Sunday, 9 December 2018

टकराते रहना ही जीवन है

टकराते रहना ही जीवन है

हर वक्त हम टकराते  ही रहते हैं
आज टकरा गये हवा के झोंके में खुल रही खिड़की से
पिछली बार टकराये थे बंद हो रहे दरवाजे से
जब भी टकराते  हैं चोट लगती है
हमेशा न हमारी गलती  और न कोई खोट  होती है

एक बार छत से तेजी से घूम रहा एक पंखा गिर गया था
और मेरी 'नाक' कट गयी थी
खून से लथपथ  हुआ था
मरहम पट्टी दवा-दारु करानी पड़ी थी
कई दिनों तक दर्द से कराहा था
फिर टकराने के ‘महत्त्व’ को जाना था
क्योंकि तभी तो दर्द में कराहना सीखा था

जब जीवन पथ काँटों से भरा हो
सर्वत्र कंकड़ पत्थर ही सना पटा हो
तब हर कदम पर टकराना होता है
कभी कांटे चुभते हैं कभी नाख़ून उखड़ते हैं
कभी हड्डी टूटती है कभी चमड़े छीलते हैं
और तभी चलते रहने का अहसास होता है
टकराकर हम सब हमेशा पछताते हैं
लेकिन तभी अपना मूल्यांकन स्वयं कर पाते हैं

जब वैचारिक टकराव होते हैं
तब तीखी बहस होती है
जब भ्रष्टाचार से टकराते हैं
तब तन- मन उद्वेलित होता है
दूसरों के अत्याचार से भी टकराना होता है
स्वयं की सोच से भी टकराना होता है
कभी टकराता देश और समाज के लुटेरों से
कभी निंदा और गाली की बौछारों से
कभी अंतर्द्वद्व से कभी जीवन के व्यतिक्रम से
फिर कभी छिन्न-भिन्न मन के भ्रम से
कभी तो टकराकर भटकने लगते हैं
कभी जीवन पथ से भी बहकने लगते हैं
टकराने के बाद पुनः टकराने का क्रम चल पड़ता है
एक-एक कर अनुभव में कुछ जुटता चलता जाता है

टकराना जीवन में चल रहा अनवरत  है
यह जीवन पथ पर चलते रहने का द्योतक है
नहीं तो लगता यात्रा की दिशा ही भ्रामक है
लक्ष्य की ओर बढ़ते जाने का यह मील-स्तम्भ है
बिना टकराए चलते चलें यह तो मिथ्या दम्भ है                  

टकराते चलते रहना ही सरस जीवन है
निर्बाध चलते रहना तो नीरस है मरण है

अमर नाथ ठाकुर , 25 नवम्बर , 2018 , कोलकाता

Sunday, 10 June 2018

विजयी आत्म-समर्पण



विजयी आत्म-समर्पण

उलाहने जब कोई सुना जाता है
शुरू हो जाती है खुद से लड़ाई
और पिटता रहता हूँ अन्तर्द्वन्द्व से
मैं बेचैन हो जाता हूँ
नींद गायब होने लग जाती है
तर्क-वितर्क चलने लगता है
पूरी रात गुजर जाती  है
खुशियाँ गायब हो जाती है
चेहरा मलिन पड़ जाता है
हज़ामत भूल जाता हूँ
बाल सँवारना रह जाता है
कपड़े की इस्तरी रह जाती है
जूते की पॉलिश नहीं हो पाती है
मौजे से बदबू आती रहती है
खाना बेस्वादू हो जाता है
फिर पूरा दिन भी गुज़र जाता है
और कई दिन-रात गुजरते चले जाते हैं
कमज़ोर हो जाता हूँ
डॉक्टर कहता है मत सोचो इतना
क्यों लेते हो टेंसन इतना
खुद को परास्त महसूस करने लगता हूँ
और पहचान छुपाने चेहरा ढँक लेता हूँ
फिर तब होता है आत्म समर्पण
 उस असीम के चरणों पर ।
और तब होता है अन्तर्चेतना का अभ्युदय
तर्क-वितर्क खत्म हो जाता है
खुद को समझने लगता हूँ
मैं ऊर्जान्वित हो जाता हूँ
तभी मैं मुस्कुरा उठता हूँ
प्रकृति हरी - भरी नज़र आने लगती है
सूर्य रश्मियाँ मार्ग दर्शक बन जाती हैं
चाँदनी सुकून पहुँचाने लगता है
दिनचर्या दुरुस्त हो जाती है
अहंकार का मिट जाता है नामो – निशान
सुनाई देता है वहीं विजय घोष की तान
निःस्वार्थ सेवा भाव की अभिलाषा से
विजयी मुद्रा में कर देता तन-मन तब अर्पण
 जब एक हो जाते हैं मैं और मेरा अन्तर्मन ।

