Monday, 28 December 2015

प्रकृति हमारा पालक हो /नव वर्ष की मंगल कामना


जाड़े में दिन में तेज़ धूप वाला सूरज हो
रात में सामने दहकती आग का शोला न्यारा
गर्मी में दिन में शीतल पवन हो
और रात में श्वेत धवल चन्दा प्यारा ।
वर्षा में उमड़ते-घुमड़ते बादलों के बीच बूँदा-बाँदी हो
और चमकती  कड़कती बिजली का इशारा
बसन्त में पौधों-फसलों की हरी-हरी  चादर हो
और रंग-बिरंग मुखरित मंजरित पुष्पों का नज़ारा ।
न कोई बर्फीली शीतलहरी हो न कंप-कंपाती ठिठुराती ठंढ
सुबह सबेरे न कोई कुहरे की मार हो रात में न कोई धुंध ।
ग्रीष्म में न कोई सनसनाती लू हो न ऊमष की  चिट चिट करती मार हो
न उफनती नदी हो न टूटता बाँध और न कोई बाढ़ की ही हुँकार हो ।

तो क्यों हम जंगल बिगाड़ें क्यों करें प्रकृति से खिलवाड़
क्यों पर्यावरण प्रदुषण का खेल हो क्यों कोई उजाड़ ।
पर्वत हमें सुशोभित करते रहें नदियाँ बहती रहे लगातार ,
जंगल में  मँगल होता रहे क्यों चले इन पर कोई कटार ।

झरनों का कल-कल मधुर गान हो
कोयल की कूक और पपीहे की तान हो ।
मंदिर में मंगल आरती हो  मस्जिद में अजान हो
गिरिजा में घंटा बजे द्वारे में गुरु ग्रन्थ की शान हो ।

प्रकृति संग शान्ति से रहें तो क्यों कोई प्रकृति प्रकोप हो
प्रकृति कल्याणकारी बने क्यों कोई प्रकृति विक्षोभ हो ।
न हो विनाशकारी वृष्टि न आए मर्मांतकारी तूफ़ान
क्यों भूकम्प- भूस्खलन भी करे धरा को वीरान ।

वृक्ष पिता   समान हो नदियाँ हों माँ समान
पर्वत हमारा बंधु हो झील-झरने में भी मानो प्राण ।
बदहवास हो न बाँधें नदी न तोड़ें निर्दयता पूर्वक पहाड़
न जलाएँ वृक्ष और न करें प्रकृति पर कोई अत्याचार ,
तो क्यों हो असमय वर्षा क्यों हो असमय तूफ़ान
क्यों स्खलित होगा पहाड़ क्यों बनेगा कहीं रेगिस्तान ।


प्रकृति और मानव का रिश्ता है युगों-युगों का , इसे निभाना है ।
मानव-जीवन खुशहाल बनाना है , तो प्रकृति को बचाना है ।



आएँ  संकल्प करें , और यह हमारा नव वर्ष का विधान हो
सभी निरोग रहें , सभी सुखी हों , सर्वत्र शान्ति का गान हो
प्रकृति हमारा पालक रहे हमें  प्रकृति का इतना भान हो
नव वर्ष की हमारी शुभकामना कि मानवता महान हो !

अमर नाथ ठाकुर , 27 दिसम्बर , 2015 , कोलकाता ।

Sunday, 20 December 2015

अंधेर नगरी चौपट राजा

-1-

बोरा भर पानी हो
और  चुल्लू भर अनाज
तो फिर क्या कहने

दाना-दाना चूता हो पानी
और बूँद-बूँद रिसता हो अनाज
तो भी फिर क्या कहने

क्विंटल  भर लोगों  का जमावड़ा हो
और बीघा भर की हो सूझ - बूझ  की बातें 
तो भी  फिर क्या कहने

आदमी की मौत से आतंकित कुत्ता भागे
तलवा जब जीभ को चाटे
डोरी जब फन्दे में  लटके
स्वान-मुख में रोटी देख आदमी का जीभ लपलपाए
तो भी फिर क्या कहने

चोर करने लगे  जब  पहरेदारी
और पुलिस रखे डाका-लूट जारी
और तब भी शायद किन्तु संभवतः कुछ-कुछ  सीधा-सीधा- सा ही लागे
तो फिर क्या होता है अंधेर नगरी और चौपट राजा ?
जब  बिके टके सेर भाजी और टके सेर खाजा ?

