जेठ दुपहरिया की गाथा
पत्तों की ओट में पत्ता छुप रहा होता
छाया भी जब साया ढूँढता
तब ये कर्म देवता
सिर के ऊपर सूरज ढोते हुए
तलवे तले छाया को आश्रय देते हुए
स्वयं के पसीने से पसीना धोता
ये कर्म देवता ।
खेत में निकौनी करते हुए
मेंड़ें बनाते धरती कोड़ते हुए
मेंड़ें बनाते धरती कोड़ते हुए
ढेले से ढेला फोड़ते हुए
सिर के ऊपर न कोई छत्तर रखता
धूप में पसीना सुखाता
चलता जाता चलता जाता
चलता जाता चलता जाता
ये कर्म देवता ।
ग्रीष्म की दहकती लहर
सिकुड़ता झील पोखर
संकरी नदी सूखता नहर ।
हवा भी जब सिहकती नहीं
चिड़िया भी चहचहाती नहीं
तब भी अनवरत कर्म करता जाता
ये कर्म देवता ।
सूखाड़ की ठूँठ से लड़ते हुए
हरियाली से प्रकृति को सजाते हुए
पत्थर तोड़-तोड़ पथ बनाते हुए
ईंटें जोड़-जोड़ घर बनाते हुए
प्रखर ग्रीष्म से लापरवाह
विलासिता की न लिये कोई चाह
प्रखर ग्रीष्म से लापरवाह
विलासिता की न लिये कोई चाह
हर पल आगे बढ़ता जाता
ये कर्म देवता ।
अमर नाथ ठाकुर , 7 जून , 2015, कोलकाता ।
अति उत्तम
ReplyDeleteधन्यवाद,नलिन भाई !
ReplyDeleteधन्यवाद,नलिन भाई !
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