अमर नाथ ठाकुर , 7 जून , 2018 , मेरठ ।














Sunday, 3 June 2018

जब भी आप याद आते हैं

जब भी आप याद आते हैं
आप दगा देकर निकल रहे होते हैं ।
आप तिरछी आँखों से देखते हैं
यह कहाँ पता चल पाता है
आप मीठी ही बातें बोलते हैं
यह स्वाद तो हमें लग ही जाता है
आप साथ में खाना खा लेते हैं
और कैसे बिल थमा जाते हैं
आपकी गाड़ी में चल लेता हूँ
कब आप भाड़ा ले लेते हैं !

उस दिन तो कमाल हो गया
जब आपने हमसे रुमाल ले लिया
पसीना आपने अपना पोंछा
मेरा पसीना ढलकता निढाल हो लिया ,
मेरा विश्वास आपने चुरा लिया
आपका हाथ अपने कंधे पर चढ़ा लिया
और कदम में कदम मिला जोर से चलने लगा
न जाने कब आपने मेरा गला दबा दिया !

साथ -साथ खाते-पीते रंग बदलते  रहे हैं
और मज़ा लेते हुए सज़ा भी देते रहे हैं
चुगलखोरी तो स्वभाव वश करते ही रहे हैं
खिल-खिला कर हँसते हुए सब छुपाते रहे हैं
 काम  करने का वादा भी आप करते रहे हैं
और फिर बिना पता चले दगा भी देते रहे हैं

परामर्श तो आप मुझे समय - समय पर देते रहे
हम इसे आपकी भलमनसाहत समझते रहे
आकाश से गिर कर खजूर पर भी हम नहीं लटक सके
यह मेरी बदनसीबी थी जब हम जमीन पर गिरे पाए गए
धूल - धूसरित तो हम हुए ही कीचड़ में भी सन दिए गए !
कितने अच्छे भले  आप मित्र मेरे थे
यह पता तो तब चला जब ये सबक सिखा गए ।
आपका शुक्रिया आप कम-से-कम बहल तो गए
आपका और शुक्रिया हम भी आपसे बहला गए ।

अमर नाथ ठाकुर , 1 जून , 2018 , मेरठ ।









Sunday, 20 May 2018

आधा तुम खाओगे आधा हम खाएँगे

आधा तुम खाओगे आधा हम खाएँगे

आधा तुम लो आधा मैं लूँ
चलो मिल-जुल कर बाँट खाएँ
भ्रष्टाचार का पुल बनाएँ
उस पर राजनीति की बस चलाएँ
बस में विधायक और सांसद चलेंगे
मुख्यमंत्री कंडक्टर और प्रधानमंत्री ड्राइवर बनेंगे
पुल जब टूटेगा नीचे जनता मरेगी
लाशों पर मंच बना भाषण चलेंगे
जनता की चीत्कार कौन सुनता है
क्योंकि हम तो जोर-जोर से तालियाँ बजाएँगे
फिर मृतक सम्बन्धियों घायलों के लिये राहत के प्रसाद बँटेंगे
उसे ये कहाँ मिलेंगे
क्योंकि हम लोग सब झपट खाएँगे
आधा तुम खाओगे आधा हम खाएँगे ।

