लखनऊ से स्थानान्तरण उपरान्त कोलकाता ज्वाइन किया था और कोलकाता के सबसे सम्भ्रान्त इलाके में एक बहुमंजिली इमारत में सरकारी आवास मिला था . सारे सामान के साथ हमलोग आ गये थे . उस बहुमंजिली इमारत में निवास करने वाली फैमिली घर आ - आकर हर तरह के सहयोग का आश्वासन देकर आने - जाने लगी थी , कोई चाय बिस्कुट कोई पानी भी लेकर आती थी . हमारे घर में सामानों के पैकेट्स खोले जा रहे थे और सजाये जा रहे थे . ड्राइंग रूम में लखनऊ से उपहार में मिले धातु के गणेश की चपटी प्रतिमा को सबसे पहले मेरी पत्नी ने दीवाल में लटका दिया था . अभी दो - तीन दिन ही हुए थे कि एक दिन की बात है घर का मुख्य दरवाजा खुला था . हमारे ही फ्लोर पर सामने रहने वाली फैमिली की एक 5-6 वर्ष की चुलबुली- सी गुड़िया-सी बच्ची हमारे घर में उछल - कूद करते हुए आ जाती है और ड्राइंग रूम में लटकाए गये गणेश जी की मूर्ति के सामने खड़ी हो जाती है . गौर से देखने के बाद पूछती है , "आंटी , आपलोग हिन्दू हैं ? " . मेरी पत्नी ने कहा , "हाँ , बेटे ". और यकायक उस बच्ची के मुख से निकला , "सो सैड !" ( so sad ) और फिर कुछ ही देर के बाद उछलती - कूदती हुई अपने घर में वापस चली गयी . हमारे घर में सब के सब दंग रह गये . इतनी छोटी बच्ची भी हिन्दू - मुस्लिम समझती है , जबकि यह अंग्रेजी स्कूल में पढ़ती थी . अनायास मेरे मुख से निकल आया "प्रथमे ग्रासे मक्षिका पातः" , कैसे बनेगी अली साहेब की फैमिली से , क्योंकि उसी इमारत के एक ही फ्लोर पर बिलकुल आमने - सामने हमलोग थे . शंका ने जड़ जमा ली .
हमारी शंका निर्मूल निकली . अली साहब की फैमिली और हमारी फैमिली वर्षों तक उसी इमारत में एक ही फ्लोर पर आमने - सामने साथ - साथ जो रही . बहुत ही मेल - जोल से हमलोग रहे . कुछ ही सप्ताहों में हमलोगों की फैमिली आपस में बहुत ही घुल - मिल गयी थी . हमलोग कुरआन मजीद के बारे में , मुसलमानी परम्परा के बारे में , उनके पर्व त्योहारों के बारे में थोड़ा-थोड़ा जानने लग गये थे . उनकी रमजान में कॉलोनी की बहुत सी हिन्दू फैमिली उनके लिये इफ्तार रखती थी , हमारी फैमिली भी रखती थी . उनकी ईद बकरीद में हमलोग भी निमन्त्रित होते थे . दीवाली और होली साथ मनाते थे. उनकी बच्चियाँ भी दीवाली में पटाखे उड़ाती थीं , होली में रंग और गुलाल से खेलती थी . हमारी कॉलोनी में सरस्वती पूजा भी मनायी जाती थी , प्रसाद रूप में बंगाली खिचड़ी साथ मिलकर खाते थे . रक्षा बंधन में अली साहब की बच्चियाँ हमारे बेटों को राखी बाँधती थी और टीके लगाती थी . परिवार के बीच अक्सर सब्जियों का और विशेष भोजन का आदान - प्रदान होता ही रहता था . मिठाइयों - पकवानों के उपहार जब बाहर से मिलते थे , आपस में बाँटे जाते थे . चाय साथ - साथ पीने की कोई गिनती नहीं . दोनों फैमिली साथ - साथ एक ही गाड़ी में बाजार भी खरीद-बिक्री करने जाती थी . कभी भी फिर किसी हिन्दू - मुस्लिम की भेद वाली बात बीच में नहीं आयी . निःसंदेह बड़े ही खुले विचारों वाली यह मुस्लिम फैमिली थी . "क्या आप लोग हिन्दू हैं" , "सो सैड " की गाँठ कब की खुल कर सीधी हो गयी थी पता ही नहीं चली .
