घर में भी टकराते हैं ....
कभी खुल रही खिड़की से
कभी बन्द हो
रहे दरवाजे से
कभी दीवार से , कभी शीशे से
छत से तेजी से घूम रहे पंखे से
टूट कर गिरते पंखे से
कभी ऊँगली कटती
कभी नाक कटती
कभी खून से लथपथ होता
कभी मरहम पट्टी कभी दवा-दारु होती
टकराने का दर्द से सहोदरी रिश्ता होता है
टकराकर पछताते हैं
लेकिन तभी तो अपना मूल्यांकन
स्वयं कर पाते हैं
कभी खुले पथ पर भी टकराते हैं ...
जब पथ काँटों से भरा हो
सर्वत्र कंकड़ - पत्थर ही सना
पटा हो
तब हर कदम पर टकराना होता
है
कभी कांटे चुभते हैं कभी
नाख़ून उखड़ते हैं
कभी हड्डी टूटती है कभी चमड़े छीलते हैं
कभी सपाट समतल पथ पर भी कदम लड़खड़ाते हैं
और गिरते हैं
पीड़ा जब होती है
फिर टकराने के ‘महत्त्व’ को जानना होता है
तभी चलते रहने का अहसास
होता है
कभी विचारों से टकराते हैं .....
कभी सिद्धान्तों से टकराते हैं .....
जब टकराव
होते हैं
तब बहस होती है
एक हलचल मच जाती है
जब भ्रष्टाचार से टकराते
हैं
तब आन्दोलन होता है
दूसरों के सोच से टकराना होता है
स्वयं के सोच से भी टकराना होता है
कभी विरोधी विचारों से
कभी निंदा और गाली की
बौछारों से
कभी अंतर्द्वद्व से
कभी छिन्न-भिन्न मनः
स्थिति से
कभी तो टकराकर भटकने लगते
हैं
और तभी तो सुपथ मिलते हैं
टकराने के बाद पुनः टकराने का
क्रम चल पड़ता है
एक-एक कर अनुभव में कुछ जुटता
चलता जाता है
इस तरह टकराना अनवरत चलता ही रहता
है
जब टकराते हैं तभी पता चलता
है कि चल रहे हैं
यह चलते रहने का द्योतक है
यह हमारी दिशा का उद्घोषक है
जीवन पथ का मील-स्तम्भ है टकराना
टकराते चलते रहना ही सरस जीवन
है
निर्बाध चलते रहना तो नीरस
जीवन है .
टकराते रहो
जीवन रस पान करते रहो .
अमर नाथ ठाकुर , 25 नवम्बर
, 2018 , कोलकाता
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