अप्रैल में जब ट्रान्सफर  लिस्ट निकलेंगे
वर्मा जी यादव जी के चहेते हैं वह वहीं रहेंगे
लाख टके तो जरूर मिलेंगे
मिल-बाँट कर खाएँगे
आधा तुम खाओगे आधा हम खाएँगे ।

मेहरा जी मंत्री के मौसी की चचेरी
बहन के दामाद के मित्र हैं
उन्हें क्यों कोई फिक्र है
वह भी इसी स्टेशन में रहेंगे
पम्प, घर, सड़क और सप्लाई का ठेका बाँटते रहेंगे
और वह तो बिना काम के भी बिल -पे- बिल भी पास करते रहेंगे
कमीशन के टके बटोरते रहेंगे
और ऊपर तक पहुँचाते रहेंगे
कुछ हमें भी मिलेंगे
मिल-बाँट कर खाएँगे
आधा तुम खाओगे आधा हम खाएँगे ।



अगले इलेक्शन में वोटों का खेल खेलेंगे
जनता तो भोली है उन्हें पाँच सौ मिलेंगे
फिर वोटों को खरीद कर हम चुनाव जीतेंगे
एमएलए यदि कम पड़ेंगे
क्या दिक्कत है हम उन्हें भी खरीद लेंगे
सरकार तो हमारी ही बनेगी फिर मौज़ करेंगे
हर ठेके में दस बीस प्रतिशत के कमीशन मिलेंगे
फिर मिल-बाँट कर खाएँगे
आधा तुम खाओगे आधा हम खाएँगे ।


इलेक्सन के पहले जातियों में जनता को बाँटेंगे
धर्म की राजनीति कर भेदभाव फैलावेंगे
वोटों का ध्रुवीकरण कराएँगे
हम जीतेंगे हमारी पार्टी के लोग जीतेंगे
सरकार हमारी बनेगी हम राज करेंगे
हंग एसेम्बली हुई तब भी किंग मेकर बनेंगे
तब तो हम कई मंत्री बनवाएँगे
बिना जिम्मेवारी के सारा काम करवाएँगे
रिमोट से ही सही सरकार हम ही चलाएँगे
सरकार को परमानेन्ट बनाए रखेंगे
खूब कमाएँगे खाएँगे ऐश करेंगे
लेकिन मिल-बाँट कर खाएँगे
आधा तुम खाओगे आधा हम खाएँगे ।

देश के लिये हथियार खरीदेंगे , विमान खरीदेंगे
विश्वास बढ़ाने बिचौलिये हम क्यों रखेंगे
सप्लायर्स से पूरा कमीशन स्वयं वसूलेंगे
खुद कम्प्लेन कराएँगे
अपनी एजेंसी से खुद अपनी जाँच करवाएँगे
अपने को पाक साफ साबित खुद करेंगे
मिल-बाँट कर खाएँगे
आधा तुम खाओगे आधा हम खाएँगे ।

पत्रकारों का जखीरा साथ रखेंगे
जो सिर्फ हमारी खबर छापेंगे
जो नेता मंत्री अधिकारी व्यवसायी नहीं सुनेंगे
उनके चरित्र हनन के समाचार छपेंगे
सीबीआई , सीवीसी , ईडी से जाँच कराएँगे
फिर छापे पड़ेंगे , बरामदगी के समाचार छपेंगे
पत्रकार वसूलेंगे , हम भी वसूलेंगे
मिल-बाँट कर खाएँगे
आधा तुम खाओगे आधा हम खाएँगे ।

नौकरी के विज्ञापन आएँगे
रिश्वत से ही बहाली कराएँगे
अपनी जाति वाले अधिकारी बनेंगे
कैडर वाले तो जरूर बढ़ेंगे
कुछ जन कल्याण के भी काम करेंगे
जो सिर्फ दिखाने के ही होंगे
फिर मिल-बाँट कर खाएँगे
आधा तुम खाओगे आधा हम खाएँगे ।

