१
शायद यही हो महाप्रलय
अनंत वियोगों का विलय
न कोई खुशी
न कोई कलह
विरह ही विरह
२
फसल डूबा
सड़कें डूबी
पुल और नहर हुआ क्षत-विक्षत
ग्राम-ग्राम सब
जन-जानवर विहीन हुआ
भूगोल बदला शत प्रतिशत
कैसी तूं कोशी मैया
क्यों पसारा तू ने ये मृत्यु -शय्या
३
द्रुत गति से पानी आया
जैसे घोड़े पर सवार
ह ह ह ह ह ह ह
पांच हाथ ऊंचे दीवार की भांति
दैत्याकार
इधर-से
उधर-से
उत्तर से
पश्चिम से भी
न कल्पित कभी
अचंभित सभी
धार इधर मुडती है
उधर चढ़ती है
इधर मचलती है
उधर कूदती है
यहाँ उफनती है
यहाँ सहमती है
यह मरोड़
यह तोड़
चकरी की भाँति घूमता वृत्ताकार
वहाँ सर्पाकार
यहाँ निराकार
भाई , ये कौन सा प्रकार
ये पानी तो उन्मादी है
बेलगाम है
पाजी है
भाई जाग
जाग
और भाग
४
उधर से छागर , इधर से स्वान
गाय-बैल बिल्ली अनजान
सांप-छुछंदर मानव सब एक समान
सब डूब उपला रहे
समूल-पेड़ पत्ते सब बहे जा रहे
५
अबला का उजड़ा सुहाग
शिशु का बिछुड़ा भाग
किसी बाप का पाग
६
वह कहाँ
वह बहा
ये लुटिया
ये खटिया
ये पटिया
वह काठ का बक्सा
वह तख्ता
ये टिनही थाली
ये लोटा
ये झोली
ये बाबा का सोटा
उनका कुर्ता
माँ की पोटली
माँ की साड़ी
जिंदगी भर की सारी कमाई
सब 'जमा' गया
सब समा गया
सब भरमा गया
काका का घर चरमरा गया
काकी का कोठा भरभरा गया
बुढ़िया दादी का संदूक बह गया
अलगनी से झूलता दादा का इकलौता अध भींगा कुर्ता किंतु रह गया
चहारदीवारी लड़खड़ा गया
कल्पित भविष्य चरमरा गया
प्रलय सब बिखरा गया
७
ये संकटों का संकट
पानी पहूंचा अब आकंठ
जल-तल से घर की ऊँचाई
रह गयी तिहाई
रही न कहीं खाई
छोर रहित झील
मीलों-मील
कोई इस घर पर
कोई उस घर पर
कोई पेड़ पर
कोई नहर के छहर पर
८
हम यहाँ
पत्नी वहाँ
बालक कहाँ
९
अब न कोई पुकार
न कोई हाहाकार
न इस पार
न उस पार
नहीं अब कोई आर-पार
न कोई कोलाहल
न कोई चीत्कार
यही है प्रलय साकार
भविष्य जैसे भूत हो
बाप जैसे पूत हो
बुद्धि भ्रमित
बूढ़ा-बच्चा सब एक समान
कहाँ अब कोई अरमान
लहूलुहान वर्त्तमान
एक सूर्य ऊपर
सौ-सौ सूर्य जल में तरंगित
बिखेरता सिर्फ कुटिल मुस्कान
११
जीवन एक प्रक्रिया
मृत्यु एक लक्ष्य
जन-जन जाने यह दर्शन
प्रलय सब पलट दे
मृत्यु को प्रक्रिया कर दे
और लक्ष्य बना दे जीवन
पलकों में जिसकी गणना हो
यह जीवन अब क्षणिक है
मृत्यु अब नहीं संकुचित
पलकों से आगे घंटों - दिनों में पहुंचा गणित है
अमर नाथ ठाकुर , २९ अप्रैल ,२०१२ , कोलकाता.
कल्पित भविष्य चरमरा गया
प्रलय सब बिखरा गया
७
ये संकटों का संकट
पानी पहूंचा अब आकंठ
जल-तल से घर की ऊँचाई
रह गयी तिहाई
रही न कहीं खाई
छोर रहित झील
मीलों-मील
कोई इस घर पर
कोई उस घर पर
कोई पेड़ पर
कोई नहर के छहर पर
८
हम यहाँ
पत्नी वहाँ
बालक कहाँ
९
अब न कोई पुकार
न कोई हाहाकार
न इस पार
न उस पार
नहीं अब कोई आर-पार
न कोई कोलाहल
न कोई चीत्कार
यही है प्रलय साकार
१०
भविष्य जैसे भूत हो
बाप जैसे पूत हो
बुद्धि भ्रमित
बूढ़ा-बच्चा सब एक समान
कहाँ अब कोई अरमान
लहूलुहान वर्त्तमान
एक सूर्य ऊपर
सौ-सौ सूर्य जल में तरंगित
बिखेरता सिर्फ कुटिल मुस्कान
११
जीवन एक प्रक्रिया
मृत्यु एक लक्ष्य
जन-जन जाने यह दर्शन
प्रलय सब पलट दे
मृत्यु को प्रक्रिया कर दे
और लक्ष्य बना दे जीवन
पलकों में जिसकी गणना हो
यह जीवन अब क्षणिक है
मृत्यु अब नहीं संकुचित
पलकों से आगे घंटों - दिनों में पहुंचा गणित है
अमर नाथ ठाकुर , २९ अप्रैल ,२०१२ , कोलकाता.
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