Thursday, 3 May 2012

मेरे मन



तुम  क्या हो
पता नहीं -
तुम नहीं मिलते
अतः कुछ भाता नहीं -
राह भी देखूँ तो कोई आता नहीं
जाता-हंसता-रोता नहीं -

फिर भी एक परिहास सुनता हूँ
जो विजय-घोष नहीं
पराजय का अहसास नहीं

यह तो है
अंतर्निनाद का शंखनाद
जिसमें राग , भय , ईर्ष्या -द्वेष नहीं
मेरे मन !
चंचल , उद्विग्न , विपन्न-
फिर भी आसन्न मेरे संग -
निर्भय , निर्वसन , नंग , धड़ंग-
तुम्हारी चाल-चलन बिना वाहन -
सिर्फ खेलन-कूदन -

जाड़ा हो या गर्मी-बरसात
साथ-साथ
हर दिन-रात
तुम्हारा यह प्रण संग निभाने का
आजन्म -
सुख और दुःख में
हर्ष और विषाद में
सांझ-सवेरे
तुम्हारा यह तर्पण -

जो मुझे समझ में नहीं आता
यह सत्य मैं निगल नहीं पाता
मेरा-तुम्हारा यह नाता
न अता-न  पता
बड़ा अट-पटा

मेरा अंतर्निनाद !
मेरा अन्तर्द्वन्द्व !
मेरे अंतर्मन !
तुम वन्द्य
तुम्हें मेरा शत नमन !


अमर नाथ ठाकुर , मई-जून ,१९८९ , कलकत्ता .

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