कुछ मामले जो नहीं संभलेंगे 
वो न्यायालय में जाएंगे
लेकिन हम फिर भी नहीं डरेंगे
न्याय बिकते हैं खरीद लेंगे
आखिर न्यायमूर्ति भी तो खेलेंगे
वो भी खाएंगे उनके लोग भी खाएंगे
सब मिल बांट कर खाएंगे
आधा तुम खाओगे आधा हम खाएंगे ।

आरक्षण की राजनीति करेंगे
धर्म की राजनीति को सेवेंगे
असहिष्णुता का दुष्प्रचार करेंगे
कुछ लेखक और समाजसेवी पुरस्कार त्यागेंगे
संविधान खतरे में है अफवाह फैलाएँगे
डेमोक्रेसी , न्याय व्यवस्था तब चरमराएँगे
अखबारों में फिर ऐसी ही खबर छपेंगे
केंद्र सरकार की गद्दी को हिला नींद हराम कर देंगे
फिर अपने विरुद्ध के सभी मामले वापस करा लेंगे
अपने कुकृत्यों का पर्दाफाश नहीं होने देंगे
फिर मिल-बाँट कर खाएँगे
आधा तुम खाओगे आधा हम खाएँगे ।

अमर नाथ ठाकुर , 19 मई , 2018 , मेरठ ।
























Sunday, 13 May 2018

जैसी बहे बयार पीठ तब तैसी कीजै


जैसी बहे बयार पीठ तब तैसी कीजै

मैं कूड़े के ढेर के पास खड़ा हूँ
सड़ांध आती है
यहाँ से खिसक जाने का मन करता है
यहाँ पहले भी जब आता था
बदबूदार हवा का झोंका आता था
और तुरत ही यहाँ से खिसक जाता था
अब खिसक कर एक कोने में आ गया हूँ
लेकिन यहाँ भी  भिनभिनाती मक्खियाँ आती हैं
कभी कन्धे पर बैठती है
कभी नाक पर बैठती है
और हर क्षण परेशान करती है
इसलिये फिर खिसक जाता हूँ
किन्तु इधर भी कूड़े का एक ढेर होता है
और वही सड़ांध , वही कीड़े , वही मक्खियाँ
और वही बदबूदार हवा
यहाँ भी साँस लेना मुश्किल है
खड़ा होना दूभर है ।
कहाँ-कहाँ खिसक कर जाऊँगा
कब तक खिसकता रहूँगा ।
इसलिये अब हमने एक तरीका सोचा है
अब हमने समझौता कर लिया है परिस्थिति से ।
अब मैं हमेशा कूड़े के बोझ लिए ही चलता हूँ
इसलिये कहीं भी खड़ा हो लेता हूँ
कहीं भी दोस्तों के साथ बात करने लगता हूँ
कहीं भी खड़े-खड़े चाय पी लेता हूँ
कोई भी परेशानी नहीं होती है
क्योंकि अब मेरी सोच कूड़े जैसी हो गयी है
बदबूदार सोच
सड़ांध सोच
अब मेरे जेहन में है, रग-रग में है ।
जैसी बहे बयार पीठ तब तैसी कीजै।

मुझे अब कोई परेशानी नहीं है ।

अमर नाथ ठाकुर , 28 अगस्त ,  2016  ,  मेरठ ।





Monday, 7 May 2018

मेरा मित्र मुझे अब ब्राह्मण कहने लगा है

मेरा मित्र मुझे ब्राह्मण कहने लगा है


मेरा मित्र मुझे अब ब्राह्मण कहने लगा है
और अब मुझसे कट-कट कर रहने लगा है ।

मेरा मित्र कायस्थ क्षत्रिय भूमिहार पर बरसने लगा है
 ब्राह्मण   बनियों   जैनियों  पर  कटाक्ष करने लगा है
और इन्हें अगड़ी कहकर पुकारने लगा है ।
वह पिछड़ी को भेदभाव का शिकार कहने लगा है
दलितों पर हो रहे अत्याचार पर लिखने लगा है
मेरा मित्र मुझसे कट-कट कर रहने लगा है ।
मेरा मित्र मुझे अब ब्राह्मण कहने लगा है ।

