ढलता
सूरज बढ़ती छाया
बढ़ती
उमर चढ़ती माया
जीवन
का ये कौन प्रहर आया
चिंता-निमग्न
रुग्ण काया
सत्य-असत्य
में तब भरमाया
सिर चढ़ा
स्वार्थ का साया
कहाँ
करुणा कहाँ गयी दया
यह है
अपना वह है पराया
नीति-दुर्नीति
में मन उलझाया
अब तक
क्या खोया क्या पाया
नहीं
कभी हिसाब लगाया
बुद्धि
भ्रष्ट हुई विवेक विलाया
जब
भी मानव तूँ सठियाया ।
ढलता
सूरज बढ़ती छाया
बढ़ती
उमर चढ़ती माया ।
अमर
नाथ ठाकुर , 13 नवंबर , 2014
, कोलकाता ।
पाखंड
माला
खट-खट दिल बहलाया
मिथ्या
भक्ति पर तू हर्षाया
जब-तब
खोटे आसूँ भी बरसाया
तीरथ-तीरथ
भागा गंगा भी नहाया
गेरू/सफेद
वस्त्र का चोला पहन लहराया
दाढ़ी
बढ़ायी टीका-चन्दन सजाया
ओठों
पर राम बगल में छूरी चमकाया
आस्था
लूट झोंपड़ी पर महल बनाया
बखान
कितना क्या करूँ हे भाया
इन ‘साधुओं’ ने कितने
को बरगलाया ।
अमर
नाथ ठाकुर , 13 नवंबर , 2014
, कोलकाता ।
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