-2-

लँगड़ा दौड़-कूद की प्रतियोगिता जीते
अँधा राई और सरसों बीन अलग करे 
दल- दल भूमि  पर लोग निर्भीक चलें
नदी-जल सतह पर हर कोई करे कदम ताल
पाताल की ऊँचाई - से वादे  हों
आकाश जैसी गहराई- सी नैतिकता की मिशाल
तारे जमीन पर लोट-पोट करे
चाँद और सूरज जब  दीपक ढूंढे
अन्धकार की वाह - वाही में ताली बजे
प्रकाश की हाज़िरी पर जब सन्नाटा  सजे
राम- राज्य के मज़े भाई या लोकतन्त्र के मज़े ?

अँधेर नगरी चौपट राजा 
टके सेर भाजी टके सेर खाजा ।

अमर नाथ ठाकुर , 19 दिसम्बर , 2015 , कोलकाता ।

Sunday, 6 December 2015

न मेरा कोई परिचय हो .....



मेरे नाम में है मेरा परिचय 
मेरे परिचय में मेरा नाम
उसके नाम में भी उसका परिचय
उसके नाम में उसकी पहचान
मेरे नाम में है मेरे धर्म की पहचान
उसके नाम में भी उसके धर्म की शान
मैं हिन्दू हूँ वह  है सिख या ईसाई
या हो सकता है मुस्लिम भाई ।

मेरे नाम में छुपा  मेरी जाति का पता
नाम से ही मिलता बाप और गाँव का नाता
मेरे खान-पान से मेरा प्रदेश 
मेरी भाषा से पता चलता है  मेरा देश 
मेरी बोली मेरा परिवेश बताता 
मेरा उच्चारण  मेरा क्षेत्र दर्शाता ।
मेरे सिर की चोटी मेरे माथे का टीका
क्यों कर जाता मेरा परिचय फीका ?

मेरे कपड़े मेरी वेश-भूषा भी बहुत कुछ बताता
मेरी  टोपी-पगड़ी में भी होता मेरे परिचय का खाता ।
मेरे चमड़े के रंग में मेरी राष्ट्रीयता 
कोई गोरा होता कोई काला कहलाता ।


कोई प्रोटेस्टेंट कहलाए या कहलाए कैथोलिक
पारसी यहूदी होवे या होवे जैन बौद्ध या सिख 
उसका  परिचय ही शिया या सुन्नी करता 
किसी का परिचय ब्राह्मण क्षत्रिय या वैश्य बनाता 
या बनाता पिछड़ा अति पिछड़ा या दलित शूद्र 
परिचय से ही स्पष्ट होता  धनवान या दरिद्र ।

क्यों  होऊँ आई एस आई एस का लड़ाका दरिन्दा
मुझे नहीं पसन्द लश्कर न पसन्द तालिबानी धंधा ।

छोड़ो अपना परिचय छोड़ो अपना नाम
जो बढ़ावे भेद-भाव जो करे बदनाम ।
मैं गेहूँ चावल  जैसा  क्यों न बन जाऊँ
नाम और परिचय त्याग कर गुम हो जाऊँ
या  मैं जल बूँद सरीखा बन जाऊँ
नदी समुद्र या झील में समा रमा जाऊँ ।

न मेरा परिचय हो न हो कोई नाम । 
ईश्वर के बन्दे क्यों करे  गन्दा काम ।

अमर नाथ ठाकुर , 5 दिसंबर , 2015 , कोलकाता ।

Friday, 20 November 2015

आओ बोलें हम बिहारी हैं


---1----

रेलवे प्लेटफारम पर देखा
कन्धे में गट्ठर लटकाए हुए
सिर पर पचास किलो का बैग लादे हुए
एक हाथ सिर के ऊपर बैग थामे हुए
दूसरे हाथ से एक और गट्ठर झुलाते हुए
लाल कुर्ते और धोती वाला
पसीने में लथपथ एक मत वाला।
हाँ, वह बिहारी है ।