वह कहता है, तुम अगड़ी जाति से हो
तुम सिर्फ पन्द्रह प्रतिशत वाली प्रजाति हो
कब्जा तुमने पचासी प्रतिशत सम्पत्ति और नौकरी पर कर लिये हुए हो
इसलिये मेरा मित्र हमें अब सवर्ण कहकर पुकारने लगा है
मेरा मित्र हमें घूर-घूर कर देखने लगा है
मेरा मित्र मुझे अब ब्राह्मण कहने लगा है ।

हम जातिवादी हैं हम मनुवादी हैं
हमने शताब्दियों से पिछड़ों को सताया है
युगों से दलितों पर अत्याचार बरपाया है
उनके अधिकारों को बेरहमी से छीना है
उनको निकृष्ट जीवन जीने पर विवश किया है
वह कहता है ये अब उन्हें पता चल गया है
इसलिये मेरा मित्र अब मुझसे कट-कट कर रहने लगा है
मेरा मित्र मुझे अब ब्राह्मण कहने लगा है ।

वह आरक्षण समर्थक रैलियाँ करता है
आरक्षण खत्म करने के किसी भी
विचार पर गोलियाँ चलाता है
दलित एक्ट में किसी भी बदलाव का विरोध करता है
किसी भी कीमत पर अगड़ी से
प्रतिशोध की वकालत करता है ।
रास्ते चौराहों पर मिलकर भी अब नजरें फेरने लगा है
मेरा मित्र अब मुझे ब्राह्मण कहने लगा है ।

मेरा मित्र जाति विहीन समाज की परिकल्पना पर व्याख्यान देता है
वह जातिवाद का पुरजोर विरोध करता है
लेकिन वोटों के समय जाति-आधारित राजनीति जोर-शोर से करता है
जाति-आधारित आरक्षण में किसी भी बदलाव को राजनीतिक हथकंडा कह देता है
वह इसे अगड़ी जातियों की कॉन्सपिरेसी तक करार देता है
मेरा मित्र पिछली दोस्ती को अब भूलने लगा है
मेरा मित्र मुझे अब ब्राह्मण कहने लगा है ।

‘अगड़ी के मुख पर कालिख लगाओ
सवर्ण को  समाज से दूर भगाओ’
'अगड़ी को दूर भगाओ
सवर्ण से देश बचाओ'
के जैसों नारों पर तालियाँ बजाने लगा है
जब भी गरीबी को आरक्षण का आधार बनाने के विषय पर बोला
उसने हमें पिछड़ी और दलित विरोधी तक कह डाला
हम अम्बेडकर को पसन्द करें इसे वह ढोंग कहने लगा है
मेरा मित्र मुझे अब ब्राह्मण कहने लगा है ।


एक बार जिसने आरक्षण लिया बार-बार उसने और उसके परिवार ने ही लिया है
जो पहले  आरक्षण नहीं पाया उसका परिवार इस लाभ से अब तक वंचित रहा है
इसलिए कहते हैं आरक्षण उस दलित या पिछड़े को दो
जिसके परिवार को अभी तक नहीं मिला है
इसलिए हमने पदोन्नति में आरक्षण का विरोध किया है
इस पर मेरा मित्र मुझसे नाराज रहने लगा है
और वह मुझे अब ब्राह्मण कहने लगा है ।

आज तक जात पता कर हमने कहीं किसी को नमस्कार करते नहीं देखा है
हमने कई गरीब ब्राह्मण को दलित अधिकारी के घर नौकरी करते देखा है
हमने गरीब अगड़ी को दलित अधिकारी के सामने सिर नवाते देखा है
इसलिये कहते हैं जिस पिछड़ी और दलित ने आरक्षण का फायदा लिया है
उनने अपना सामाजिक और आर्थिक स्तर सुधार लिया है
इसलिये आरक्षण पदोन्नति में क्यों हो
इसलिए आरक्षण    पुश्त-दर- पुश्त  क्यों   हो          
यदि हम ऐसा कहें तब से मेरा मित्र मुझसे नफरत करने लगा है
मेरा मित्र मुझे अब ब्राह्मण कहने लगा है ।

मेरा मित्र मुझसे अब कट-कट कर रहने लगा है
मेरा मित्र मुझे अब ब्राह्मण कहने लगा है ।







        अमर नाथ ठाकुर ,मई 6 , 2018 , मेरठ .

