है कोई
क्यों किसी को चैन ?
क्यों चुप-चाप है कोई
क्यों किसी को पश्चात्ताप ?
क्यों कहीं उमंग है ?
क्यों कहीं जंग है ?

कहीं कोई नंग – धड़ंग  रंक है ,
कहीं कोई मद - मत्त मतंग है ।
कहीं कोई  लाचार – बीमार  है ,
कहीं खुशियों की बहार है ।
कहीं शैतानों का हुड़दंग है ,
कहीं साधुओं का सत्संग है ।
कोई फुट – पाथ पर भी गहरी नींद सो लेता है ,
कोई अट्टालिकाओं में भी रात भर जागता रहता है ।
कहीं  कोई अन्तरिक्ष की ऊँचाइयाँ नापता ,
कोई समुद्र की गहराइयों में खाक छानता ।
मार-काट लूट-खसोट ठगी भ्रष्टाचार का जमाना है ,
फिर भी  राम – राज्य की  जीवित परिकल्पना है ।

           --2—

जीवन है एक लहरियादार रेखा
यह उठा-पटक की एक   कथा
कोई खाता – पीता यहाँ कोई भूखा
कोई शत्रु  यहाँ कोई सखा
कहीं प्यार , कहीं धोखा ।

जीवन निशा – दिवा का लेखा
शाम देखी किसी ने ऊषा देखा
सूर्य – रश्मियों की प्रखरता
चंद्र – प्रभा की शीतलता
रंग सुनहरा कभी इसका फीका
कभी दुःख कभी सुखों का झोंका ।


जीवन जीया जिसने इसे परखा
जीवन जन्म – जन्मांतर की गाथा
जीवन एक लहरियादार रेखा ।

अमर नाथ ठाकुर , 14 अक्तूबर , 2014 , कोलकाता ।


मैं हर पल जन्म नया लेता हूँ

 मैं हर पल जन्म लेता हूँ हर पल कुछ नया पाता हूँ हर पल कुछ नया खोता हूँ हर क्षण मृत्यु को वरण होता हूँ  मृत्यु के पहले जन्म का तय होना  मृत्य...