कलकत्ते की गलियों में
टुन-टुन करता  एक रिक्शा
रिक्शे में बैठी महिला और उसका बच्चा
उनके पैरों के नीचे खड़ा
आगे रिक्शे में बेतरतीब फँसा
पसीने में लथपथ एक काला
रुकता दौड़ता दो पैरों वाला
एक मनुज बैल देखा ।
हाँ , वह बिहारी है।

सड़क किनारे चौकी लगाए
उमस भरी गर्मी में पसीने में नहाए
झाल-मुढ़ी भुजिया बेचता
रीत लाल और उसका पोता
गुमटी में पान सिगरेट खैनी बेचता
चौरसिया  और उसका बेटा
फुटपाथी खुले ढाबे में
गा-गा कर बर्त्तन धोता छोटकू
चाय की दुकान में चाय बाँटता मटकू
फिर हीरालाल को  देखा
लस्सी घोल और शिकंजी बेचता ।
हाँ , ये सब  बिहारी हैं ।

चौराहे पर सड़क किनारे कोने में
कुछ दौरे और टोकरियों में
केले ,सेब, नारंगी फैलाए हुए
सुनहरे भविष्य के सपने पाले हुए
लुंगी और जालीदार टोपी में
छाती तक लहराती सफ़ेद दाढ़ी में 
सुबह से शाम तक हाँक लगाता
रहमान चाचा 
भी बिहारी है।

सफ़ेद धोती कुर्ते में
सुबह-सुबह डेग भरते
ललाट पर सिन्दूर के टीके
तथा  झूलती चोटी पीछे
हाथ में एक पोथी जकड़े 
अपने यजमान  के यहाँ
पूजा-पाठ करने जाते भीम झा
भी बिहारी हैं ।

बड़े बाज़ार में ट्रक में  बोरी लादते 
ठेला को खींचते और ठेलते
अलीपुर में , राजार हाट में
बिलकुल नहीं होते ठाठ में 
कहीं मकान का नींव खोदते
कहीं ट्रक से गिट्टी - बालू उतारते 
बसों में गेट पर जान से खेलते झूलते 
पैसेंजर को चढ़ाते बचाते खलासी 
कभी टेम्पो चलाते कभी चलाते टैक्सी
ये सब दिन-रात का चैन त्याग कर 
दो पैसा कमाने आया  भाग्य का रोना रो कर ।
हाँ , ये सब बिहारी हैं।

कूड़ा कचड़ा बिनते 
छोटे- छोटे कच्चे- बच्चे,
फुटपाथ पर चादर टाँगे नीचे
बच्चे को दूध पिलाती माताएँ
ढील हेरती आगे-पीछे बैठी बालिकाएँ
सड़क किनारे बीत जाती ज़िंदगानी 
वहीं नल में आते झर-झर पानी 
जहाँ लजाती सकुचाती स्नान करती स्त्रियाँ
वहीं करछुल चलाती , दाल सब्जी बनाती परियाँ ।
सब -के - सब बिहारी हैं ।

साईकिल पर दूध पहुँचाते फेकू
सुबह-सुबह घर-घर अखबार बाँटते लेखू
बाजार में सब्जी बेचते फागू
रद्दी खरीदते-बेचते मोहन लाल
गैरेज़ में तेल-मोबिल-इंजिन वाले मिस्त्री सुपाड़ी लाल ।
सब-के-सब बिहारी हैं।

ऑफिस का चौकीदार
कैम्पस में झाड़ू देता जमादार
जूते में पॉलिश करने वाला भाई
सैलून में बाल काटने वाला नाई
कपड़े में प्रेस हो या कपड़े की सिलाई
या हो गोल-गप्पे या चाट खटाई
गड़िया हाट में , खिदिर पुर में
धर्मतल्ला में फुटपाथ पर
या बेहाला के बाट घाट पर
गंजी-जाँघिया और टी-शर्ट बेचने वाला
सत्तू-नीबू और लिट्टी बेचने वाला 
फर्नीचर दुकान में लकड़ी पर रन्दा चलाने वाला
स्टोव-चूल्हा रिपेयर शॉप वाला
हैं अधिकांश निम्न- चतुर्थ वर्गीय काम करने वाला ।
किन्तु सबके-सब बिहारी हैं ।