Sunday, 6 May 2018

मालूम होता है यह अपना शहर है

मालूम होता है यह अपना ही शहर है

ढेर के  ढेर पड़े कूड़े सड़क किनारे
उस कूड़े में मरे चूहे बहुतेरे 
तिस पर उछल-कूद करते कौए
रेंगते  कीड़े,भिनभिनाती मक्खियाँ और ततैये  
दुर्दान्त दुर्गन्ध का कहर है ।
मालूम होता है यह अपना ही शहर है !

ओवरफ्लो होता सीवर का काला काला पानी
सड़क बीच बिना कवर का मेनहोल विनाशकारी
जगह -जगह दीवाल पर पेशाब करते खड़े लोग
और उससे आती भीषण बदबू का जहर है ।
मालूम होता है यह अपना ही शहर है !


सरसराती सरपट भागती गाड़ियाँ
गड्ढों से  पानी छिटकाती गाड़ियाँ 
दुबकते सहमते चलते लोग
सड़क में गड्ढे हैं या गड्ढों में सड़क है ।
मालूम होता है यह अपना ही शहर है !

एम्बुलेंस को भी ओवरटेक करती गाड़ियाँ
सायरन बजाती  नेताओं वाली गाड़ियाँ
रौंग साइड से भी तीव्र गति में गुजरती सवारियाँ
चौराहे पर लाल बत्ती पर भी जो ढाए कहर है ।
मालूम होता है यह अपना ही शहर है !

बस , ट्रेन के छत पर सफर करते लोग
ट्रेन की खिड़की से लटकती सायकिलें
बस की खिड़की से लटकते  दूध के कैंटर
ऑटो ड्राइवर के दाहिने भी बैठी सवारियाँ
सड़क बीच भी चढ़ती-उतरती सवारियाँ
यह ऐसा कैसा लॉ एंड ऑर्डर है ?
मालूम होता है यह अपना ही शहर है !

धुआँ छोड़ती गाड़ियाँ बेशुमार
हॉर्न बजाती गाड़ियों की भरमार 
तौर तरीक़े सब तार तार 
सड़क पर प्रदूषण की  यह कैसी  लहर है ?
मालूम होता है यह अपना ही शहर है !


बीच सड़क पर पगुराती गायें
चहलकदमी करती भैंस, बकरे-बकरियाँ 
 ट्रैफिक नियम को धता बताते ।
सड़क किनारे की झुग्गी झोंपड़ियाँ
और शौच करते बच्चों की किलकारियाँ
स्वच्छता अभियान का मज़ाक उड़ाते।
हार छिनने की बातें , 
मोबाइल झपटने की करामातें ,
सड़क पर घटती हर क्षण और हर प्रहर है ।
मालूम होता है यह अपना ही शहर है !

ऑफिस के कोनों में थूकते कर्मचारी
पान और खखार से सने पटे दीवार
टॉयलेट से आते पेशाब की बदबू अपार 
चोक हो रखा पानी से भरा वाश बेसिन
लिफ्ट रोककर मिनटों बतियाते लोग
गेट पर झपकी लेते सेक्युरिटी के जवान
नहीं कहीं कोई कुछ भी जैसे उलट- पलट और गड़बड़ है ।
मालूम होता है यह अपना ही शहर है !

सड़क किनारे हनुमान की मूर्त्तियों के पहरे
बस स्टेशन पर, पार्क में,सड़क किनारे
चादर फैलाए नमाज़ पढ़ते मौलवी बहुतेरे
मन्दिर में आरती , मस्ज़िद में कान फाड़ू अज़ान
भीड़ भरे बाज़ार में भी लुटते लोक-जहान  
अपहरण  और  रेप  की    घटना आम  ।     
गोली चले,बम फूटे फिर भी पब्लिक बेखबर है ।
मालूम होता है यह अपना ही शहर है !

