Saturday, 4 February 2017

कुरुक्षेत्र का उपदेशक


मैं उसे गृहस्थी का उपदेश देता रहता हूँ
अपने अनुभव की  गूढ़ बातें बताता रहता हूँ
ऐसा करते हुए मैं कब कृष्ण बन जाता हूँ ,
मुझे नहीं पता !
जाने अनजाने उसे मैं अर्जुन समझ बैठता हूँ क्या ?
यह भी मुझे नहीं पता  !
लेकिन होता है मेरे दृष्टि-पटल पर
 कुरुक्षेत्र के युद्ध क्षेत्र का  वह दृश्य अमर ,
सुदर्शन धारी श्री कृष्ण होते हैं रथ के सारथी
और गाण्डीव धारी शौर्य शाली अर्जुन महारथी ।

लेकिन नहीं होता है मेरी स्मृति-पटल पर ऐसा कोई विचार
कि कृष्ण के पास थी गोपियाँ  सोलह हज़ार
और सारी गोपियाँ कृष्ण - प्रेम में विलाप करती थीं जार- जार
कृष्ण भी सबको करते थे प्यार अपरम्पार ।
मैं इससे भी अनजाना- सा ही होता हूँ कि
मेरी एक ही गोपी होती है और वह भी अतृप्त ,
मैं भी होता हूँ  उदासीन और असन्तुलित ।

मेरा शिष्य अर्जुन की भाँति कर देता है प्रश्नों की बौछार
पर मेरे उपदेश को सुनने को नहीं होता वह तैयार
क्योंकि मैं उपदेशक कृष्ण का अंश भी नहीं दो-चार  ,
तिरस्कारी मुस्कान के बाद शिष्य मुझे देता है नकार ।
और इसलिये मैं उपदेश के लिये हो जाता हूँ अयोग्य ।
 गृहस्थ-जीवन का उपदेश देने का कैसे पाऊँ सुयोग ?

अमर नाथ ठाकुर , 3 फरवरी , 2017 , मेरठ ।




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