वह और मैं
1.
मैं भी कल
वह भी कल
फर्क है कि मैं बीता हुआ हूँ
और वह आने वाला है ।
मैं शाम हूँ तो वह सबेरा है
मैं रात की अँधियारी तो वह
दिन का ऊजाला है
मैं बुझा हुआ राख हूँ
तो वह धधकता हुआ शोला है ।
2.
कितनी बार हँस - हँस कर मैं रो चुका हूँ
कितनी बार खट्टा – मीठा चख चुका हूँ ,
मैं सोकर जाग चुका हूँ
मैं जागकर सो चुका हूँ ।
मैं तो वर्षों से थपेड़े खाकर
कब से दुःख-सुख निगलने लगा हूँ ।
समय के चक्र पे सवार ऊपर – नीचे
आगे - पीछे हो चुका हूँ ।
उसका तो अभी हँसना शुरू हुआ है
रोने का उसे पता नहीं हुआ है ।
वह अभी - अभी तो आया है
अभी कहाँ समझने लगा है ।
3.
मैं पसीना बहा चुका हूँ
मैं रक्त में नहा चुका हूँ
अब आकर यह दिन कमाया है
जब हर क्षण को सजाया है ।
मुझे हर मौसम जाना जाना - सा लगता है
मुझे हर जगह पहचाना-सा लगता है
जानी पहचानी - सी लगती है गलियाँ
जानी पहचानी - सी लगती है बोलियाँ
वही रोज़ निकलने वाला राह दिखाने वाला
होता है सूरज अकेला ,
रोज़ वही राह रोकने वाला वही
उमड़ते-घुमड़ते बादलों का रेला ।
वही असीमित गिनती वाले आकाश के तारे ,
वही हँसी बिखेरता इठलाता चाँद मामा हमारे ।
पों-पों करती गाड़ियाँ
चहचहाती चिड़ियाँ ,
हरे-भरे पेड़
वही खेत वही मेड़ ,
जानी पहचानी - सी रातें
वही दुहराती-सी बातें ।
कभी अकेले रोया
कभी अकेले हँसा
कभी मिलकर रोया
कभी मिलकर हँसा ।
अब जब सब समझ चुका हूँ
सारे के सारे बाल तभी तो पका चुका हूँ,
अब क्या हँसना
अब क्या रोना ,
क्या खुशी क्या गम
नहीं कोई अब सम-विषम ।
वह अभी-अभी तो आया है
अभी ही क्या समझने लगा है ।
अभी वह हँसने पर ही तो शुरू हुआ है
अभी ही क्यों उसका रोने का क्रम आने को हुआ है !
अमर नाथ ठाकुर , 6 अगस्त , 2017 , मेरठ ।
1.
मैं भी कल
वह भी कल
फर्क है कि मैं बीता हुआ हूँ
और वह आने वाला है ।
मैं शाम हूँ तो वह सबेरा है
मैं रात की अँधियारी तो वह
दिन का ऊजाला है
मैं बुझा हुआ राख हूँ
तो वह धधकता हुआ शोला है ।
2.
कितनी बार हँस - हँस कर मैं रो चुका हूँ
कितनी बार खट्टा – मीठा चख चुका हूँ ,
मैं सोकर जाग चुका हूँ
मैं जागकर सो चुका हूँ ।
मैं तो वर्षों से थपेड़े खाकर
कब से दुःख-सुख निगलने लगा हूँ ।
समय के चक्र पे सवार ऊपर – नीचे
आगे - पीछे हो चुका हूँ ।
उसका तो अभी हँसना शुरू हुआ है
रोने का उसे पता नहीं हुआ है ।
वह अभी - अभी तो आया है
अभी कहाँ समझने लगा है ।
3.
मैं पसीना बहा चुका हूँ
मैं रक्त में नहा चुका हूँ
अब आकर यह दिन कमाया है
जब हर क्षण को सजाया है ।
मुझे हर मौसम जाना जाना - सा लगता है
मुझे हर जगह पहचाना-सा लगता है
जानी पहचानी - सी लगती है गलियाँ
जानी पहचानी - सी लगती है बोलियाँ
वही रोज़ निकलने वाला राह दिखाने वाला
होता है सूरज अकेला ,
रोज़ वही राह रोकने वाला वही
उमड़ते-घुमड़ते बादलों का रेला ।
वही असीमित गिनती वाले आकाश के तारे ,
वही हँसी बिखेरता इठलाता चाँद मामा हमारे ।
पों-पों करती गाड़ियाँ
चहचहाती चिड़ियाँ ,
हरे-भरे पेड़
वही खेत वही मेड़ ,
जानी पहचानी - सी रातें
वही दुहराती-सी बातें ।
कभी अकेले रोया
कभी अकेले हँसा
कभी मिलकर रोया
कभी मिलकर हँसा ।
अब जब सब समझ चुका हूँ
सारे के सारे बाल तभी तो पका चुका हूँ,
अब क्या हँसना
अब क्या रोना ,
क्या खुशी क्या गम
नहीं कोई अब सम-विषम ।
वह अभी-अभी तो आया है
अभी ही क्या समझने लगा है ।
अभी वह हँसने पर ही तो शुरू हुआ है
अभी ही क्यों उसका रोने का क्रम आने को हुआ है !
अमर नाथ ठाकुर , 6 अगस्त , 2017 , मेरठ ।
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteइतनी व्यस्तता के बाद भी आपने सर इतने सकून से भावनओं को शब्दों के परिधान पहनाये
ReplyDeleteये तो ईश्वर का दिया वरदान लगता है. कुछ लीक से हटकर जीवन की वास्तविकताओं को दर्पण बना कर जो चित्रण किया वो पढ़ कर बहुत अच्छा लगा
इतनी सूक्ष्मता से पढ़कर विचार व्यक्त करने के लिये धन्यवाद !
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