कलकत्ते में प्लेटफारम हो या फुटपाथ
गलियों में  मज़मा लगाए नीचे बिछे पाट
गुमटियों में , झोपड़ियों में
नाले के किनारे, जूट मिलों में ।
कहीं मगही की तान तो कहीं भोजपुरी की शान
कहीं अंगिका वज्जिका कहीं मैथिली सुरीली महान
कहीं शारदा सिन्हा तो कहीं भिखारी
कहीं मालिनी अवस्थी की तान प्यारी।
हर जगह बिहार बसता है ।

कहीं झिड़कियाँ सुनते ,
कहीं गाली खाते ,
कहीं झिक-झिक करते
फिर भी मुस्कुराते होते
हर जगह बिहारी हैं ।
ये हर जगह तिरस्कृत होते , पेट और पैसे की आश में
घर से दूर दिन-रात मेहनत कर रहे होते हर सांस में ।

कलकत्ते के हर निर्माण में बिहारी हाथ होता है ।
यहाँ की  हर साधना में बिहारी साथ होता  है।

सुना है बिहारी देश के हर हिस्से में हैं
बनते-बिगड़ते देश के हर किस्से में है ।
हर जगह राष्ट्र- निर्माण में बिहारी योगदान कर रहे हैं ।
हर जगह मालिकों के मुख पर मुस्कान ला रहे हैं ।

कुछ छुटभैये नेता बिहारी अस्मिता पर थूकते हैं ।
बिहारी को गाली बकते हैं और ठोकर मारते हैं ।
पढ़े-लिखे उच्च पद पर कार्य रत अप्रवासी बिहारी ,
या हो केंद्र तथा राज्य में बिहार के राज नेता दुरात्कारी
ये सब सुनते रहते  हैं ।
पता नहीं वो क्या करते हैं ?
लेकिन प्रवासी शोषित बिहारी  इनसे रहते बेखबर
बिना किसी  दुर्भावना के इस संकीर्णता से होते हैं ऊपर।
बिना किसी लोभ के
बिना किसी क्षोभ के
बिना किसी चाह के
बिना किसी डाह के
होते हैं ये बिहारी ।

----2----

छठ में  बाबू घाट पर गंगा किनारे
नाचते गाते लोग ढेर सारे
दीये जलाते पटाखे चलाते
रंग-बिरंगी रोशनियों से वातावरण को चमकाते।
नाक से सिर तक सिन्दूर की लाल मोटी रेखा में
रंग-बिरंगी साड़ियों में सुरीली गीतों की लहरियों में
दौरे सूप कोनियाँ में फल-फूल सजाये
खजूरी ठेकुए पुड़किये से दिशा महकाए
गंगा के जल  में भींगे वस्त्र में थरथराती खड़ी-खड़ी
डूबते और उगते सूर्य देव के लिये हाथ जोड़े पड़ी-पड़ी
अश्रुपूरित नयनों से अर्घ्य देती हुई ये ललनाएँ
बिहार को फिर जीवन्त करती कल्पनाएँ ।

यहाँ छठ में पूरा- पूरा बिहार दीखता है ।
कलकत्ते में हर जगह बिहार बसता है ।

यहाँ विकास का वाहन बिहारी मज़दूर खींचता है
बिहारी अपने खून-पसीने से कलकत्ते को सींचता है।

ये बिहारी आत्म-सम्मान को कर चूर
अपनी जन्म-भूमि  से रहकर भी दूर
वस्त्र चाहे गन्दा पहने हुए है
अपनी बिहारीयत को ज़िंदा रखे हुए है ।
इतिहास स्वर्णिम न भी  बताकर
वर्त्तमान की टंकार पर
आओ बोलें हम बिहारी है
सम्पूर्ण भारत  हमारी बिरादरी है।

अमर नाथ ठाकुर , 19 नवम्बर , 2015 , कोलकाता ।

Monday, 19 October 2015

होली



होली तूँ कितनी भोली
लाल पीली हरी नीली

पत्नी हो या कि शाली
या हो कोई बाहरवाली
साधु हो या कि मवाली
जब फाग मधुर गावे 
सब एक नज़र आवे 
भेद-भाव की दीवार मिटे
बिखरते रिश्तों की दरार पटे 
कीचड़ सनी गली हो या हो पथ कंकरीली
हर जगह मौजूद  होली भाई होली 