जिस शहर में भी जाता हूँ कठिन नहीं गुज़र बसर है ।
शहर की वही दिनचर्या है शहर का वही जीवन चक्र है ।
और मालूम होता है हर शहर ही अपना शहर है !

अमर नाथ ठाकुर , 6 मई , 2018 , मेरठ ।


























Thursday, 3 May 2018

हम परमानेन्ट मुर्गा होते हैं

हम परमानेन्ट मुर्गा होते हैं

जब भी लेट उठा और लेट से स्कूल आया
टीचर ने तब उकड़ूँ बैठाया
दोनों हाथों को दोनों टांगों के पीछे से फँसवाकर
और कान पकड़ कर मुर्गा बनवाया ।
शरीर में हलचल होते ही छड़ी की मार भी खाया ।
मुर्गा बनने के डर से समय पर स्कूल जाता रहा
समय पर होमवर्क करता रहा
नाखून की सफाई करता औऱ साफ कपड़े पहनता रहा
पहाड़े और कविताएँ याद करता रहा
मुर्गा बनने के डर से एक अनुशासित छात्र बना
और तब आज इस सरकारी नौकरी के पात्र बना ।

सरकारी नौकरी में यहाँ कोई टाँग खींचता है
और प्रोमोसन भी रुक जाता है
कोई कपड़े खींचता है
और ट्रांसफर भी रुक जाता है
कोई आंखों में पिन चुभोता है
और बॉस का कान भी भर आता है
कोई सीने पर डंडा चलाता है
और बॉस की फटकार भी आ जाती है
कोई गर्दन मरोड़ता है
और बॉस का मेमो भी मिल जाता है
 टारगेट पूरा करने के लिए बॉस का शब्द-वाण  दिल में   चुभता  है
सबऑर्डिनेट की मेडिकल बिल, एडवांस नहीं मिलने पर भड़ास सुनायी देती है
हमारी छुट्टी तो अक्सर रद्द हो जाती है
किन्तु हमारे अधीनस्थ की छुट्टी की जिद्द रह जाती है
बॉस और अधीनस्थ  के पत्थरों  के बीच हम पिसते रहते हैं ।
बाड़ में फड़फड़ाते मुर्गे की तरह
हलाल होते मुर्गे की तरह
ऑफिस रूपी जेल में हम चीखते रह जाते हैं ।
फाइलों के नोट शीट में एक - एक शब्द , कोमा
फुल स्टॉप की अशुद्धियां ठीक करते हुए
एक-एक कर दाना चुगते हुए
गुटरगूँ करते भविष्य- हीन मुर्गे की भाँति
 जीना यहां -  मरना यहां -  इसके सिवा जाना कहां
हम सिर्फ गुनगुनाते भर रह जाते हैं ।

यहाँ हम क्या कम मुर्गा होते हैं !
मुर्गा छुरी से जब हलाल होता है
खून से लथपथ हो जाता है ,
यहाँ सी बी आई, विजिलेंस,सी वी सी के पास की
 शिकायत और विभिन्न जाँच की छूरियाँ हमारे सीने में
भी सदा घुपती रहती है
रक्त-रंजित लथपथ हमारे  विचार हो जाते हैं
 हमारे प्राणों की हुक - हुकी निकलती होती है
भय से  होंठ काँपते रहते हैं
कलेजा  धक-धक करता रहता है
छटपटाहट में हम कहाँ चैन से सो पाते हैं
बुरी खबरों की संशय में हमारी नौकरी के दिन बीत रहे होते हैं।

मुर्गा तो एक ही दिन कटता है
पर मुक्त हो जाता है,
हम तो यहां रोज कटते हैं
यहाँ बार-बार कट-कट कर जीते हैं
यहाँ तो हम कई गुना मुर्गा होते हैं
हम परमानेंट अमृतपान किये हुए मुर्गा होते हैं ।