बाद में एक दुर्घटना घटी . उस मुस्लिम ऑफिसर अली ने आत्म ह्त्या कर ली और इस परिवार पर संकट के बादल आ गये . तब अली भाभी जी के माता- पिता अपना बसा - बसाया बिजनेस छोड़-छाड़ कर अपनी बेटी को सपोर्ट करने बिहार से कोलकाता आ गये . फिर, कुछ वर्षों बाद यह मुस्लिम फैमिली एक मुस्लिम इलाके में घर खरीद कर शिफ्ट हो गयी थी , लेकिन हमलोगों के फैमिली के बीच आना - जाना लगा रहा . हमलोग ईद बकरीद में उनके यहाँ जाते रहे , वो लोग भी हमलोगों के यहाँ कभी - कभार आते रहे . लेकिन वो हमारे यहाँ होली - दीवाली में अब नहीं आते थे , लेकिन यह बात हमलोगों ने इतनी सीरियसली नहीं ली . शायद सरस्वती पूजा और रक्षा बन्धन भी उनकी फैमिली और उनके बच्चे अब न मनाते हों . हाँ , इन पर्वों के बाद कभी - कभार लेट लतीफी शुभकामना सन्देश उनकी फैमिली की तरफ से आ जाया करता था .
आगे कुछ वर्षों के बाद की बात है, मेरे बेटे की शादी थी . अली परिवार को भी निमन्त्रण का कार्ड सपत्नीक देकर आया था . बेटे की शादी में अली परिवार का भी पधारना हुआ . हमलोग बड़े खुश हुए . हमलोग घूम - घूम कर अतिथियों का स्वागत कर रहे थे . हमलोगों ने खाने -पीने के आइटमों के बीच मटन का भी इन्तजाम किया हुआ था . सारे अतिथि गण खा रहे थे . हमने देखा अली भाभी की अम्मी और पिताजी मेरे बिलकुल पास आ गये हैं , उन्होंने दर्जनों मेहमानों के बीच में एक प्रश्न पूछ लिया , "क्या ये मटन हलाल है ?" पास खड़े और खा रहे अतिथि गण अवाक् हो गये . भरी पार्टी में मैं क्या अनाप - शनाप बोलता . हमने कहा, "आंटी अंकल , मालूम नहीं , किन्तु यहाँ तो अधिकाँश कसाई मुस्लिम ही होते हैं उन्होंने शायद इस बात का ख्याल रखा हो ." लेकिन हमें बहुत अफ़सोस हुआ कि अंकल की फैमिली ने हलाल की चर्चा करने के बाद मटन के बिना ही भोजन किया . सामग्रियाँ बहुत थीं अतः हमें सन्तोष था कि उन्होंने सपरिवार पर्याप्त भोजन किया होगा . मुझे आज इस घटना पर हार्दिक दुःख हो रहा था क्योंकि पिछले कई सालों से ईद और बकरीद में हमने सपरिवार उनके घर में बिना हलाल और झटका के बारे में जिज्ञाषा किये मटन और कबाब का आस्वादन किया हुआ था . खैर , यह अत्यंत ही निजी धार्मिक मामला बनता था , अतः हमने इस बात पर फिर से ज्यादे चिंतन - मनन नहीं किया . लेकिन मेरा धर्म मेरे से विमुख होता दीख पड़ा . इस वाकये से मेरे सनातनी होने का आधार ही हिल गया . हम सोचने लग गये ..... क्या जब हम एक ही कॉलोनी में साथ रह रहे थे उस समय की उनकी उदारता क्या ढकोसला थी ?..... अथवा मुस्लिम मोहल्ले में फिर रहने की वजह से वो बदल गये थे ......
"क्या आप लोग हिन्दू हैं" , "सो सैड " वाली गाँठ जो कब कि सीधी हो गयी खुल गयी-सी थी , एक बार फिर से बन्ध-सी गयी थी .
अमर नाथ ठाकुर , 22 सितंबर , 2021, कोलकाता .
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