आती-जाती बिजली से भी
भंग नहीं होता हुआ
घुप्प अंधेरा
चोर , उचक्कों एवं जेब कतरों
का जहां हो बसेरा
रात भर ऐसे प्लेटफॉर्म पर
रुपये , गहने एवं कपड़े की रक्षा
में
वर्षों की कमाई की सुरक्षा में
असहाय निरुपाय जर्जर तन
बादलों की भांति बेचैन मन
उमड़-घुमड़ करता रहा
नींद से लड़ता रहा
भय से आक्रांत
कंक्रीट के बेंच पर अशांत ।
इतने में कटी-फटी धोती पहने
नंग-धड़ंग कंकाली कंधे से
पताके की तरह गमछी लहराए
असंयमित मूँछों बिखरे बालों से
सजे
मटमैले फर्श के असीमित फैलाव के
मज़े
लेता वह टांगें पसार लेट गया ।
मेरी तरफ ताकता
मंद-मंद मुस्कान उड़ेलता
सर्वस्व से था वह वंचित
व्यवस्था से जरूर रहा होगा कुपित
।
वह भिखारी
मेरी कुलीनता का मखौल उड़ाता
बेखौफ खर्राटे मारने लगा ।
सवेरे-सवेरे
सूरज के उगने से पहले
जग कर
मेरी बेवशी पर
टुकुर-टुकुर ताकते हुए
मुड़-मुड़ कर देखते हुए
हो गया विदा ,
अपने साथ लेकर
अपनी मुस्कान , अपनी निर्भयता
और अपनी नींद की संपदा ।
मैं घड़ी में समय का हिसाब
लगाता रहा
अपनी गठरी को गिनते हुए
बटुए पर अपना भार बढ़ाते हुए
नींद से फिर लड़ते हुए
सूरज के उगने की इंतजारी में
।
किन्तु वह भिखारी मुझे उद्विग्न
कर गया
सोचने के लिए मुझे विवश कर गया
...
सोता वही है जो बेखौफ रहता है
।
जीता वही है जो निर्लिप्त निर्विकार
रहता है ।
हमारा जीना भी क्या जीना जो न
तो सो पाता है
और न तो फटी जेब भर भी हँस पाता
है ।
अमर नाथ ठाकुर , मई , 2014 , कोलकाता ।
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