अमर नाथ ठाकुर , 29 अप्रैल , 2018, मेरठ।







Friday, 19 January 2018

मित्रता का बाज़ार


1.
कितने दिन बाद मिले
महीनों वर्षों बाद मिले
शुरू हो गए गिले-शिकबे
उन पुराने दिनों की बातें हुईं
जब उन्होंने फरमाया था
जिस पर मेरा मन डगमगाया था
और  मैं ने नहीं कुछ कर दिखाया था,
तिस पर उनका मन भी नहीं हरषाया था ।
आज उस दिन को बार-बार याद किया
कई क्षण उस पर बरबाद किया
फिर इस पर मुश्किल से बात बनी
उस दिन और उस घटना को स्मृति-पटल से बाद किया ।


बातों का  सिलसिला आगे बढ़ा
चाय की चुस्कियों का जोर चला,
पकौड़े भी बीच-बीच में चल रहे थे
और हम दोनों यादों में तैर रहे थे,
कभी डूब भी रहे थे कभी उपला भी रहे थे,
तू-तू, मैं-मैं तथा नोंक-झोंक के पुराने
 खरोंच पर मरहम पट्टी कर रहे थे,
कुछ विस्मृत पल को खंगाल भी रहे थे ।

हाँ, उस दिन तुमने अपनी हठधर्मी
दिखाई थी
मित्र ने कहा, बात नहीं मेरी तू ने मानी थी
वह तुम्हारा निरा हठ था
तुम्हारी मनमानी थी,
मेरी बात काट कर बढ़ना
मेरा अपमान था
अपनों का यह तिरस्कार था
और रक्त-पान समान था
इसलिये फेवर्ड फ्रेंड लिस्ट से तूुम्हें
तुरन्त निकाल बाहर किया था
तुझे हमने सदा के लिये अनजान किया था
और फिर अन्य कृत्यों द्वारा लाँछना भी प्रदान किया था ।

2.
आजकल ‘मित्रता’ में पहले कुछ लिया जाता है,
और फिर हिसाब से लौटाया जाता है ।
लेन-देन आधारित जब हो मित्रता
तो क्या कम है बदले की शत्रुता ।

शत्रुता में शत्रु को कुछ न कुछ दिया जाता है,
ज्यादे लौटाने का शत्रुओं का भी एक धर्म होता है,
तभी तो ईंट का जबाव पत्थर होता है ।
हिंसा का जबाव प्रति हिंसा से
ईर्ष्या-द्वेष का कटुता से दिया जाता है ।
शत्रु के साथ जो किया जाता है
वह तो आशानुरूप और सम्भावित होता है।

‘मित्र’ के साथ सब प्रतिकूल होता है
और सब अप्रत्याशित होता है ।
यहाँ मुस्कान की ओट होती  है
और हृदय में शूल चुभाया जाता है,
यहाँ अपनों की चोट होती है
और सम्बन्धों में खोट ही खोट होती है ।

3.
जब लेन-देन ही आधार हो,
और सम्बन्ध एक व्यापार हो,
क्या जरूरत है ऐसी छद्म मित्रता की !
क्यों न पूछ हो सिर्फ ‘साफ’ शत्रुता की !
क्यों न खुला एक बाजार हो,
जहाँ ‘शत्रुता’ और ‘मित्रता’ का
क्रय-विक्रय वाला तुला साकार हो
और `बदले` के बटखरे की भरमार हो।

सम्बन्धों के तराज़ू पर ‘मित्रता’ और ‘शत्रुता’
का जब मोल-तोल होगा
इस आधुनिक जगत में निष्कपट ‘शत्रुता’ के
पलड़ा का ही भारी बोल होगा !

अमर नाथ ठाकुर , 23 नवम्बर , 2017, मेरठ ।



मैं हर पल जन्म नया लेता हूँ

 मैं हर पल जन्म लेता हूँ हर पल कुछ नया पाता हूँ हर पल कुछ नया खोता हूँ हर क्षण मृत्यु को वरण होता हूँ  मृत्यु के पहले जन्म का तय होना  मृत्य...