उड़े जब अबीर और गुलाल
कर दे सब को रंगे हाल 
रंगों से तब  तन खाली 
दुर्विचार से  मन भारी 
रंग - धन की  जब वर्षा चली
फिर क्यों हो  कहीँ कोई कंगाली
चारों ओर होली की खुशियाली ।
होली की खुशियाली

अमर नाथ ठाकुर 21.03.2008 कोलकाता

अपनी घर वाली



पीला-पीला सरसों
पीली -पीली पकी गेहूँ की बाली
लाल-लाल फूलों वाले टेशू के पेड़ों की धारी
याद कराती सिंदूरी बिन्दिया वाली
शादी वाली नयी नवेली
पीली पीली चुनरी वाली
हल्दी रंगी हथेली वाली
लाल- लाल होंठों वाली
अपनी ही घर वाली ।

काले-काले बादलों की उमड़-घुमड़
कभी चमकती बिजली
कभी गरजती 
कभी कड़कती कभी बरसती 
याद दिलाती
कजरारी नयनों वाली
घुँघराले बालों वाली
पल  में अश्रु बहानेवाली 
कटु शब्द-वाण चलाने वाली
जैसे अपनी ही घर वाली ।

नव पल्लव नव मंजर-सी प्यारी
हरीतिमा की चादर वाली न्यारी
दूर -दूर खेतों तक फैली हरियाली
मंद बयार में भी झूमती इठलाती
पौधों की पतली-पतली चंचल डाली
याद दिलाती
झील किनारे नौका एक खड़ी-सी 
जहाँ मुक्त हस्त आमंत्रण बाँटती-सी 
थिरकती लहराती नीले आँचल वाली
एक युवती परी मुस्कराती - सी
जैसे फिर अपनी ही घर वाली ।


अमर नाथ ठाकुर 12.09.2015 कोलकाता ।

Tuesday, 25 August 2015

हिम्मत क्यों हारता वीर बटोही

चोटी पर खड़ा क्या सोच रहा 
नीचे ताक - ताक कर क्यों डर रहा 
ऊपर देख आसमान कितना पास है 
चाँद और तारे कितने ख़ास हैं 

कर कुछ ऐसा शान से 
मौका पाया है खेल ले तूँ जान से 
ये क्या पग-पग भूमि तूँ नाप रहा 
ठंड के बारे में सोच क्यों काँप रहा 
लगा लंबी छलाँग- अब उसकी ही जरूरत है 
इंतज़ार किसका अब हर क्षण शुभ मुहूरत है
पास है दूसरी चोटी उसे मील-स्तम्भ बना ले 
अपनी ताकत का आज तूँ दम्भ भर ले 

गिन-गिन कर चोटियाँ मत पार कर 
हिम्मत क्यों खोता है थक हार कर
काम अनगिनत है समय  तूँ न बरबाद कर
म्यान से   तलवार अब खींचकर
बढ़ तूँ अब दहाड़ मार हुँकार कर
समय कहाँ न अब शृंगार कर 
रौंद चलता जा तूँ वीर बटोही 
 बाधाओं को अविलंब फाड़ कर 

चिन्ता न कर गालियों की 
आशा न कर तालियों की 
काले बादल तुम्हारी नजरें विकलित करेगा 
तूफान तुम्हें हिला - हिला कर विचलित करेगा 
पहाड़ - पथ में रोड़े बेशुमार मिलेंगे 
मौसम के बखेड़े हजार मिलेंगे 
खुशबू गुलाब की  पानी है 
तो काँटे क्या कटार मिलेंगे 

तीक्ष्ण नजरों से दूर तक देख 
लक्ष्य साफ - साफ दीखता है 
हिम्मत क्यों हारता वीर बटोही
जब यम भी तुमसे दूर भागता है ।

अमर नाथ ठाकुर , 25 अगस्त , 2015 , कोलकाता ।

Saturday, 11 July 2015

माँ



जब मैं हँसता था
माँ तूँ हँसती थी
जब मैं रोता था
तो तूँ रोती थी
मेरी व्यग्रता पर तूँ परेशान रहती थी
मेरे उछल-कूद को अपनी शान समझती थी । 

जब मैं खा लेता था
तब तूँ खाती थी
जब मैं सोता था 
तूँ पहरा डालती थी 
जब मैं जागता था
तब भी तूँ जागती थी
माँ तूँ कब सोती थी ?

