Friday, 5 September 2014

अपनी धुन में अपने पथ पर


हमारा गाना उन्हें  बेसुरा लगता है
हमारा तुक उन्हें बेतुका लगता है  
हम तर्क करते हैं उन्हें कुतर्क लगता है  
हम पथ पर होते हैं लोग विपथी समझते हैं
हमारा पहनावा उन्हें उच्छृंखल लगता है
हमारी सोच उन्हें एकदम अलग लगती है
हमारी दया उन्हें दिखावा लगता है
हमारा प्रेम उन्हें पागलपन लगता है
हमारी करूणा उनमें घृणा पैदा करता है । 

लोग हँसते हैं , लोग मेरा मखौल उड़ाते हैं
इस तरह मैं तर्कहीन , बेतुका , बेसुरा होता हूँ
विपथी , उच्छृंखल , घृणित  और दिखावटी होता हूँ ।
तब मैं होने लग जाता हूँ विचलित और दीन
फिर मैं होने लगता हूँ अकेला और अस्तित्वहीन
लेकिन तब पाता हूँ तुम्हें,  निराकार और असीम
वह क्षण होता है इसलिये अप्रतिम
जब भज लेता हूँ तुम्हें हे ईश्वर !
और फिर तब मैं गाते हुए चल पड़ता हूँ
अपनी उसी धुन में
अपने पथ  पर  ।



अमर नाथ ठाकुर , 22 अगस्त , 2014 , कोलकाता ।   

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