मेरी आँखों में काजल डाल
स्वयं अपना  शृंगार समझती थी
मेरी लंगोट मुझे पहना
स्वयं को तैयार समझती थी
मेरी  उल-जुलूल तुतलाहट को
संगीत के सप्त-स्वर समझती थी
मेरी  चैन की मुद्रा में परमात्मिक
सुख का आधार टटोलती थी ।

आज भी ऑफिस से नहीं आता
तब तक तूँ इंतजार करती है
जब तक खाना नहीं खाता
तूँ निराधार रहती है
मेरी घबड़ाहट और बेचैनी को
अभी भी तूँ शीघ्र  ताड़ लेती है
मेरे दुःख और परेशानी पर
आज भी तूँ जार-जार रोती है ।

मैं बिखर - बिखर खोता रहता हूँ 
माँ तूँ ढूँढ़-ढूँढ़ कर सँजोए रखती  है  
तुम्हारी  आँचल की छाया में  
मैं डूब-डूब अमृत रस पीता हूँ 
तुम्हारी पल-पल की साया में
ओत-प्रोत करूणा रस गाता हूँ 

सारा जहान है माँ तूँ  महान है 
तेरे चरणों में शत-शत प्रणाम है ।



अमर नाथ ठाकुर , 09 जुलाई , 2015 , कोलकाता ।   

वीर जब निकल पड़ते हैं



वीर जब निकल पड़ते हैं
बाधाएँ विकल हो उठते हैं
काँटे पथ के फूल बन जाते हैं
रोड़े पैरों की धूल बन जाते हैं

वीर जब निकल पड़ते हैं 
वीर तब रौंदते चलते हैं
खड्ड  मैदान सपाट बन जाते हैं  
नदी तालाब नावों के खाट बन जाते हैं 

वीर जब निकल पड़ते हैं 
वीर तब दहाड़ मारते हैं
शेर सवारी के लिए तैयार रहते हैं  
हाथी रखवाली को साभार रहते हैं

वीर जब निकल पड़ते हैं
पहाड़ भरभराने लगते हैं
सागर थरथराने लगते हैं
नारों पर भीड़ उमड़ने लगती है
इशारों पर भीड़ बिखरने लगती है

वीर जब निकल पड़ते हैं 
सूरज उनके पीछे होता है
चाँद उनके नीचे होता है
आसमान पाताल की ओट में होता है
तारे चरणों की धूल चाट रहा होता है

वीर जब निकल पड़ते हैं
पत्थर भी पिघल पड़ते हैं
बिजलियाँ कड़क राह दिखलाती हैं
मेघों का गर्जन-तर्जन विजय-स्वर सुनाता है
लोट-लोट कर वृक्ष पल्लव तन को सहलाता  है

वीर जब निकल पड़ते हैं
दिशाएँ दल - मल दल - मल करते हैं
पथ के अंगारे बुझने लगते हैं
समुद्र दो फाँक हो जाता है   
लक्ष्य तूफान बन स्वयं आ पड़ता है


वीर जब निकल पड़ते हैं
अंधेरे भी जाग उठते हैं
वीर सत्य , ईमान की ढाल में चलते हैं 
मेहनत , कर्त्तव्यनिष्ठा की खाल में मचलते हैं 
समता-एकता के पताके तब लहराने लग जाते हैं 


वीर जब निकल पड़ते हैं 
चेलों के दल के  दल बन पड़ते हैं 
चोर-लूटेरे दूर भाग पड़ते हैं
दीनों-निर्बलों के दिन फिर जाते हैं 
अत्याचारी सिर पीट-पीट कर रह जाते हैं 


वीर जब निकल पड़ते हैं
वीर ही सिर्फ सफल होते हैं
कायर तो पग-पग पर विफल होते हैं ।

वीर जब निकल पड़ते हैं ।


अमर नाथ ठाकुर , 8 जुलाई , 2015 , कोलकाता ।  

मैं हर पल जन्म नया लेता हूँ

 मैं हर पल जन्म लेता हूँ हर पल कुछ नया पाता हूँ हर पल कुछ नया खोता हूँ हर क्षण मृत्यु को वरण होता हूँ  मृत्यु के पहले जन्म का तय होना  मृत्य...